शुक्रवार, 17 मई 2024

निवाला

                                    


     
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          वैसे तो कोरोना-काल को अब हम भूलने लगे हैं लेकिन उसकी खट्टी-मीठी यादें अभी भी हमारे जेहन में कैद हैं। उन्हें याद कर कभी आँखों में आँसू तो कभी होठों पर मुस्कुराहट आ जाती है।  बहुतों ने दूसरों की चिता पर अपनी रोटियाँ सेंकी तो ऐसे लोग भी थे जिन्होंने अपनी चिता जला कर दूसरों के लिये रोटियाँ सेकीं। किसी ने दूसरे का निवाला छीना तो किसी ने अपना निवाला दूसरे के मुंह में डाला। ऐसी ही एक घटना है जिसे याद कर आँखों में आँसू भी आते हैं और होठों पर मुस्कुराहट भी।

          रात भर बेचैन रहा, करवटें ही बदलता रहा, नींद नहीं आई। बड़ी मुश्किल से सुबह कुछ निवाले मुंह में डाल घर से अपने शोरूम के लिए निकला। आज किसी के पेट पर पहली बार लात मारने जा रहा हूँ। यह बात अंदर ही अंदर कचोट रही थी। जिंदगी में यही फलसफा रहा है मेरा, यही सीखा है अपने माँ-बाप से,  कि अपने आस-पास किसी को रोटी के लिए तरसना ना पड़े। पर इस विकट-काल में अपने पेट पर ही आन पड़ी थी। दो साल पहले ही अपनी सारी जमा पूंजी लगाकर कपड़े का शोरूम खोला था, मगर दुकान की बिक्री, अब आधी से भी कम हो गई थी। अपने शोरूम में दो लड़के और दो लड़कियों को रखा था मैंने, ग्राहकों को कपड़े दिखाने के लिए। महिला विभाग (लेडीज डिपार्टमेंट) की दोनों लड़कियों को निकाल नहीं सकता। एक तो कपड़ों बिक्री इन्हीं की ज्यादा है। दूसरे वे दोनों बहुत गरीब हैं। दो लड़कों में से एक पुराना है और वह घर में इकलौता कमाने वाला  है। जो नया लड़का है दीपक, मैंने विचार उसी पर किया है। शायद उसका एक भाई भी है, जो अच्छी जगह नौकरी करता है। और वह खुद, तेजतर्रार और हँसमुख भी है। उसे कहीं और भी काम मिलने की उम्मीद ज्यादा है। इन पांच महीनों में मैं बिलकुल टूट चुका हूँ। स्थिति को देखते हुए एक कर्मचारी को कम करना मेरी मजबूरी है। इसी उधेड़बुन में दुकान पहुंचा।

          चारों आ चुके थे। मैंने चारों को बुलाया और बड़ी मुश्किल से अपने आँसू को रोकता उदासी से कमजोर आवाज में बोल पड़ा, “देखो दुकान की अभी की स्थिति तुम सब को पता है, तुम लोग समझ रहे होगे कि मैं तुम सब को काम पर नहीं रख सकता।

          उन चारों के माथे पर चिन्ता की लकीरें मेरी बातों के साथ गहरी होती चली गई। मैंने पानी से अपने गले को तर किया और आगे कहा, “मुझे किसी एक का हिसाब आज करना ही होगा। दीपक तुम्हें कहीं और काम ढूंढना होगा।”

“जी अंकल”, उसने धीरे से कहा। उसे पहली बार इतना उदास देखा था। बाकियों के चेहरे पर भी उदासी की छाप स्पष्ट नजर आ रही थी। एक लड़की जो शायद दीपक के मोहल्ले में ही रहती है, कुछ कहते-कहते रुक गई।

“क्या बात है बेटी? तुम कुछ कह रही थी?”

“अंकल जी, इसके भाई का भी काम कुछ एक महीने पहले छूट गया है। इसकी मम्मी बीमार रहती है,” अपने आँसुओं को बड़ी मुश्किल से रोकते हुए वह इतना ही बोल पाई।

नज़र दीपक के चेहरे पर गई। उसकी आँखों में जिम्मेदारी के आँसू थे, जिसे वह अपने हँसमुख चेहरे से छुपा रहा था। मैं कुछ बोलता कि तभी एक और दूसरी लड़की बोल पड़ी, “अंकल, बुरा ना माने तो एक बात बोलूं?

“हाँ हाँ बोल ना।”

“किसी को निकालने से अच्छा है, आप हमारे सबों के पैसे कुछ कम कर दो।”

मैंने बाकियों को तरफ देखा।  

“हाँ अंकल! हम कम में काम चला लेंगे।”

बच्चों ने मेरी परेशानी को आपस में बांटने का सोच मेरे मन के बोझ को कम कर दिया था।

पर तुम लोगों को ये कम तो नहीं पड़ेगा न?

नहीं अंकल! कोई साथी भूखा रहे ... इससे अच्छा है, हम सब अपना निवाला थोड़ा कम कर दें।

मेरी आँख में आंसू छोड़ ये बच्चे अपने काम पर लग गये, मेरी नजर में मुझसे कहीं ज्यादा बड़े बनकर।

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शुक्रवार, 10 मई 2024

अलमस्त पुजारी


                                

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अलमस्त पुजारी                                                               चिंतन

 

          रानी रासमणि ने माँ काली की प्रेरणा से उनका एक विशाल मंदिर बनवाया। संत स्वभाव की रानी  ने माँ की पूजा-आराधना करने के विचार से बंगाल त्याग कर वाराणसी जाने का निश्चय किया और जाने की तैयारियां शुरू हो गई। लेकिन तभी प्रस्थान के एक दिन पहले रानी को सपने में माँने रानी से कहा कि रानी उस स्थान को छोड़ कर न जाये बल्कि  वहीं उनको स्थापित कर उनकी पूजा की व्यवस्था करें।  माँ स्वयं उनका प्रसाद ग्रहण करेंगी।  इस सपने से प्रेरित हो कर रानी ने वाराणसी जाने का मन त्याग कर इस मंदिर का निर्माण 1855 में करवाया।

          समस्या थी मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा और नियमित पूजा करने के लिए ब्राह्मण की। रानी रासमणि चूंकि शूद्र थी, उसके मंदिर में कोई ब्राह्मण प्राणप्रतिष्ठा करवाने के लिए राजी नहीं हुआ। जबकि संत स्वभाव की रासमणि इस डर से कि कहीं मंदिर अपवित्र न हो जाये, खुद कभी मंदिर के अंदर नहीं गयींयह तो ब्राह्मण होने का लक्षण हुआ,  जो अपने को शूद्र समझे, वह ब्राह्मण, जो अपने को ब्राह्मण समझे, वह शूद्र लेकिन समाज तो अपनी समझ से चलता है। वह तो अपना पुश्तैनी अधिकार छोड़ना नहीं चाहता भले ही अपने कर्तव्य से च्युत हो जाये।

          रासमणि कभी मंदिर के पास भी नहीं गयी, बाहर से घूम आती थीदक्षिणेश्वर का भव्य मंदिर उसने बनवाया था, लेकिन पूजा करने के लिए कोई पुजारी नहीं मिल रहा थारासमणि शूद्र थीं इसलिए वह खुद पूजा कर नहीं सकती थीं। बड़ी समस्या थी।

          यह सोच सोच कर कि क्या मंदिर बिना पूजा के रह जायेगा, वह बड़ी दुखी थीफिर किसी ने खबर दी कि गदाधर नाम का एक अलमस्त ब्राह्मण लड़का है, लोगों को लगता है कि उसका दिमाग थोड़ा गड़बड़ है, लेकिन शायद वह राजी हो जाये! रानी को आशा की किरण दिखी तो उसने लोगों को गदाधर को बुलाने के लिये भेजा! रानी के भेजे लोगों ने गदाधर से मंदिर में पूजा करने के लिए पूछा और गदाधर तैयार हो गया। उसने एक बार भी नहीं कहा कि ब्राह्मण होकर मैं शूद्र के मंदिर में कैसे जाऊं? कहा, ठीक है, प्रार्थना जैसे यहां करते हैं, वैसे वहां करेंगे

          घर के लोगों ने रोका, मित्रों ने भी कहा कि कहीं और काम दिला देंगे, काम के पीछे अपने धर्म को काहे खो रहा है? गदाधर ने कहा, नौकरी का सवाल ही नहीं है; भगवान बिना पूजा के रह जायें, यह बात जंचती नहीं; पूजा करेंगे

          लेकिन फिर एक नयी समस्या। रासणि को पता चला कि यह पूजा तो करेगा, लेकिन पूजा करने के लिए यह दीक्षित नहीं हैइसने कभी किसी मंदिर में पूजा नहीं की हैइसकी पूजा का कोई शास्त्रीय ढंग नहीं, विधि-विधान नहीं और इसकी पूजा भी अनूठी ही है; कभी करता है, कभी नहीं भी करता।  कभी तो दिन भर करता है, कभी महीनों भूल जाता हैऔर भी गड़बड़ है; यह भी खबर आयी है कि यह पूजा करते वक्त पहले खुद भोग लगा लेता है अपने को, फिर भगवान को लगाता हैमिठाई वगैरह हो तो खुद चख लेता हैहताश रासमणि ने कहा, अब जैसा है, एक बार आने दो, कम से कम कोई आ तो रहा है

          गदाधर आया, लेकिन गड़बड़ियाँ शुरू हो गयींकभी पूजा होती, कभी मंदिर के द्वार बंद रहतेकभी दिन बीत जाते घंटा न बजता, दीया न जलता; और कभी ऐसा होता कि सुबह से प्रार्थना चलती तो बारह-बारह घंटे नाचता ही रहता पगला पुजारीरासमणि तो चुप रहीं लेकिन मंदिर के ट्रस्टी थे, उन्होंने बैठक बुलायी, पूछा, “भई, ये कैसी-किस तरह की पूजा है? किस शास्त्र में लिखा है ऐसा विधान?

          पुजारी हंसने लगा बोला,शास्त्रों से पूजा का क्या सम्बंध! पूजा तो प्रेम की अभिव्यक्ति है, अनुग्रहीत होने का भाव हैकृतज्ञ मन की भेंट है, यह औपचारिक हुई तो इसका कोई अर्थ नहीं, जब मन ही नहीं होता करने का, तो पूजा करना गलत होगा। भले ही कोई न पहचाने, लेकिन जिसकी पूजा की है, वह तो पहचान ही लेगा कि बिना मन के पूजा की जा रही हैतो भैया, मेरे लिये थोड़े ही पूजा कर रहा हूंजिसके लिए करता हूं, उसको मैं धोखा नहीं दे सकूंगाजब करने का मन ही नहीं हो रहा, जब भाव ही नहीं उठता, तो झूठे आंसू बहाऊंगा, तो परमात्मा पहचान लेगायह तो पूजा न करने से भी बड़ा पाप हो जायेगा कि भगवान को धोखा दे रहा हूंअपना यह है कि जब उठता है भाव तो इकट्ठी ही कर लेता हूं पूजादो तीन सप्ताह की अर्चना-आराधन एक दिन में निपटा देता हूं, लेकिन कान खोल कर सुन लो, बिना भाव के मैं पूजा नहीं करूंगा।”

          ट्रस्टियों ने कहा, “तुम्हारा कुछ विधि-विधान नहीं मालूम पड़ता, कहां से शुरू करते हो कहां अंत करते हो कुछ पता ही नहीं।”

          पुजारी बुरा मान गया कहा, “तो हम कोई अपनी मर्जी से करते हैं? वह जैसा करवाता है, वैसा हम करते हैं, हम अपना विधि-विधान उस पर थोपते नहीं, यह कोई क्रियाकांड नहीं है, पूजा है, यह प्रेम हैजिस रोज जैसी भावदशा होती है, वैसा होता हैकभी पहले फूल चढ़ाते हैं, कभी पहले आरती करते हैं, कभी नाचते हैं, कभी शांत बैठते हैं, कभी घंटा बजाते हैं, कभी नहीं भी बजाते हैं।”

          ट्रस्टियों ने समझौता करते हुए कहा, “चलो, यह भी जाने दो, पर यह तो पाप है कि पहले भोग तुम खुद चखते हो, फिर भगवान को चढ़ाते हो, दुनिया में कहीं ऐसा सुना नहींतुम भोग खुद को लगाते हो, प्रसाद भगवान को देते हो

          पुजारी ने इनकार में सिर हिलाया, यह तो मैं कभी न कर सकूंगाजैसा मैं करता हूं, वैसा ही करूंगामेरी मां भी जब कुछ बनाती थी तो पहले खुद चख लेती थी, फिर मुझे देती थीपता नहीं, देने योग्य है भी या नहींकभी मिठाई में शक्कर ज़्यादा होती है, मुझे ही नहीं जंचती, तो भोग कैसे चढ़ाऊं? कभी शक्कर होती ही नहीं, मुझे ही नहीं जंचती, तो भगवान को कैसे प्रीतिकर लगेगी? जो मेरी मां मेरे लिये न कर सकी वह मैं परमात्मा के लिए नहीं कर सकता हूं” वह जाने के लिए उठ खड़ा हुआ।

          रानी ने सिंहासन से उतर कर फक्कड़ पुजारी के पैर पकड़ लिये- “आप ही करोगे पूजा”उनकी आंखों से आंसू बह रहे थेउस अलमस्त पुजारी को आगे जाकर देश ने रामकृष्ण परमहंस के नाम से जाना

          स्वामी विवेकानंद इन्हीं रामकृष्ण परमहंस के शिष्य थे। इन्होंने ही विवेकानंद के प्रश्न पर पूरे आत्मविश्वास के साथ कहा था, “हां मैं तुम्हारी भगवान से बात करवा सकता हूँ, ठीक वैसे ही जैसे हम और तुम बात कर रहे हैं।”

          ऐसे प्रेम से जो भक्ति उठती है, वह तो रोज-रोज एकदम नयी ही होगीउसका कोई क्रियाकांड नहीं हो सकताउसका कोई बंधा हुआ ढांचा नहीं हो सकताप्रेम भी कहीं ढांचे में बंधा हुआ होता है? पूजा का भी कहीं कोई शास्त्र होता है? प्रार्थना की भी कोई विधि होती है? वह तो भाव का सहज आवेदन है, मुक्त तरंग है

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शुक्रवार, 3 मई 2024

सूतांजली मई 2024


गलत गलत है, भले ही उसे सब कर रहे हों।

                    सही सही है, भले ही उसे कोई न कर रहा हो।

                                                                                      दलाई लामा 

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