शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018


शोर, अच्छा लगता है!                                    

पटाखों के शोर पर प्रतिबंध लगाना संभव हुआ है।
माइक का शोर भी नियंत्रत किया गया है।
शायद वाहनों के हॉर्न के शोर पर एतराज नहीं, अत: बदस्तूर चल रहा है।
अगर खेल के मैदान में दर्शकों के शोर को नियंत्रित क्या जाय तो?
जन्म जात बच्चा अगर शोर न मचाए तो?
बच्चे अगर शोर न मचाएँ, बिना वजह ही सही, तो क्या अच्छा लगेगा?
बच्चे अगर कुछ कह रहे हैं, बोल रहे हैं तो उन्हे बोलने दें। वे क्या बोल रहे हैं? उसे चुप रहने के लिए कहने के बजाय यह समझने की कोशिश करें कि वह क्या बोल या पूछ रहा है। अगर हम चाहते हैं कि बच्चे के व्यक्तित्व का विकास हो, वह विचारशील हो, तो उसे बोलने दें।

हमारी हाँ में हाँ मिलाने वाले बच्चे विचार शून्य, हताश, लुंज-पुंज होंगे। हम उनके हर कार्यकलाप में इतना रोका-टोकी करते हैं कि वे असहज अनुभव करते हैं। वे हमारे सामने चुप रहने लगते हैं। उन्हे प्रश्न करने दीजिये। एक बच्चे ने प्रश्न किया, दिवाली रामजी के अयोध्या लौटने की खुशी में मनाते  हैं लेकिन पूजा लक्ष्मी जी की करते हैं। क्यों’? इस प्रश्न का समुचित उत्तर मैं आज तक नहीं ढूंढ पाया।

सविता प्रथमेश लिखती  हैं, कक्षा में अगर आवाज उठ रही है, प्रश्न आ रहे हैं, जिज्ञासाएँ  जन्म ले रही हैं तो समझिए मस्तिष्क में चिंतन चल रहा है, बच्चा बोल रहा है, आपको समझ व समझा रहा है। हमारे पाठ्यक्रम में इसकी गुंजाइश नहीं है। तयशुदा प्रश्नों के तयशुदा उत्तर ही सिखाते रहे तो विचारशील मस्तिष्क कहाँ से मिलेंगे? जो बनाया नहीं वो मिलेगा कहाँ से? 

अगर बच्चे पूछ रहे हैं, बोल रहे हैं तो समझिए विचार पैदा हो रहे हैं, तर्क तैयार हो रहे हैं, मस्तिष्क काम कर रहा है। और जब यह होगा तो अंदर शोर मचेगा ही, वह बाहर भी आयेगा ही। यह नहीं हुआ तो विस्फोट हो सकता है। हम सब ज्वालामुखी के मुहाने पर बैठे हैं, क्योंकि हम सभी प्रश्नों से भरे हैं लेकिन अभिव्यक्ति से वंचित हैं।

क्या वह कक्षा सर्वश्रेष्ट है जहां से बच्चों का शोर न आए केवल शिक्षक की आवाज आए? एक स्वस्थ्य कक्षा वह है जहां बच्चों की आवाजें आयें। वे कह, सुन और बोल रहे हों। जब अगली बार बच्चों का शोर सुने तो कहें, हाँ, शोर अच्छा लगता है

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2018

हम कब स्वतंत्र होंगे?                                          

कल मेरे फोन में  एक व्हाट्स ऐप आया। अरे! आप हंसने क्यों लगे? इसमें हंसने की क्या बात हो गई? ओ अच्छा! आप ठीक ही हँस रहे हैं। मैं अपनी गलती सुधार लेता हूँ। रोज की तरह मेरे पास कल भी अनेक व्हाट्स ऐप आए। उनमें से एक ऐप प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टाइन से संबन्धित है। एक विडियो के माध्यम से बताया गया है कि आइन्स्टाइन ने जापान में १९२२ में होटल में सामान उठानेवाले एक कर्मचारी को, पास में पैसे न होने के कारण, टिप में एक कागज पर एक नोट लिखा और उसे पकड़ा दिया। अभी हाल में उनका लिखा वह लिखा हुआ नोट $१.५ मिलियन यानि १५ लाख अमेरिकन डॉलर तदनुसार आज के मुल्यानुसार लगभग १० करोड़ रुपयों में बिका। कागज पर लिखा है, ‘a calm and modest life brings more happiness than the constant pursuit of success combined with constant restlessness’। उस विडियो में उसके बाद आज की बेहाल और भाग-दौड़ में व्यस्त भीड़ का दृश्य है। हमें बार बार बताया जाता है कि आनंद के लिए निरंतर मेहनत करो, भाग दौड़ करते रहो - ये लाओ, वो करो – ऐसे करो, तब आनंद मिलेगा वगैरह-वगैरह। और तब अंत में शांतचित्त बैठ कर एक सुखी और आनंद दायक जीवन जीने की सलाह दी गई थी।आज हमारी गति के आवेग में, आवेग की ऐसी बन आयी है कि गति की सूझबूझ ही नि:शेष हो गयी है। तेज़ और तेज़ और तेज़, आखिर भागकर हम कहाँ पहुंचाना चाहते हैं? जब मैं इस ऐप को देख रहा था, किसी भी प्रकार उस नोट की कीमत से आगे बढ़ ही नहीं पाया। वह तो जब मैं अपने विचार लिखने बैठा तब पूरा देखा और गंभीर विचार तथा सोच में डूब गया। 

खरीदने वाले ने इतनी कीमत किस की लगाई? उस पर लिखे गए आनंद की परिभाषा की या यह जानने की, कि आनंद कहाँ और कैसे मिलेगा? क्या जिसने खरीदा उसने सुख को वहाँ खोजा और उसे पाया? या यह कीमत सिर्फ आइन्स्टाइन के हस्ताक्षर की है?

होटल के उस कर्मचारी को उस नोट का कितना मिला होगा? क्या उसे अपनी आशा के अनुसार टिप लायक राशि मिली होगी? हमारे अन्न उपजाने वाले किसान गरीबी में जिंदगी गुजार देते हैं, कर्ज में फंस कर अत्महत्या कर लेते हैं। उन्हे उस अन्न की लागत तक नसीब नहीं हो पाती है। और उसी अन्न को व्यापारी शहर में बेच कर मकान, फ्लैट, गाडियाँ खरीद लेते हैं। यह क्यों और कैसे होता है? १९४७ में जिन्हे स्वतन्त्रता मिली, मिली होगी! हम तो अभी गुलाम ही हैं। हम कब स्वतंत्र होंगे?

मंगलवार, 3 अप्रैल 2018

सूतांजली, अप्रैल २०१८


 सूतांजली                       ०१/०९                                                 ०१.०४.२०१८

पैड मैन
जी हाँ, मैं अक्षय कुमार की फिल्म पैड मैन की ही बात कर रहा हूँ। पिछले कुछ समय से देश प्रेमी, सुरक्षा कर्मी, ईमानदार नागरिक के   अभिनय की भूमिका में ही दिखा है। ऐसी ही कोई कहानी होगी, यही सोचकर गया था पैड मैन देखने। लेकिन यह फिल्म औरतों से जुड़ी उनकी निजी-व्यक्तिगत एवं सामाजिक समस्या पर आधारित है। पैड यानि सैनिटरी पैड। जानकारी के अभाव एवं रूढ़ियों के चलते खुल कर न बोल पाने के कारण देश की करोड़ों महिलाएं अपने मासिक रक्त स्त्राव के संबंध में चर्चा करने से कतराती हैं। अत: अनेक कष्टों को सहती हैं और रोगों से ग्रसित होती हैं  फिर भी मौन रहती हैं। कुछ समय पहले अमिताभ जी द्वारा संचालित टीवी सीरियल कौन बनेगा करोड़पति में एक सामाजिक संस्था  गूंज ने भी इस समस्या का जिक्र किया था और देश के नगरिकों को औरतों की इस दयनीय दशा से अवगत कराया। खैर, यह तो वह मुद्दा है जिस पर यह  फिल्म आधारित है।  लेकिन इसके साथ साथ कई अन्य मुद्दे भी कहानी में पिरोये गए  गए हैं।

१।  आर्थिक परिस्थिति  - देश की अधिकतर जनता गांवों में रहती है और गरीबी में किसी प्रकार अपने परिवार को चलाती है। समुचित कमाई के अभाव में उपलब्ध महंगे उपाय अधिकतर औरतें अपनाने में असमर्थ हैं। उस अतिरिक्त खर्च से उनकी अर्थ व्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। शहर-विद्यालय-कॉलेज  की पढ़ी लिखी  औरतों को विश्वसनीय उपाय चाहिए और उसके लिए कुछ भी खर्च करने में वे जरा भी नहीं  हिचकती  हैं। लेकिन जितने रुपयों का उनके लिए कोई महत्व नहीं, उतने रुपए हमारे देश की अधिकतर औरतों के लिए परिवार के आर्थिक अस्तित्व का सवाल खड़ा कर देती हैं। उन्हे स्वदेशी सस्ता उपाय चाहिए  जो उनकी जेब के अनुरूप हो।

२।  हमारी साखदेश की राजधानी, दिल्ली में नायक को सम्मान और पुरस्कार मिलने पर गाँव  वाले नायक का स्वागत करते हैं, खुशी मनाते हैं, सम्मान देते हैं। लेकिन फिर जब उस सम्मान और पुरस्कार का कारण पता चलता है तब वापस वही पुराना तिरस्कार झेलना पड़ता है। फिर कुछ  समय बाद हमारा वह  नायक उन्हीं कारणों से विश्व मंच पर सम्मानित होता है। तब वही गाँव वाले उसे सिर आँखों पर बैठा लेते हैं।  ऐसा क्यों? हमारी जनता अपने देश द्वारा दिये गए सम्मान को उतना महत्व  क्यों नहीं देती! उसमें नुक्ताचीनी करती है! लेकिन जब वही सम्मान पश्चिम से घूम कर आता  है तब उसे स्वीकार कर लेती है! हमारी जनता को  पश्चिमी पर ज्यादा भरोसा क्यों है? या फिर हमारी सस्थाओं ने अपनी ही जनता का विश्वास खो दिया है?  हमें अपनी जनता का विश्वास हासिल करना होगा।

३। मित्र की आवश्यकताहमें अपने जीवन के हर दुर्गम मोड़ पर एक सच्चे  मित्र की आवश्यकता होती है। कठिन समय में वही हमारी सहायता करता है, सही मार्ग दिखाता है। हमें कठिनाइयों से निकालता है लेकिन उसके बदले कोई चाह नहीं होती।  आध्यात्मिक भाषा में हम उसे  ही गुरु कहते हैं। चेले ने गुरु को नहीं खोजा, गुरु ने ही चेले को खोजा। हम  सत्पथ और सेवा भाव अपनाएं, गुरु अपने आप सहारा देने आ जाएंगे

४। पढ़ें और गुनें  – आज अपनी गति के कारण हमारे पास न तो पूरा पढ़ने का समय है, न सुनने का, न गुनने (समझने) का।  आज हमारी गति के आवेग में, आवेग की ऐसी बन आयी है कि गति की सूझबूझ ही शेष रह गयी है। तेज़, और तेज़, और तेज़, आखिर भागकर हम कहाँ पहुंचना चाहते हैं? यह हमें पता ही नहीं है। बिना पढ़े, सुने और  गुने करने और बोलने के लिए हम व्याकुल  हैं। नायक के गाँव वालों ने नायक को मिले सम्मान और उसकी फोटो ही देखी। क्यों मिला? यह जानने की कोशिश किसी ने नहीं की। हमारा भी यही हाल है। सिर्फ पढ़े  नहीं, बल्कि गुनें

मैंने पढ़ा
सार्वजनिक संस्था का अर्थ है, लोगों कि स्वीकृति और धन से चलने वाली संस्था

 .......(नेटाल इंडियन काँग्रेस के) कोष में लगभग 5 हजार पौंड जमा हो गये। मेरे मन में लोभ यह था कि यदि कांग्रेस का स्थाई कोश हो जाए, तो उसके लिए जमीन ले ली जाए और उसका भाड़ा आने लगे तो काँग्रेस निर्भय हो जाये। सार्वजनिक संस्था का यह मेरा पहला अनुभव था। मैंने अपना विचार साथियों के सामने रखा। उन्होने उसका स्वागत किया। मकान खरीदे गए और भाड़े पर उठा दिये गए। उनके किराये  से काँग्रेस का मासिक खर्च आसानी से चलने लगा। संपत्ति का सुदृड़ ट्रस्ट बन गया। यह संपत्ति आज भी मौजूद है, पर अंदर-अंदर वह आपसी कलह का कारण बन गई है और जायदाद का किराया आज अदालत में जमा होता है।

यह दुखद घटना तो मेरे दक्षिण अफ्रीका छोड़ने के बाद घटी, पर सार्वजनिक संस्थाओं के लिए स्थाई कोष रखने के संबंध में मेरे विचार दक्षिण अफ्रीका में ही बदल चुके थे। अनेकानेक सार्वजनिक संस्थाओं की उत्पत्ति और उनके प्रबंध की ज़िम्मेदारी संभालने के बाद मैं इस दृड़ निर्णय पर पहूंचा हूँ कि किसी भी सार्वजनिक संस्था को स्थाई कोष पर निर्भर रहने  का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। इसमें उसकी नैतिक अधोगति का बीज छिपा होता है।

सार्वजनिक संस्था का अर्थ है, लोगों कि स्वीकृति और लोगों के धन से चलने वाली संस्था।  ऐसी संस्था को जब लोगों कि सहायता नहीं मिले, तो उसे जीवित रहने का अधिकार ही नहीं रहता। देखा यह गया है कि स्थाई संपत्ति के भरोसे चलने वाली संस्था लोकमत से स्वतंत्र हो जाती है और कितनी ही बार वह उल्टा आचरण भी करती है। हिंदुस्तान में हमें पग-पग पर इसका अनुभव होता है। कितनी ही धार्मिक माने जाने वाली  संस्थाओं के हिसाब-किताब का कोई ठिकाना ही नहीं रहता। उनके ट्रस्टी ही उनके मालिक  बन बैठे हैं और वे किसी के प्रति उत्तरदायी भी नहीं हैं। जिस तरह प्रकृति स्वयं प्रतिदिन उत्पन्न करती और प्रतिदिन खाती है, वैसी ही व्यवस्था सार्वजनिक संस्थाओं की भी होनी चाहिए, इसमें मुझे कोई शंका नहीं है। जिस संस्था को लोग मदद देने के लिए तैयार न हों, उसे सार्वजनिक संस्था के रूप में जीवित रहने का अधिकार नहीं है। प्रतिवर्ष मिलने वाला चंदा ही उन  संस्थाओं की लोकप्रियता और उनके संचालकों की प्रामाणिकता की कसौटी है, और मेरी यह राय है कि हर एक संस्था को इस कसौटी पर कसा जाना चाहिए। .......... सार्वजनिक संस्थाओं के दैनिक खर्च का आधार लोगों से मिलने वाला चंदा ही होना चाहिए
गांधी, आत्मकथा

धर्म का विशेषण
धर्म को मैं निर्विशेषण देखना चाहता हूँ। आज तक उसके साथ जितने भी विशेषण लगे हैं, उन्होने मनुष्य को बांटा ही है। आज एक विशेषण रहित धर्म की अवशयकता है, जो मानव-मानव को आपस में जोड़, यदि विशेषण ही लगाना चाहें तो उसे मानव-धर्म कह सकते है।
आचार्यतुलसी


ब्लॉग विशेष
आजाद आदमी के अंदर कुछ सोचने, फैसला करने और अपने फैसले पर अमल करने की दिलेरी होती है। गुलाम आदमी यही दिलेरी खो चुका होता है।
 

प्रख्यात फिल्म अभिनेता बलराज साहनी द्वारा १९७२ में जेएनयू के दीक्षांत समारोह में दिये गए व्याख्यान के संपादित अंश                                                                           गांधी मार्ग, जुलाई-अगस्त २०१७, पृ १२


शुक्रवार, 30 मार्च 2018

मिसाल - नदिया के गाँव की


मीडिया ऊटपटाँग खबरें दे कर ही अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह मान लेता है। वह यह समझता है कि व्यापार, राजनीति, धर्म और खेल की गतिविधियां ही बताना-छापना उनका उद्देश्य है। इनके अलावा अपराध तथा समाज और व्यक्ति को  तोड़ने की खबरों के अलावा उसे कुछ सूझता ही नहीं। ऐसे में सन्मार्ग रविवार, १८ मार्च २०१८ में छपी यह खबर इस बात का प्रमाण है कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है।


लेकिन क्या ऐसी खबरें सामाजिक मीडिया (सोश्ल मीडिया) के लोग भी पढ़ते और बांटते (शेयर) हैं?

शुक्रवार, 23 मार्च 2018

अमरा का बास


टॉइलेट, एक सत्य कथा

राजस्थान के अलवर जिले में सरिस्का राष्ट्रीय उद्द्यान है। देश एवं विदेश से अनेक पर्यटक यहाँ आते रहते हैं। यहीं पर है स्टर्लिंग का “टाईगर हैवेन” रिज़ॉर्ट। ठहरने के लिए उत्तम जगह है। यह रिज़ॉर्ट “अमरा का बास” नमक जगह में है। हम इसी रिज़ॉर्ट में ठहरे हुए थे। एक दिन सुबह गाँव देखने निकल पड़े। गाँव मुझे बहुत पसंद है। बचपन में लंबे समय तक छुट्टियों में हम सपरिवार अपने गाँव में रहते थे। इसके अलावा और भी गांवों में रहा हूँ, घूमा हूँ। इन सब गांवों में हमारे परिचितों के अलावा भी बहुत लोग रहते हैं। दुकाने हैं, छोटा सा विद्यालय है, डॉक्टर हैं, मंदिर मस्जिद गिरजा चर्च सब हैं। कहने का मतलब यह कि हर न्यूनतम सुविधा उपलब्ध है और हर जाति एवं धर्म के लोग साथ साथ रहते हैं। इसी ख्याल से हम उधर बढ़े।

अपने अनुभव के आधार पर मन में था कि गाँव हैं तो दुकानें होंगी, बच्चे होंगे, छात्र  दिखेंगे। वहीं की दुकान से खरीद कर कुछ-न-कुछ बच्चों में बांटेंगे। इसी ख्याल से हम घुसे। कुछ एक मकानों के बाद एक मोड़ आया। और यह क्या? गाँव समाप्त, हम गाँव के बाहर थे। मकानों की माली हालत ठीक सी ही लगी। असमंजस में आगे बढ़ रहे थे कि तभी पीछे से आवाज आई “भाईजी राम राम”। मुड़ कर देखते तब तक सज्जन हमारे बराबर पहुँच चुके थे। चलते चलते उनसे बातें होने लगी। पता चला कि इस गाँव में एक ही परिवार रहता है। दादा से लेकर पोते, पड़ पोते  और उसके बाद की पीढ़ी तक। इस प्रकार के कई मकानों या परिवारों के समूह को मिलकर है अमरा का वास। हर परिवार का अपना अपना १००-२०० बीघा के खेत हैं और उसी खेत में पूरा परिवार अपने मकान बनाता है और पूरा परिवार इकट्ठा वहीं एक साथ रहता है। लेकिन हमें दूर दूर तक कोई मकान दिखा नहीं। हमारी खोजती नजरों को उसने यह कह कर विराम दिया कि दूसरों के मकान दूर है फसलों और पेड़ों के बाद। यहाँ से नहीं दिखेगा। और छानबीन करने पर पता चला कि परिवार बंटते जा रहे हैं और नौबत यहाँ तक आ गई है कि अब उसके हिस्से में सिर्फ ३-४ बीघा जमीन ही है। सब अलग अलग खेती करते हैं। इतने में बस गुजारा हो जाता है, बचता कुछ नहीं। आगे बच्चों का क्या होगा? खेत तो और बाँट जाएंगे? इसे लेकर चिंता है लेकिन कोई समाधान भी नहीं, गाँव खेती-बाड़ी छोड़कर नौकरी के लिए शहर जाने के अलावा। हमें सोच में डालकर, भाईजी आगे बढ़ गए।

हम धीरे धीरे खेतों की मेढ़ों पर चलते हुए आगे बढ्ने लगे। एक पेड़ के नीचे, ठंडी छाँव में एक पलंग लगा था और उसपर साफ सुथरा बिस्तर लगा था। दूर दूर तक कोई दिखा नहीं। हम पैर पसार कर बैठ गए। हल्की ठंडी बयार, मिट्टी की सोंधी सुगंध में डूबे, आंखे चारों तरफ घूमा रहे थे। खेतों में जगह जगह अतिलघु मंदिर दीख पड़े। हम यह समझने कि कोशिश कर ही रहे थे कि कौन से देवी देवता हैं अचानक दो वयस्क लड़कियां कहीं से प्रगट हो गईं जैसे कि आसमान से उतरी हों। बातूनी एवं मिलनसार।

पढ़ती लिखती हो?’ के प्रश्न पर पता चला कि दोनों बी.ए. कर रही हैं। उनके गाँव में विद्यालय या कॉलेज नहीं है। गाँव से लगभग ४ किमी पर थानागाजी में ही दुकाने, विद्यालय और कॉलेज हैं।
“रोज वहाँ जाती हो?
“अरे नहीं! घर का सामान तो कोई भी मर्द सप्ताह भर का एक साथ मोटर साइकल में जाकर ले आता है। और कॉलेज तो बस महीने में एक बार जाने से भी हो जाता है”।
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“बी.ए. का कोर्स तो बहुत आसान है। रोज यहाँ घर और खेत में वही करते हैं जो पढ़ाया जाता है। अलग से पढ़ने की कोई दरकार नहीं है”।
“तब कोई कठिन विषय क्यों नहीं लिया”?
“अगर पढ़ने लग जाएँ तो खेत का, घर का काम कौन करेगा? दिन भर एकदम फुर्सत नहीं मिलती है घर और खेत के काम से।”
गाँव गाँव में टॉइलेट बन रहे हैं और हमारे अमिताभ जी ज़ोर ज़ोर से टॉइलेट में जाने की हिदायते दे रहे हैं। अत: हमने विषय बदलते हुए पूछ लिए, “घर में टॉइलेट है?”
“हाँ, है लेकिन प्रयोग करने की मनाही है। जब से बना है वैसा ही पड़ा है”।
???????। और टीवी ?
“हाँ आ आ आ आ....है। लेकिन हम लड़कियां नहीं देख सकतीं”।
“क्यों?”
“दादाजी का नियम है। लड़के देख सकते हैं”।
हमने फिर नया विषय उठाया। गांवों में छोटी उम्र में ही शादी हो जाती है। ये बड़ी बड़ी हो गई थीं फिर भी कुंवारी थी अत: विवाह के बारे में पूछ लिया।
“हमारे परिवार में हम ३२ से १.१/२ साल तक की १८ लड़कियां हैं। दादाजी हम सबों की शादी अगले साल एक साथ कर रहे हैं।“
“क्या? ३२ से १.१/२ साल तक, सब की एक साथ!”
“हाँ, और नहीं तो क्या! बार बार इतना खर्चा कहाँ से आयेगा”।

हम और न तो सह पा रहे थे और न ही समझ। आप कुछ समझे? हमारी जुबान को ताला लग गया। हम लड़खड़ाते कदमों से खेत की पतली मेढ़ पर चलते हुए वापस लौट पड़े। रास्ते भर कोई कुछ नहीं बोला। हमारे बीच एक सन्नाटा पसरा पड़ा था।

हमारी यात्रा का यह आखरी दिन था।


शुक्रवार, 16 मार्च 2018

रणथंभोर, भानगढ़, सरिस्का


आओणी, पधारो म्हार देस रे!

अपने देश में आने की गुजारिश करने वाले ये शब्द राजस्थान से आता निमंत्रण है। पहाड़ों  और समुद्री तट से दूर बालुकामय रेगिस्तानी प्रदेश है राजस्थान। रेगिस्तान होने के बावजूद सैलानियों की पसंदीदा जगह है। चमड़ी जलाने वाली गर्मी और खून जमा देने की ठंड के बावजूद घुम्मकड़ों को राजस्थान पसंद है। देशी ही नहीं विदेशी पर्यटकों का भी तांता लगा रहता है। बालू के टीले, ऊंट की सवारी, हवेलियों की नक्काशी, सारंगी की धुन पर कलबेलिया या घूमर नृत्य करती बालाएँ, गड़, दुर्ग, धार्मिक स्थलों से परिपूर्ण, चटख रंगों की पोशाक, उन्मुक्त व्यवहार, उत्तम भोजन लोगों को निरंतर आकर्षित करता है। हाइवे पर आते जाते दुर्ग की दीवारें, छतरियाँ, बुर्ज के खंडहर जगह-जगह ऐसे दीख पड़ते हैं जैसे कि बालू में उगने वाली वनस्पति हो। वैसे गौर किया जाए तो इसका ऐतिहासिक एवं भौगोलिक कारण है। भारत में सब आक्रमण पश्चिम से हुए। सब आक्रान्ता राजस्थान को ही रौंदते लूटते हुए भारत में आए। इनके अलावा भीतरी गणराज्यों, प्रदेशों, शासकों में भी निरंतर युद्ध चलता रहता था। कभी भी कहीं भी युद्ध छिड़ जाए, आक्रमण हो जाए। हर समय तैयार। शायद यही कारण रहा यहाँ के बेशुमार दुर्ग, छतरियाँ तथा बुर्ज के निर्माण और साथ ही धार्मिक स्थलों की बहुलता और उनमें अटूट श्रद्धा का। आज भी देश एवं विदेशों में बसने वाले अनेक राजस्थानी परिवार ऐसे मिल जाएंगे जो प्रत्येक वर्ष या माह एक या कई राजस्थान के धार्मिक स्थल में दर्शन करने आते ही हैं। यह उनका मासिक या वार्षिक नियम है।  

लेकिन इस सब के बावजूद हमारी यह यात्रा न धार्मिक थी और न ही ऐतिहासिक बल्कि जंगली यानि जंगलों की, प्रमुखत: बाघ देखने की थी। राजस्थान में वन्य जीवन भी प्रचुर मात्र में है। हमारा पड़ाव सवाईमाधोपुर के नजदीक रणथंभोर और अलवर के नजदीक सरिस्का राष्ट्रीय उद्द्यन था। कोलकाता से आधीरात की फ्लाइट से सुबह-सुबह 1 बजे जयपुर पँहुचे। वहीं से रात का सफर करते हुए गाड़ी से सुबह सुबह रणथंभोर में राजस्थान पर्यटन विभाग के होटल झूमर बावरी में डेरा डाला और निकल पड़े जंगल सफारी में। यह एकमात्र होटल जंगल में है, या बेहतर होगा कहना, था। प्रवेश के समय जरूर ऐसा लगता है कि जंगल में जा रहे हैं लेकिन इसके अलावा जंगल जैसा कुछ रहा नहीं। अब शहर फैल गया है और जंगल सिकुड़ चुका है। इसके चारों तरफ शहर ने अपने पैर पसार लिए हैं। दशकों पहले यहाँ के झरोखों, गलियारों से जानवर देखने मिलते थे, लेकिन अब सिर्फ मोर, बंदर और रंग बिरंगे पक्षी। शायद कभी कभी हरिण भी दीख पड़ें। बावरी की बनावट भी पुराने जमाने की सी ही है लेकिन महलों-रजवाड़ों सी भव्यता नहीं है। थोड़ा बहुत परिवर्तन किया गया है लेकिन फिर भी सकारात्मक छाप नहीं छोड़ता। अफ़सरों और कर्मचारियों का व्यवहार भी “सरकारी” है। रख रखाव भोजन में भी इसकी झलक थी। खर्च के अनुरूप न सुविधा है न सहूलियत। जंगल सफारी में नजर कुछ आया नहीं, जो आया वह बयान करने का नहीं क्योंकि हम वह देखने नहीं गए थे।  

रणथंभौर राष्ट्रीय उद्द्यान
जंगल में घूमने के लिए सुबह और शाम वन विभाग से सफारी की व्यवस्था है, वन विभाग के कैंटर या जिप्सी से। इनका आरक्षण ऑनलाइन www.rajasthanwildlife.in पर किया जा सकता है। वेब साइट पर भी सरकारी छाप है। आरक्षण रणथंभौर में भी किया जा सकता है। विशेष भीड़ न हो तो जगह मिलने की गुंजाइश है। जंगल में घूमने के अलग अलग 6 जोन हैं। वैसे तो पर्यटक की तकदीर है लेकिन कहते हैं कि प्रथम 3 जोन में बाघ दिखने की संभावना ज्यादा है। यह भी कहा जाता है कि इस जंगल में बाघ दिखने कि संभवना 90 प्रतिशत है। पर यह भी एक सत्य है कि मैं यहाँ दो बार हो आया लेकिन मुझे दोनों बार ही बाघ नहीं दिखा। उसके पंजों के निशान, उसका मल, जानवरों की आती आवाज से बाघ के आस पास होने की  संभावना पर दोनों बार बहुत ज़ोर दिया गया और दिलासा दी गई कि बस अभी दिखेगा। और इस प्रकार सांत्वना प्रदान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई।

रणथंभौर का किला
रणथंभौर के दो भाग हैं। १ला जंगल, ज्यादा सैलानी इसी लिए आते हैं, और २रा गणेशजी  का मंदिर। हिंदुओं में इस गणेश मंदिर का विशिष्ट स्थान है। किसी भी शुभ कार्य के प्रारम्भ में गणेशजी की ही पूजा की जाती है। उन्हे विघ्नहर्ता, मंगलकर्ता भी कहते हैं। हर शुभ कार्य का पहला निमंत्रण पत्र भी गणेशजी को ही देने की मन्यता है। भगवान गणेश का यह निमंत्रण पत्र गणेशजी के इसी मंदिर में भेजा जाता है। देश विदेश से ऐसे ढेर निमंत्रण पत्र रोज इस मंदिर में पहुँचते हैं। यह मंदिर इसी किले के अंतिम छोर पर है। किले के भग्नाविशेषों को लांघते हुवे जब यहाँ पहुँचते हैं तो पूरी थकान मिट जाती है। दुर्ग दिखने के लिए किले के दरवाजे पर गाइड मिलते हैं। उनके बिना इतिहास पूरा समझ नहीं आता लेकिन समय और उन से मिली जानकारी कि तुलना में उनका शुक्ल ४५० रुपए बहुत ज्यादा हैं। उचित है जाने के पहले गूगल कर लिया जाए, घुसते समय पुरातत्व विभाग के बोर्ड और शिलालेखों को पढ़ लिया जाए या फिर मांगी गई रकम से आधी रकम में बात तय की जाए। खैर आदतन हमने गाइड साथ लिया।   

सामान्यत: अन्य दुर्गों की तरह सुरक्षा के दृष्टिकोण से इस दुर्ग का निर्माण भी एक पहाड़ी पर किया गया। घुमावदार रस्तों पर एक के बाद एक पाँच द्वार मिलते हैं। इनके नाम भगवानों के नाम पर हैं जिनमें पहला द्वार “गणेश पोल” कहलाता है। खास बात यह है कि हर द्वार घुमावदार मोड़ पर है।इस कारण जब तक हम ठीक द्वार के सामने नहीं पहुँचते, इस बात का भ्रम बना रहता है कि आगे चट्टानों का रास्ता ही है। विशालकाय  द्वार काठ  के बने हैं जिन में नुकीले मोटे कील लगे हैं। इन कीलों के कारण दरवाजों पर धक्का मारना कठिन होता है। बंद दरवाजों को तोड़ने के दो ही साधन थे – मद पिला कर मस्त हुए हाथियों द्वारा धक्का मरवाना या फिर लकड़ी के बड़े बड़े लट्ठो द्वारा प्रहार करना। घुमावदार रास्ते होने के कारण बड़े लट्ठों का प्रयोग नहीं किया जा सकता था और हाथियों के लिए भी सीधे दौड़ते हुए धक्का मारना संभव नहीं होता था। अत: प्रहार स्वत: धीमा हो जाता था। दरवाजों को तोड़ना श्रमसाध्य होने के कारण या तो दुश्मन लौट जाता था या फिर समय ज्यादा लगने के कारण थक जाता था और जोश ढीला पड़ जाता था।

अंतिम द्वार के दो नाम हैं – शत्रुओं के लिए “भूल-भुलईय्या” और किले के वासियों के लिए  “स्वागत” द्वार। शत्रुओं के लिए इस अंतिम द्वार तक पहुंचना कठिन होता था और ऐसा मौका कम ही आया। प्राय: अपनी ही सेना विजय के बाद इस द्वार तक लौटती थी। अत: रानियाँ एवं किले की अन्य  औरतें इस द्वार पर विजयी सेना का आदर सत्कार करती थीं। इस द्वार पर ऊंचे झरोखेदार 
स्वागत पोल पर ऊंचा भवन
भवन बने हुए हैं जहां से पुष्प वर्षा की  जाती थी, विजयी सेना के दर्शन किए जाते थे, उनका स्वागत किया जाता था। लेकिन अगर आने वाली सेना शत्रु सेना हुई तो इन झरोखों से पुष्प के बजाय शस्त्रों, पत्थरों, मिरचा आदि की वर्षा करना भी संभव था। शत्रु सेना का इस द्वार तक पहुंचना खतरे की भी निशानी थी क्योंकि यह अंतिम द्वार था। यह भ्रमित द्वार ऐसा बनाया गया है कि बंद अवस्था में खुले होने का भ्रम पैदा करता है। खुला द्वार समझकर, विजयी भाव से शत्रु विजयोन्मत्त हो दौड़ता हुआ आगे बढ़ता और संभलने के पहले सामने अदृशय गहरी खाई में गिरता जाता है। इसके पहले कि सेना समझे और संभले जान की काफी हानि हो चुकी होती है। संभलने के बाद ही दृष्टि घूमने पर दूसरा विशाल द्वार नजर आता है। इसको पार करना एक प्रकार से किला फतह करना ही है। शत्रु सेना के लिए भी और अब पर्यटकों के लिए भी क्योंकि इसके बाद चढ़ाई समाप्त हो जाती है और रास्ता सुगम हो जाता है।

इस द्वार को पार करते ही मंदिर के भग्नाविशेष हैं। जैसे जैसे आगे बढ़ते हैं दुर्ग में  कब्रगाह, सरोवर, उद्यान आदि मिलने लगते हैं। इन्हे पार करने पर महल और रनिवास भी है जिस पर ताला लगा है। भग्नाविशेष, रख रखाव तथा जीर्णोद्धार मांगता है। पुरातत्व विभाग के लिए यह एक बहुत मंहगा सौदा है। पर्यटक भी इनसे छेड़ छाड़ किए बिना बाज नहीं आते। अत: सबसे अच्छा विकल्प होता है द्वार पर मोटा सा ताला लगा कर “प्रवेश निषेध” लगा देना। और यही किया है विभाग ने। अत: यह पूरा परिसर पहुँच के बाहर है।

आगे बढ़ने पर मैदान में एक के ऊपर एक पत्थरों को सजा कर छोटे बड़े  भवननुमा आकार दिखे। पता चला कि सौलनी यहाँ पत्थरों से “मकान” बनाते हैं और अपना खुद का मकान बनने कि दुआ 
जौहर स्थल, पत्थरों के मकान तथा झड़ियों में मन्नत
मांगते हैं। इसकी उल्टी दिशा में झाड़ियों में मोली, रिंग, बालों के बंद बंधे दिखे। अपनी मनोकामना पूरी करने की मिन्नतें। हम यह भ्रम  पालते हैं कि ऐसा नजारा केवल भारत या संसार के पिछड़े देशों में ही देखने को मिलता है। दृष्टि हो तो ऐसे नजारे विश्व के उन्नत देशों में भी देखने को मिलते हैं। हमने ऐसा नजारा ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर, इंग्लैंड, अमेरिका में भी देखा है।  यह इस बात को पुष्ट करता है कि अपने आप को शक्ति सम्पन्न और पढ़ा लिखा समझने वाला इंसान भी कहीं न कहीं स्वयं को मजबूर और अशक्त पाता है और तब उस अनजान शक्ति के प्रति अपनी  कृतज्ञता अर्पित करता है, अपने को समर्पित करता है, उसके सामने घुटने टेक देता है। आध्यात्मिक उपदेश पर जाने अनजाने विश्वास कर फल उसके भरोसे छोड़ प्रार्थना करने लगता है।

इसके बाद है “जौहर” स्थल। ठीक इसके पहले किले से बाहर निकलने के लिए गुप्त सुरंग भी बनी हुई थी। जौहर, राजस्थान में आम बात थी। अब हम इसे कुरीति मानते हैं, लेकिन कभी यह समय की विवशता थी। पुरुष अपनी जिंदगी हथेली पर लेकर चलता था। युद्ध कभी भी, कहीं भी छिड़ सकता था। जीवन- मृत्यु के बीच लुका-छिपी चलती रहती थी। पराजित होने पर सबसे बड़ा अत्याचार किले की औरतों को ही झेलना पड़ता था। अमानवीय अत्याचार और अपमान  से बचने के लिए जौहर का चलन था, जिसमें किले की औरतें एक साथ अपने को उस नारकीय पीड़ा और जिल्लत से बचाने के लिए धधकती आग में कूद पड़ती थीं।  

गणेश मंदिर
इस भावुक स्थान से आगे बढ़ने पर अचानक चट्टानों की खड़ी दीवार के बीच प्राकृतिक गहरी खाई नजर आती है। खंबे की भांति खड़ी चट्टानों से उतरना और चढ़ना असंभव है।  अत: इधर पीछे से हमला होने की गुंजाइश नहीं बनती, यह स्थान प्रकृति द्वारा स्वत: सुरक्षित है। इसी छोर पर विराजमान हैं देश भर में पूजित शिवसुत गणेशजी का मंदिर।  श्रद्धालुओं का तांता इनकी मान्यता की कहानी खुद बयान करती है। देखने में छोटा लेकिन मान्यता में बड़ा। यह जगह लंगूरों से भरा पड़ा है। हथेलियों में चने रख कर उन्हे चने खिलाने का एक अलग ही अनुभव हुआ। एक बार तो भय सा हुआ और इसी कारण सब चने उछाल दिये। लेकिन एक बार भयहीन हो कर अपनी मुट्ठी खोलें तब पता चलता है कि इंसान कौन है – हम या लंगूर। लंगूर जमा हो जाते हैं। कोई मार पीट नहीं, छीना झपटी नहीं, धीरे से अंगुलियों को पकड़ कर हथेली से चने उठा कर खाते हुए लंगूरों की 
गणेश मंदिर के समीप लंगूर
साफ सुथरी बेहद नरम उंगलियों और हथेली का स्पर्श मन प्रफुल्लित कर देता है। शर्त है, ऐसा करने की हिम्मत जुटाने की। यह बात साफ समझ आती है कि यह चार पैरों वाला बंदर ही इंसान था और अब दो पैरों वाला इंसान लंगूर है।

यही सोचता, इसी उधेड़ बुन में कब किले से नीचे उतार आए पता ही नहीं चला।
भानगढ़
हमारा अगला पड़ाव था सरिस्का, लेकिन रास्ते में पड़ता है भानगढ़। गूगल बाबा ने बताया कि भारत का सबसे हौंटेड (भुतहा) स्थल यही है। अत: इसे भी देखने की इच्छा हुई। पहले  दरवाजे से प्रवेश करने के बाद सड़क के दोनों किनारे पत्थरों की छोटी बड़ी अनेक दुकानों की शृंखला नजर आई। किसी समय यहाँ जौहरी बाजार लगता था। बड़े बड़े लाल पत्थरों से बना यह बाजार देखने लायक। 
जौहरी बाजार, भानगढ़ एवं मंदिर
अब पूरा खंडहर है लेकिन अपने समय में इसकी भव्यता का अंदाज़ लगाया जा सकता है। पूरे बाजार को पार करने के बाद है गढ़ का दूसरा  दरवाजा। अंदर प्रवेश करते ही दाहिनी तरफ ऊंचे चबूतरे पर उत्कृष्ट मंदिर का भग्नावशेष है।  और भी मंदिर हैं, बाज़ार हैं, छतरी है, भवन हैं और सब से अंत में दुर्ग भी। लेकिन कहीं कोई गाईड नहीं हैं शिलालेख जरूर हैं। आस पास के गाँव के पुरुष एवं महिलाएं गाईड का कार्य करती हैं और सब की अपनी अपनी कहानी हैं। रात को भूत, प्रेत के लिए भी मतांतर हैं। पर्यटक को जो अच्छा लगे, मन को भाए उसे ही सत्य मान लें। यह निश्चित है की यह दुर्ग उपेक्षित है। 

सरिस्का राष्ट्रीय उदद्यान
भानगढ़ से निकल कर हम सीधे पँहुचे अपने अंतिम पड़ाव पर सरिस्का, और जगह थी टाइगर हैवन, स्टरलिंग रिज़ॉर्ट। हाँ, जंगल घूमने के लिए हमने ऑनलाइन सफारी का आरक्षण करवा लिया था। लेकिन आरक्षण ऑफिस पर सब कुछ अव्यवस्थित सा लग रहा था। ठंड का मौसम और सुबह का समय होने के कारण कोई बताने वाला भी नहीं था साथ ही किसी प्रकार की रौशनी न होने के कारण सब कुछ धुंधला सा ही नजर आ रहा था। अंदाजन ही दुविधा से ही भटकते हुए ऑफिस और फिर खिड़की तक पहुंचे। धीरे-धीरे भीड़ होने लगी तो लगा कि सही जगह पर खड़े हैं।

यहाँ भी कई जोन हैं। बातें कई हैं, सच्चाई यही है कि सब जोन एक ही हैं। तकदीर आपका कुछ दिखा या नहीं। आरक्षण पर्ची में लिखा तो था कि एक दिन पहले बोर्डिंग पास लेना पड़ेगा लेकिन वैसा कुछ नहीं था। ऑनलाइन आरक्षण करवाने का फायदा मिला। कारण, विशेष खिड़की से हमें तुरंत पास मिल गया और उस दिन की जंगल में घुसने वाली पहली गाड़ी हमारी ही थी। दर्द इस बात का 
था कि इससे कोई लाभ नहीं हुआ।  जंगल में उल्लेखनीय कुछ नहीं दिखा, हमें भी दूसरों को भी। लेकिन हाँ, यात्रा के मध्य में जहां हम रुके वहाँ काफी पक्षी थे, निडर और निर्भय। हमारे सिरों पर आकर बैठ गए। ऐसा नजारा हमने इसके पहले कभी नहीं देखा था। हम देखते रह गए और वे आकर हमारे सिरों पर बैठते रहे।

रिज़ॉर्ट, स्टरलिंग के अन्य रिज़ॉर्ट की ही तरह अच्छा, साफ सुथरा, खुला खुला और बड़ा सा था। लेकिन यहाँ का रेस्तरां अन्य जगहों की तुलना में दब था। सुविधा में, सजावट में, व्यजनों के चयन 
स्टरलिंग रिज़ॉर्ट, टाइगर हैवन
में तथा उन्हे पकाने में भी।

पूरी यात्रा में सबसे महत्व की बात होती है आपकी टैक्सी का ड्राईवर। जानकार और अच्छा व्यक्ति हो तो आपकी यात्रा में चार चाँद लग जाते हैं और अगर उलट हो गया तो ग्रहण। हमारी यात्रा को चाँद नहीं लगा लेकिन ग्रहण भी नहीं।


सोमवार, 5 मार्च 2018

सूतांजली, मार्च २०१८



 सूतांजली                       ०१/०८                                                 ०१.०३.२०१८

नव वर्ष - नव संकल्प - नव संवत्सर
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा २०७५, तदनुसार १८ मार्च २०१८
आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:  - (ऋग्वेद १-८९-१)
 जहां कहीं से श्रेष्ठ विचार मिलें, ग्रहण करना चाहिए।
नव वर्ष का सूर्योदय हम बिस्तर पर न  गवायें। न ही सिर्फ घूमने-फिरने, नाचने- कूदने, पकवान-मिष्ठान्न  खाने में व्यर्थ करें।   नव वर्ष के प्रारम्भ में  हम पुरानी भूलों को अवश्य याद करें। उन भूलों पर विचार करें और तब आगे की मंजिल देखें। इस बात पर गौर करें कि सामने वाले ने कम दिया या हमरी अपेक्षाएँ ज्यादा थीं? हरीन्द्र दवे के अनुसार,’किसी का प्रेम कम नहीं होता, हमारी अपेक्षाएँ ज्यादा होती हैं। इस सत्य को स्वीकार करें कि इस जीवन में सब कुछ नहीं पाया जा सकता लेकिन अपनी समझ एवं सकर्म के मेल से बहुत कुछ पाया जा  सकता है। जो हासिल नहीं कर पाये हैं उसके मिलने की संभावना बनी हुई है। पाने का यत्न ही गतिशीलता है और गतिशीलता ही हमारी विजय है। गलतियाँ तो उसी से होंगी जो कार्य  करेगा। या तो उन गलतियों का सुधार कर लिया जाय या फिर छोड़ दिया जाए। भाषा में, कर्म में, कहीं भी चूक हो तो हम उसे समझें और उसका निदान भी निकालें। यह इंसान से ही संभव है। यक्ष प्रश्न यह है कि क्या हम अपनी गलतियों – भूलों को समझते हैं? क्या हमारे पास इतनी फुर्सत है कि हम अपने आप को निहार सकें? क्या हमारा संवाद हम से होता है? क्या हमारी व्यस्तता महज भागमभाग है, संबंध औपचारिकता मात्र, धर्म केवल अनुष्ठान हैं? सत्य अनेक आयामी भ्रम हो गए हैं, प्रगति अनिश्चित गंतव्य हो गया है, प्रेम मृग मरीचिका बन गई है, ज्ञान कुतर्क और संवाद हठधर्मिता बन गई है। द्रव्य की इस अंधी दौड़ में हमें यह पता नहीं है कि हमें कितना धन चाहिए,  किस लिए चाहिए? हमारी चाह क्या है  और उस चाह की पूर्ति के लिए कितना द्रव्य चाहिए? अत: निराशा आनी स्वाभाविक है।

पिछले वर्ष भी सबों ने योजनाएँ बनाई होंगी। किसी की पूरी हुई, किसी की नहीं। यह संभव है कि योजना को पूरा करने के लिए और कुछ समय चाहिए। विभिन्न कारणों से कार्य पूरा नहीं हुआ, लेकिन व्यर्थ भी तो नहीं गया। कुछ तो सीखा? यदि हम कुछ सीखेंगे तभी औरों को कुछ सीखा पाएंगे। हमारी आत्मा सबसे पहले हमें सावधान करती है। इसका संकेत करती है। हमारे हर गलत कार्य  पर वह अलार्म बजती है। लेकिन हम अनसुना कर देते हैं। स्वप्न को कभी व्यर्थ न जाने दें, उसे यथार्थ बनाएँ। कुछ सपने तो कभी साकार नहीं होते लेकिन जिन्हें पूरा करना संभव है उन्हे करें या फिर करने का प्रयास करें। यही हमारा पुरुषार्थ है। कला व जीवन दोनों को आत्मीयता से रचा जा सकता है। समझदार लोग कला को जीवन तथा जीवन को कला बना लेते हैं।  हमारे सम्मुख हमारा भविष्य है और पीछे भूतकाल। दोनों हमारी पकड़ के बाहर है। अत: वर्तमान को गहराई से साधें। हर क्षण को विशिष्ट माने। विशिष्टता हमारे कौशल और दृष्टि में है, यही पारस है, लोहे को सोना बना सकती है।  कठिनाइयाँ हमारे लिए अच्छी राह  बना सकती हैं। इनका उपयोग करना सीखें। अपने श्रम, कल्पना, बुद्धि, मनोभाव को तरल बनाएँ। उनको स्नेह भरा बनाएँ तभी दीया जलेगा। यह दीया हमारे साथ साथ दुनिया को भी प्रकाशित करेगा।
(परिचय दास से अनुप्रेरित)
दूसरों के त्योहारों को मनाना, संस्कृति को अपनाना उत्थान का द्योतक  है। लेकिन उसकी चकाचौंध में  अपनी भूल जाना पतन की निशानी है।

मैंने पढ़ा

इसी उम्मीद में है इंतजार होली का
होली शब्द के उच्चारण मात्र से मन में हिलोरें उठने लगती हैं और पूरा अस्तित्व सब कुछ भूलकर बचपन की  यादों में डूबने उतराने लगता है। सात-आठ बरस की रही होऊँगी – यानि १९४२-४३ के समय की याद आती है। तब पिताजी लखनऊ के जुबली कॉलेज में हिन्दी पढ़ाते थे। लखनऊ की गंगा-जमुनी तहजीब के बीच पल रहे थे हम। पड़ोस में एक मुस्लिम परिवार रहता था। खां साहब हमारे ताऊ जी थे और उनकी बेगम हमारी ताई। हर बरस उनके घर से सुबह-सुबह हमारे घर बड़ी स्वादिष्ट सिवईयाँ आतीं और शाम को साज-धज कर अपनी ईदी वसूलने जाते हम भाई-बहन। और होली के दिन सबसे पहली पिचकारी खां ताऊ को भिगोती। अस्मत और इफ़्फ़त आपा कितना भी भागें या छुपें हम उनके गालों पर गुलाल मले बिना उनका पीछा नहीं छोड़ते। शाम को हम खूब सारे होली के पकवान लेकर उनसे होली मिलने जाते। वे लोग हमारे लाए लड्डू, पपड़ी, खुरमे, शक्करपारे और खासतौर से मावे भरी गुझियाँ बहुत स्वाद ले-लेकर खाते और असीसते। ताई बेगम की मैं  सबसे लाड़ली थी। हर होली पर वे अपने हाथों से बनाई कपड़े की गुड़िया जरूर देती थीं। गुड्डा इफ़्फ़त  झटक लेती थी। फिर सावन में हम दोनों उनका ब्याह रचाते थे। ओह! रे मीठे प्यारे बचपन! होली आने के पाँच दिन पहले घर के दो शरारती बच्चे एक तो मैं और दूसरा मेरा छोटा भाई,  हम दोनों सुबह-सुबह निकल जाते थे और मोहल्ले भर का चक्कर लगा कर गाय का गोबर इकट्ठा करके घर लाते थे। हम तीनों बहनें गोबर की चपटी लोइयाँ बनाकर अंगुली से बीच में छेद बनाकर धूप में सूखने रख देतीं। हम तीनों बहनें अपने भाइयों का नाम ले-लेकर गीत गातीं और उनके ढाल और तलवार की शक्ल की लोइयाँ बनातीं । सूखने के बाद होली दहन वाले दिन इस छेदों के बीच से सुतली पिरोकर छोटी-बड़ी मालाएँ बनाई जाती थीं। रात को आँगन में अम्मा एक चौकोर अल्पना बनतीं और विधिवत पूजन के बाद सबसे पहले बड़ी वाली माला गोलाकार बिछाई जाती और क्रमानुसार उससे छोटी मालाएँ एक-एक करके एक-दूसरी के ऊपर टिकाई जातीं और इन मालाओं का एक पिरामिड जैसा बन जाता। फिर मंत्रोच्चारण के साथ पिताजी होलिका दहन करते। हमारा भरा-पूरा घर परिक्रमा लगाता। हम गन्ने और हरे चने के होराहे उन लपटों में भूनते।

और फिर वह क्षण आता, जब हम छोटे बच्चों का गहन इंतजार खत्म होता और मुंह में पानी भर आता। कई दिन से अम्मा गुझियाँ तथा अन्य  पकवान बना-बनाकर कलसों में भरकर रखती जाती थीं और कहती थीं, होली जलाने के बाद रोज खाने को मिलेंगे। अब थके मांदे सब सोने जाते, पर नींद कहाँ आती थी। सुबह से ही रंग-गुलाल से होली जो खेलनी थी। ..........

कैसी मनोहारी परम्पराएँ थीं। पहली रात में होली के साथ सारी दुशमनी जला दी जाती थीं। दूसरे दिन मन के बचे-खुचे मैल रंगों  से धो दिए जाते थे और शाम को खुले मन से प्रेम-प्यार के वातवरण में सब एक-दूसरे से गले मिलते थे। धीरे-धीरे हमारे देखते-देखते पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में लोग यह सब भूलते गए और अब तो “हैप्पी होली” कह दिया और हो ली होली
साभार – पुष्पा भारती, आहा!जिंदगी मार्च २०१७
जरा ठहरें, और विचार करें। सांप्रदायिक सौहार्द की इस ऊंचाई से हम इस  खड्डे में क्यों और कैसे गिर गए? औरों के दोष ढूँढने के बदले पहले हम खुद में ढूँढे।

किसी के हम काम न आए, न कोई अपने काम आया,
ताज्जुब है कि तो भी, जुमर-ए-इनसा में नाम आया।
१ मनुष्य की श्रेणी में