शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

दिखावे का त्यौहार या आनंद का उत्सव

आज सुबह बैठे-बैठे अचानक बचपन की यादों में खो गया। बचपन को याद करना अपने-आप में एक सुखद अनुभूति है, तन बदन में एक ठंडक पहुँचती है। बंद आँखों के सामने एक चलचित्र की भांति घटनाएँ आती-जाती रहीं, बरबस चेहरे पे मुस्कुराहट झलक पड़ी और मन-मिजाज तरो-ताजा हो गया।  बीते हुए दिन तो वापस नहीं आते लेकिन उन दिनों की मधुर यादों में खो जाने से कौन रोकता है! यादें तो बहुत हैं, लेकिन अभी याद आ रही है अपने वार्षिक त्यौहारों की, जिसे उत्सव के रूप में मनाया करते थे। बहाना बनाने वालों का तो भगवान भी कुछ नहीं कर सकता। उन्हें हर काम में कोई-न-कोई बहाना निकाल लेना होता है। तब, आज की तरह नहीं था कि सुविधा के अनुसार जो कर सके वो किया बाकी में कुरुतियां-दोष निकालते रहे। त्यौहार नहीं मनाना है, केवल खानापूर्ती करनी है। यह नहीं मानते थे कि कर्मकांड ढकोसला है, उत्सव असभ्यता है, पर्यावरण को क्षति पहुँचती है और स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। और कुछ नहीं बस बुराइयां ढूँढना और न मनाने के तर्क देना।  किसको फुर्सत है मर्म को समझने की? नारियल का खोल देख कर फेंक दिया, उसके अंदर क्या है, क्या मालूम? अनबूझ अच्छाइयों पर बुराइयाँ हावी होती चली गई और उत्सव मनाने की समृद्ध परम्परा छोड़ते चले गए और केवल छिलके और ढकोसलों को पकड़े रखा। हमें लुभाने लगे पाश्चात्य सभ्यताएं और त्यौहार। बाजार ने भी उनका ही साथ दिया, क्योंकि हमारे त्यौहार कहते हैं घर की बनी सामग्री का ही प्रयोग करें, परिवार के साथ घर पर मनाएँ, और उतने ही  पाँव पसारिये जितनी चादर होय। परिवार के साथ मनाने से अनेक सीमाएँ भी आ जाती है। भला बाजार को यह कैसे भला लगे? उसे तो चाहिए स्वच्छंदता, बाजार पर आश्रय, ज्यादा से ज्यादा खर्च। हाथ में नोट नहीं है तो प्लास्टिक से भुगतान कर कल की चीज आज लायेँ।  बाजार तो चाहता ही है कि आप हैसियत से ज्यादा खरीददारी कर उसके चंगुल में बनें रहें।  इस धमाचौकड़ी में उत्सव का अपनापन नदारद हो गया, रह गया केवल दिखावा और प्रतिद्वंदिता। आज हम तरसते हैं अपनेपन को, लेकिन ढूंढ नहीं पाते। होली-दिवाली-राखी त्यौहार नहीं हमारे पारिवारिक-सामाजिक उत्सव हुआ करते थे। इनमें हम केवल अपने घर-परिवार ही नहीं बल्कि मुहल्ले, पास-पड़ोसियों और दूर के रिश्तेदारों के साथ एक जुट होकर आनंद लेते थे और खुशियाँ बांटते थे।

होली और छारंडी – पहला दिन पूजा का और दूसरा रंग के उत्सव का। होली की रात विशेष रसोई बनती, पूरा घर साथ-साथ बैठ कर भोजन करता और फिर पूजा। इसके पहले, गाय का गोबर इकठ्ठा किया जाता, तरह तरह के बड़कुल्ले बनते। ग्वाला खुद गोबर पहुंचा जाता या किसी को भेज कर गौशाला से गोबर मंगा लेते थे। बाद के समयों में गोबर खरीदने की नौबत आ गई, मिलना बंद हो गया।  और बाद में तो बनाने का रिवाज ही उठ गया। बने बनाए खरीद कर बाजार से लाने लगे। आज के पढ़े-लिखे लोगों को इसमें अ-सभ्यता और गंवारपन नजर आता होगा। लेकिन इसके पीछे गाय को दिया जाने वाला सम्मान, उपले बननेवाली महिलाओं का सम्मान और साथ-साथ मिलकर काम करने की  प्रवृत्ति के अलावा एक दूसरे के उत्सवों में सहयोग की खुशबू आती थी। जहां गन्ने की खेती होती थी, किसान बिना मूल्य के गन्ना पकड़ा जाता था। इस वर्ष दुबली-पतली छोटी सी एक ईख एक सौ रुपए तक में बिकती हुई मैंने देखी है। सहयोग तो बहुत दूर की बात रही यह तो धंधा भी नहीं लूट है जिसे हम पूरी बेशर्मी अमानवीय ढंग से करते हैं, बाजार उसका समर्थन भी करता है। इसमें से गायब होता अपनापन, भाईचारा और सौहार्द नहीं दिखता। किसी का त्यौहार किसी की डकैती। इसके लिये कौन जिम्मेदार है? होली या हम? खैर, भोजन के बाद मुहूर्त के समय घर पर पूजा करने के बाद सड़क पर मंदिर किनारे होलिका-दहन में पूरा घर ही नहीं बल्कि पास पड़ोस से सब एक साथ जयकारा लगाते हुए जाते, वहाँ सबों से मिलते, पूजा कर वापस आ जाते। फिर दूसरे दिन रंग। रंगों का इंतजाम तो पहले ही कर लिया जाता था। रंगो के अलावा, गुलाल और घर में बने टेसुओं के फूलों का सुगंधित रंग भी प्रयोग होता था। मकान नहीं बल्कि पूरा मुहल्ला एक साथ रंग खेलता था। हाँ, उस समय भी कुछ लोग, घर के बड़े-बूढ़े रंग से बचते थे, लेकिन बच्चे-नवजवान तो बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। रंग खेलने का काम केवल अपने घर और मुहल्ले तक ही सीमित नहीं रहता था। मुझे अच्छी तरह से याद है हम अपने पिता के साथ शहर के दूर दराज जगहों पर रहने वाले अपने रिश्तेदारों के घरों पर भी जाया करते थे, और हर घर से लोग जुड़ते चले जाते थे।  अपने परिवार के अन्य सदस्यों के घर, ससुरालों में, मित्रों के घर जाने का दस्तूर भी बहुत ही आम था। केवल रंग खेलना नहीं, हंसी-मजाक, खाना-पीना-गाना सब होता था। पूरे परिवर, मुहल्ले और परिचितों के बीच एक अटूट रिश्ता बनता, नए सदस्यों से परिचय होता। अब न तो हमें पड़ोसियों का पता है न ही रिश्तेदारों को पहचानते हैं। मामा-मामी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, भूवा-फूफा, मौसा-मौसी, ननद-ननदोई सब गायब होते जा रहे हैं। बचे हैं  केवल अंकल और आंटी। हाँ, कई खराबियाँ भी थीं लेकिन उन खराबियों को छोड़ने की हमने क्या कीमत चुकाई, इसका आकलन कौन करेगा? कंकड़ नहीं निकाल सके तो पूरा अन्न ही फेंक दिये! हमारे अन्न में से कंकड़ कौन निकलेगा – सरकार, अंग्रेज़, विदेशी, ऑक्सफोर्ड या हारवर्ड?  किसका मुंह जोह रहे हैं हम?

वैसे ही राखी में केवल अपनी ही बहन नहीं बल्कि परिवार की हर बहन के घर जाना और कलाई से लेकर कंधे तक राखी बन्धवाना याद आता है। राखी बन्धवाने सुबह निकलते थे तो लौटते लौटते शाम हो जाती थी। बहन के यहाँ पहुंते थे तो पता चलता कि घर से फोन आया था। बताया जाता, कुछ और घरों में भी जाना है क्योंकि उनके यहाँ से भाई आया था बहन से राखी बन्धवा कर गया है। अब हमें भी उसकी बहन के जा कर राखी बंधवानी है। कई बार तो यह राखी बन्धवाने का काम कई दिनों तक चलता था। आज की तरह न तो दिखावा था न ही महंगे उपहारों से एक दूसरे की पॉकेट तौली जाती थी। न जाने कब कहाँ से इन उमंगों को बाजार की नजर लग गई। धन के अन्धा-धुन्ध प्रदर्शन के अलावा पिछले कई वर्षों में तो इसका राजनीतिक संस्करण भी दिखने लगा है। हमारे सामाजिक रीति-रिवाजों, उत्सवों में भी राजनीति?

और दिवाली! दिवाली के पहले से ही, उसके इंतजार में पैरों में घुंघरू बन्ध जाते थे और मन बल्लियों उछलने लगता था। दिवाली की बधाई और मंगल-कामना के पत्रों के लिए पूरी तालिका तैयार करना, बधाई का मजमून तैयार करना, छपवाना, पते लिखना अपने आप में एक उत्सव होता था। इस बहाने देश के किन किन शहरों में अपने कौन कौन से रिश्तेदार रहते हैं इसकी जानकारी तो होती ही थी साथ ही साथ पता – ठिकाना भी दुरुस्त कर लिया जाता था। दिवाली की रात खुद अपने हाथों से और अपनी निगरानी में दीपकों से घर को जगमगाना, सजाना, साथ साथ भोजन करना और फिर पूजा करना। रौशनीदार पटाखे और धमाकेदार बम का बोल बाला रहता था। हाँ इसके नुकसान हैं। लेकिन हमें क्या केवल मिटाना ही आता है? कुछ मिटाया तो क्या कुछ बनाया भी? अगर बना नहीं सकते तो मिटा कैसे सकते हैं? दूसरे दिन अड़ोस-पड़ोस, पास-दूर के रिश्तेदारों के घर जाना और उनसे आशीर्वाद लेने में पूरा दिन निकल जाता। यह काम भी कई बार कई दिनों तक चलता। 

अपने इन उत्सवों के माध्यम से हम अपने सम्बन्धों का बार-बार नवीनीकरण करते, नए पड़ोसियों और रिश्तेदरों से परिचय होता और हमारे सम्बन्ध प्रगाड़ होते।  किसने इन सबको हमसे छीन लिया? कब कहाँ हम इन सब को खो बैठे और इस संसार में अपने आप को अकेला करते चले गये।  स्वार्थ और मजबूरी की बहुत बड़ी दुनिया हमने इर्द गिर्द जमा कर ली और प्रेम-आनंद की दुनिया बिसारते चले गये।

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शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

सोच-विचार

तार्किक, विद्वान, मनीषी अपनी बातों में आम इंसान को ऐसा उलझाते हैं कि बेचारे का दिमाग सुलझने के बजाय और उलझ जाता है। पानी से आधे भरे गिलास के किस्से तो आपने बहुत सुने होंगे। बात आधा खाली और आधा भरा में नकारात्मक और सकारात्मक सोच से काफी आगे तक बढ़ चुकी है। कुछ उदाहरण – प्रोजेक्ट मैनेजर के अनुसार गिलास आवश्यकता से दोगुना बड़ा है, यथार्थवादी के अनुसार गिलास में जितना पानी होना चाहिए उससे आधा है, अवसाद ग्रस्त व्यक्ति हैरान है कि आधे गिलास का पानी किसने पिया? लेकिन इंजीनियर का विचार है कि इतने पानी के लिए गिलास का डिज़ाइन सही नहीं है, चिंताग्रस्त व्यक्ति इस बात की चिंता करेगा कि बचा हुआ आधा पानी भी कल तक भाप बन कर उड़ जाएगा, जादूगर बताएगा कि असल में पानी गिलास के निचले नहीं ऊपरी भाग में है तो भौतिकशास्त्र का ज्ञाता बताएगा कि गिलास आधा खाली नहीं बल्कि आधे में पानी और आधे में हवा भरी है। ये अलग अलग व्याख्याएँ हास्यास्पद भी लग सकती हैं लेकिन चक्कर में डालने के लिए काफी हैं। इसके विपरीत एक प्यासा बिना सोच विचार किए गिलास उठा कर पानी पी जाएगा।

मुंबई निवासी आबिद सुरती के बारे में तो आपने सुना ही होगा। नहीं सुना? शायद किसी तार्किक के तर्क सुनने में व्यस्त रहे होंगे। आबिद, मुंबई निवासी हैं। फुटपाथ पर अपनी जिंदगी गुजारने वाले आबिद ने बूंद-बूंद पानी 

आबिद सुरती
के लिए लड़ाई होती देखी। उनसे रहा नहीं गया।  उन्होंने निश्चय किया कुछ करने का। बिना सोच विचार किए जुट गए जल संरक्षण के कार्य में। २००७ में उन्होंने ठाना और ठाणे जिले के मीरा रोड के १६६६ घरों में घुस गए, ४१४ जल रिसाव को ठीक किया। इसके ऐवज में कुछ नहीं लिया। बल्कि अपने पैसे और समय खर्च करके लाखों लीटर पानी को बहने से बचाया। हर रविवार को वे मुंबई के किसी न किसी इलाके में घरों में घुस कर पानी के रिसाव को रोकने का कार्य अनवरत ढंग से कर रहे हैं।  जब वे किसी अनजान के घर में घुस कर उसके नल के पानी के रिसाव को रोकते हैं तो दरअसल वे लोगों को एक नजरिया देते हैं, जिन्हें यूं तो लोग जानते हैं, कहते हैं, सुनते हैं, लेकिन आबिद का उनके घर जाना उन लोगों पर एक अलग और गहरी छाप छोड़ता है। जाहिर है, सबों का नजरिया नहीं बदलेगा। लेकिन आबिद इस बात पर कोई विचार नहीं करते कि किसी का और कितनों का नजरिया बदलता है। छोटी हो या बड़ी, मिसाल बनाना जरूरी है।

वारेनबफे। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आपने इनका नाम न सुना हो। हाँ वही, दुनिया के सबसे अमीरों में जिनका नाम लिया जाता है। लोग उन्हें शेयर मार्केट का जादूगर भी कहते हैं। एक समय, बचपन में अपने 

वारेन बुफ्फे
दादा की दुकान से च्युइंगम लेकर बेचा करते थे। यहाँ से अपनी जिंदगी का सफर प्रारम्भ कर वे वहाँ तक पहुँचे जहाँ तक पहुँचने का ख्वाब हर बच्चा-बूढ़ा-जवान देखता है। उनके जीवन की एक सच्चाई यह भी है कि बिना किसी सोच-विचार के उन्होंने अपनी संपत्ति का ८५ प्रतिशत हिस्सा दान कर दिया। यह है मिसाल कुछ नहीं से बहुत कुछ बनने का, साथ ही सारी पूंजी को दान में देने का भी।

एक बार किसी विश्वविद्यालय में मानवीय मूल्यों पर अंतरराष्ट्रीय विचार विमर्श चल रहा था। देश-विदेश से अनेक मनीषी वहाँ जमा थे। भूटान प्रमुखता से इसमें रुचि एवं हिस्सा ले रहा था। वहीं भूटान के रॉयल यूनिवर्सिटी के उप-कुलपति भी उपस्थित थे। उनसे एक साधारण सा प्रश्न पूछा गया, आखिर कैसे भूटान के लोग इतने खुश मिजाज माने जाते हैं?’ उन्होंने बिना सोच विचार किए, मुस्कुराते हुए जवाब दिया, यह बहुत सरल है। हम अपना धन हथियार खरीदने में खर्च नहीं करते। बल्कि हम धन का प्रयोग बच्चों को शिक्षा देने में खर्च करते हैं। शिक्षा का अर्थ डॉक्टर, इंजीनियर, अर्थवेत्ता, धन कमाने की फ़ैक्टरी आदि बनाने से नहीं है। बल्कि विद्यालय से लेकर कॉलेज तक हम छात्रों को मानवीय मूल्यों की शिक्षा देते हैं। और उन्हें यह भी बताते हैं कि मृत्यु ही असल सत्य है। और उससे भी बड़ा सत्य यह है कि जीवन के समाप्त होने के पहले ही हम उसे भरपूर जी लें। ये भी कि न हथियारों से, न धन से कुछ हासिल होता है।  

भूटान में जीडीपी (ग्रौस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट) नहीं जीएनएच (ग्रौस नेशनल हैप्पीनेस्स) को माना जाता है। भूटान में जीने का यह नजरिया आधी शताब्दी से ज्यादा पुराना है। १९७२ में भूटान के चौथे राजा जिग्मे 

जिग्मे वांगचुक
वांगचुक ने देश को यह सौगात दी थी। विश्व में बढ़ते धन के वर्चस्व, हथियार की अंधा-धुंद दौड़ और मानवीय मूल्यों के ह्वास के मद्दे नजर उन्होंने यह नई सोच दी थी। विश्वभर में, पूर्व और पश्चिम हर जगह इसकी चर्चा हुई, शोध हुवे, सोच विचार हुआ। लेकिन इस सोच विचार में ४० वर्ष गुजर गए। आखिरकार जुलाई २०११ में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इसे स्वीकार किया और अपने वैश्विक विकास एजेंडा में इसे शामिल किया। लेकिन आज भी प्राय: पूरा विश्व इस पर सोच विचार ही कर रहा है, हथियार और धन को ही मानक बना उसके पीछे दौड़ रहा है। फलस्वरूप धन है, दौलत है, हथियार है लेकिन सुख, चैन और आनंद नहीं है।

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शुक्रवार, 2 अप्रैल 2021

सूतांजली, अप्रैल २०२१

 सूतांजली के अप्रैल अंक का संपर्क सूत्र नीचे है:-

इस अंक में दो विषय, एक लघु कहानी एवं धारावाहिक कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी का चौथा अंश है:

१। नववर्ष का चमत्कार

..................... का इंतजार किए, बिना किसी और का मुंह जोहे, चमत्कारी व्यक्ति बनिए। देखिये आपको भी जीवन में चमत्कार दिखने लगेंगे।...................

कौनसा नववर्ष और कैसा चमत्कार? कैसे दिखेंगे हमारे जीवन में चमत्कार? पढ़िये नीचे दिये गए लिंक पर

२। अपने अंदर एंटिवाइरस हमें लगाना है

.................... हमारे अपने अनुभवों  से हमारे विचार प्रभावित होते हैं। विशेष कर सुबह उठते ही और रात को ठीक सोने के पहले हमने जो पढ़ा-सुना उसका सबसे ज्यादा असर होता है। किसी समय सुबह उठ कर अखबार पढ़ना और सोने के पहले समाचार देखना सही होता रहा होगा। अब नहीं। इससे बचें। इन दो के अलावा वह तीसरी बात जिसका सबसे ज्यादा महत्व है वह है...........

क्या है वह तीसरी बात? पढ़िये नीचे दिये गए लिंक पर

३। पहचान

एक युवक ईश्वर से मिलना चाहता था। उसने प्रार्थना की, ईश्वर मुझसे बात करो। तभी एक........

कैसी पहचान? किससे पहचान? कैसे पहचानें? पढ़िये नीचे दिये गए लिंक पर

४। कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी

पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल बंद में थे। जेल के इस जीवन का, श्री अरविंद ने कारावास की कहानी के नाम से, रोचक वर्णन किया है। अग्निशिखा में इसके रोचक अंश प्रकाशित हुए थे। इसे हम जनवरी माह से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इस कड़ी में यहाँ इसका चौथा अंश है।

 संपर्क सूत्र (लिंक): -> https://sootanjali.blogspot.com/2021/04/blog-post.html

 ब्लॉग में इस अंक का औडियो भी उपलब्ध है।

शुक्रवार, 26 मार्च 2021

शीत काल में केदार-बद्री की तीर्थ यात्रा

आदिशंकराचार्य ने देश के चार कोनों में चार धाम स्थापित किए थे। उत्तर में बद्रीनाथ, दक्षिण में रामेश्वरम, 

पूरब में जगन्नाथ और पश्चिम में सोमनाथ। लेकिन सामान्यत: यानि जेनेरली स्पीकिंग चार धाम से हम प्राय: पहाड़ों पर बसे चार धाम की बात करते हैं। ये हैं - यमुना के उद्गम स्थल यानि ऑरिजिन पॉइंट पर यमुनोत्री (3353 - ३३५३मी.), गंगा के उद्गम स्थल पर गंगोत्री (3100 - ३१०० मी.), महादेव का धाम केदारनाथ (3553 - ३५५३ मी.) और विष्णु का स्थान बद्रीनाथ (3300 - ३३०० मी.)। हिमालय की गोद में काफी ऊंचाई पर होने के कारण छ: महीने ये चारों स्थान भारी हिमपात यानि स्नो फॉल के कारण बर्फ से ढकें रहते हैं और इनका मार्ग यातायात के लायक नहीं रहता है। अत: इनकी 

यात्रा बंद रहती है। गरमी के मौसम में ही इन स्थानों पर जाया जाता है। समयानुसार इन चारों मंदिरों के दर्शन बंद और प्रारम्भ होने की तिथियों की घोषणा होती है।  सामान्यत: दिवाली के आसपास यात्रा बंद हो जाती है और आखा तीज के नजदीक  यात्रा प्रारम्भ होती है। इन छ: महीनों के लिए देव के प्रारूप यानि इमेज को पहाड़ों पर कुछ नीचे लाया जाता है और वहीं उनकी विधिवत पूजा-अर्चना होती है। इन स्थानों को ठाकुर की शीत कालीन गद्दी यानि ऑफिस कहते हैं। यमुनोत्री की खरसाली में, गंगोत्री की मुखबा में, केदारनाथ की उखीमठ में और बद्रीनाथ की जोशिमठ में यह शीतकालीन गद्दी लगती है।

कोरोना काल के पश्चात महीने भर के ऋषिकेश प्रवास के दौरान ठाकुर के शीतकालीन गद्दी के दर्शन करने की तीव्र इच्छा हुई। चार धाम की यात्रा तो किये हुए हैं लेकिन शीतकाल में कभी यात्रा नहीं हुई।  अत: यात्रा पर जाने का मन बना लिया, और २८ (28) फरवरी २०२१ (2021) को हम केदार-बद्री के शीत कालीन गद्दी के दर्शन करने निकल पड़े।  इस यात्रा के लिए हमने स्विफ्ट डिजायर भाड़े पर ली जिसका कुल खर्च १५५०० (15500) पड़ा। पहाड़ों पर बने नवीन मार्ग यानि न्यूली बिल्ट रोड को देख कर बड़ा आनंद मिला। चौड़ी-सपाट सड़क। सड़कों को सर्द-गरम-वर्षा यानि ऑल वेदर के अनुकूल बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है। बड़ी मशीनें, नए पुल, सुरंगे यानि टनेल आदि से सुसज्जित किया जा रहा है। रुद्रप्रयाग तक का कार्य प्राय: समाप्ती पर है। कार्य की प्रगति से लगता है कि शायद 2 वर्षों में कार्य पूरा कर लिया जाए और फिर इन तीर्थ स्थलों की यात्रा सुगम, कम जोखिम भरी और तेज हो जाएगी।  

वानप्रस्थ आश्रम, ऋषिकेश से हम प्रात: ८ (8) बजे रवाना हुए। देवप्रयाग में, मन्दाकिनी और भागीरथी नदी के संगम पर स्नान किया। घाट तक जाने के लिए अनेक सीढ़ियाँ लांघनी पड़ी लेकिन हमने हिम्मत नहीं 

देवप्रयाग

हारी और घाट तक पहुँच ही गए। यहाँ स्वच्छ निर्मल मन्दाकिनी उछलती-दौड़ती वेग से आगे बढ़ती है जब कि भागीरथी मटमैली, शांत और चुपचाप आकर मन्दाकिनी में मिल जाती है। इसी प्रयाग के बाद नदी का नामकरण गंगा हुआ है। स्नान के पश्चात हम श्री रघुनाथ मंदिर में रघुनाथ जी के दर्शन करने गए। बड़ी अजीब बात हुई। ठाकुर के चेहरे पर ध्यान कर उनकी आँखें देख रहा था तो अचानक लगा कि मैं तो बाँके बिहारी के दर्शन कर रहा हूँ। आँखों को झटका दे कर फिर से पूर्ण शृंगार पर नजर जमाई तो श्री 

देवप्रयाग में रघुनाथ मंदिर

राम दिखे। लेकिन फिर जैसे ही आँखों से आँख मिली बाँके बिहारी प्रगट हो उठे। इसके पहले कि इस पहेली को समझता बगल में खड़े आचार्य जी के पुत्र ने जानकारी दी। बताया कि रघुनाथजी के इस विग्रह की यह खास बात है। इनका  स्वरूप तो  श्रीकृष्ण का है लेकिन शृंगार श्री राम का। अत: स्वरूप में श्री कृष्ण और शृंगार में श्री राम के दर्शन होते हैं। मंदिर के पूरे परिसर में भ्रमण कर वहाँ स्थापित नए पुराने 

रघुनाथ मंदिर में आधुनिक शिलालेख

शिलालेख, परिक्रमा गद्दी आदि के दर्शन कर हम देवप्रयाग से आगे बढ़े। रात का पड़ाव देवप्रयाग से लगभग ७५ (75) कि.मी.,  रुद्रप्रयाग के नजदीक, पहाड़ों की गोद में,  तिलवाड़ा में गड़वाल मण्डल विकास निगम (GMVN) के  मन्दाकिनी रिज़ॉर्ट में था। तिलवाड़ा रुद्रप्रयाग के नजदीक केदारनाथ मार्ग पर है। 

जीएमवीएन मन्दाकिनी रिज़ॉर्ट, तिलवारा

स्थान अत्यंत रमणीक, स्वच्छ, प्रकृति की गोद में, मन्दाकिनी के तट पर है। मंदाकिनी तक जाने के लिए रिज़ॉर्ट से ही सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। शीतल पवित्र जल में स्नान किया जा सकता है। यहाँ एक रात ही रहने का कार्यक्रम था लेकिन यहाँ का वातवरण हमें इतना पसंद आया कि हम यहाँ दो रात ठहर गए।

तिलवाड़ा से हम तीसरे दिन प्रात: ८ (8) बजे निकले। ३३ (33) किमी का सफर  लगभग डेढ़ घंटे में तय कर गुप्तकाशी पहुंचे। मार्ग में चौखम्बा पहाड़ शृंखला की सफ़ेद बर्फीली चोटियाँ (स्नो पीक्स) दिखीं। कहा जाता है कि महाभारत युद्ध के पश्चात पांडव महादेव के दर्शन करना चाहते थे। लेकिन पांडव जहां भी उन्हें

गुप्तकाशी
 खोजते पहुँचते महादेव वहाँ से लुप्त हो जाते। युद्ध में भीषण नर-संहार एवं शिव भक्तों की भी हत्या के कारण वे पांडवों से नाराज थे। महादेव को खोजते हुए पांडव गुप्तकाशी भी पहुंचे लेकिन वे यहाँ से भी लुप्त हो गए थे। अंत में पांडवों ने नारदाजी की सहायता से केदारनाथ में भैंसे के स्वरूप में महादेव को पकड़ा और उनके दर्शन किए। गुप्तकाशी में अगल बगल दो मंदिर हैं, जिनमें शिवलिंग और अर्धनारीश्वर के दर्शन होते हैं। मंदिर के सामने कुंड में पहाड़ों से निरंतर जल आता रहता है। यहाँ शिवलिंग की दूध से अभिषेक करने की इच्छा हुई। दुकानें खुली नहीं थी और पुजारी ने भी लाचारी बताई। तभी एक स्थानीय दर्शनार्थी से मुलाक़ात की और उसके बताए रास्ते से जाकर प्रसाद और दूध लाकर मनोकामना पूरी की। यहाँ से १४ (14) किमी की यात्रा 

उखीमठ
४५ (45) मिनट में पूरी कर उखीमठ पहुंचे। यहाँ के श्री ओंकारेश्वर मंदिर में केदारनाथजी की शीतकालीन गद्दी लगती है। यहाँ भी पूजा अर्चना, प्रसाद तथा दूध से अभिषेक किए। यहाँ पंच  केदार के लिंग रूप में दर्शन भी हैं। यहाँ से हम आगे चोपता की तरफ बढ़े। चोपता का रास्ता थोड़ा दुर्गम है। रास्ता अच्छा है लेकिन सँकड़ा है, चालू रास्ता न होने के कारण चमोली तक वीरान सा है लेकिन किसी प्रकार की बदमाशी नहीं है।  बसें प्राय: लंबा रास्ता लेकर रुद्रप्रयाग हो कर चमोली तक जाती हैं। चोपता से बर्फीली चोटियों को देखने का अद्भुत आनंद है। यहीं से तुंगनाथ आदि के लिए पैदल मार्ग जाता है। सैलानियों के लिए यह जगह अतिउत्तम है। यहाँ ठहरने की कोई उत्तम व्यवस्था नहीं है, लोग प्राय: टेंट में ठहरते हैं। हम यहाँ से बर्फीली चोटियों का नजारा देख अपने अगले पड़ाव जोशीमठ की तरफ बढ़ गए। जोशीमठ में श्री नरसिंघ मंदिर में श्री बद्रीनाथ की  शीतकालीन गद्दी लगती है। हम सीधे मंदिर ही पहुंचे और मंदिर के अतिथि भवन में ठहरे। भवन, रात गुजारने लायक है। लंबे सफर की थकावट तथा मंदिर परिसर में ही होने के कारण वहीं रुकने का निश्चय किया। मंदिर का कुछ वर्ष पूर्व ही जीर्णोद्धार 

श्री नरसिंघ मंदिर, सूर्योदय से पहले

किया गया है। अत: पूरा मंदिर परिसर स्वच्छ एवं आधुनिक प्रारूप लिए हुवे है। संध्या कालीन आरती के पश्चात मंदिर के पुजारी से चर्चा हुई। उन्होंने बताया कि वहाँ स्थापित श्री नरसिंघ भगवान का विग्रह आदि शंकरचार्य द्वारा स्थापित है। विग्रह की दाहिनी भुजा स्वत: धीरे धीरे क्षीण यानि पतली होती जा रही है। जैसे जैसे यह प्रतिमा क्षीण हो रही है उधर भविष्यबद्री का विग्रह स्वत: स्वरूप ले रहा है। समयानुसर नर-नारायण पर्वत मिल जाएंगे, श्री नरसिंघ की प्रतिमा खंडित हो जाएगी, भविष्यबद्री का स्वरूप पूर्ण हो जाएगा और वही श्री बद्रीनाथ के रूप में स्थापित होगा।

प्रात: अभिषेक का दर्शन कर हम अतिथि भवन से निकल कर जोशिमठ में ही गढ़वाल मण्डल विकास निगम (GMVN) के अतिथि गृह में चौथी रात बिताने पहुँच गए। यहाँ से बर्फीली चोटी कमरों से ही साफ 

लाल बर्फीली चोटी, जोशीमठ


दिखती है। सुबह सुबह सूर्योदय के समय सूर्य की लाल किरणें सफेद चोटियों पर पड़ती हैं तो ऐसे लगता है मानो चोटी पर आग लगी हो, लेकिन कुछ ही देर बाद ये स्वर्णिम हो जाती हैं।  उड़नखटोला (रोप वे) से औली जाने का कार्यक्रम था। इस वर्ष कोरोना और फिर बर्फ न होने के कारण यात्री बहुत कम थे। अत: रोप वे के लिए पहले से आरक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ी। अन्यथा नेट पर अग्रिम आरक्षण करना उचित है। औली से सैलानी खच्चरों पर ४-५ किमी की यात्रा कर बर्फ का आनंद लेने जा रहे थे। औली में सिर्फ बर्फीली हवा के थपेड़े और बर्फीली चोटी को निहारें और साथ में गरमा गरम चाय-कॉफी, मैगी-नूडल्स आदि का स्वाद लीजिये।  

पांचवे दिन सुबह ९ बजे हम रुद्रप्रयाग के लिए प्रस्थान किये। राह में नन्दप्रयाग एवं कर्ण प्रयाग के दर्शन करते हुए लगभग ३ बजे रुद्रप्रयाग पहुंचे। मुख्य मार्ग पर ही एक होटल में ठहरे। सड़क की ऊंचाई से ही प्रयाग के दर्शन किए। छठे दिन प्रयाग तक जाने के लिए सुबह ८ बजे निकल गये। प्रयाग के नजदीक ही बाबा काली कमली वाले की धर्मशाला है। एक रात गुजारने के लिए ठीक है। यहाँ से संगम नजदीक है लेकिन बाजार दूर। बाजार में भी इनकी धर्मशाला है। संगम तक पहुँचने के लिए काफी नीचे तक जाना पड़ता है, सीढ़ियों से, फिर भी घाट तक नहीं पहुँच पाया। मुझे छोड़ और कोई नहीं उतरा। केदारनाथ की बाढ़ की आपदा में यहाँ बहुत नुकसान हुआ, उसके बाद से सही व्यवस्था नहीं हो पाई  है। सौभाग्य से आसाम से एक बेटी अपने पिता को लेकर वहाँ आई हुई थी। उसने मेरी परेशानी समझ कर अंजली भर जल लाकर मुझे दिया। उसीसे आचमन और छिड़काव कर संतोष कर लिया। और फिर यात्रा समाप्त करते हुए वहाँ से सीधे जॉली ग्रांट (देहरादून) हवाई अड्डे के तरफ निकल पड़े। अड्डा लगभग 2.30 बजे पहुंचे। हवाई अड्डा छोटा है, विस्तार की आवश्यकता है।

यात्रा बहुद ही सुखद एवं आनंद दायक रही। हर जगह कोरोनाकाल की छाप दिखी। मंदिर वीरान पड़े थे। रास्ते में अनेक जलपान गृह बंद थे, यात्री नदारद थे। इससे जहां कई जगह सुविधा हुई तो असुविधा भी। मंदिरों का विरानापन खटका तो होटलों में अच्छी छूट (डिस्काउंट) मिली। खाने-पीने की जगहों में कमी थी तो रास्ते फाँका मिले। दरअसल सुविधा-असुविधा अलग अलग नहीं है। दोनों एक ही परिस्थिति के दो छोर हैं। जैसे की गर्मी और सर्दी तापमान के ही मापदंड हैं। अगर तापमान कम है तो सर्दी है लेकिन ज्यादा है तो गर्मी है।  जहां सुख है वहीं दुख है, धूप के साथ छाँव है, आनंद के साथ गम है। अगर हमारी नजर सुविधा, सुख, आनंद पर है तो हमारे लिए वसंत है लेकिन अगर असुविधा, दुख, गम पर ही विचार करते रहें तो सूखा है।  परिस्थिति एक ही है नजर अपनी अपनी है।   

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शुक्रवार, 19 मार्च 2021

बहू को बहू मानें, बेटी को बेटी

अभी कुछ समय पहले की बात है, मैं अपने छोटे भाई के घर पर, जो दूसरे शहर में रहता है, गया हुआ था। कमरे में मैं, पिताजी, माताजी, भाई और उसकी पत्नी बैठे थे। माता-पिता अधिकतर छोटे  भाई के साथ रहते थे। बहू कुछ उखड़ी-उखड़ी नजर आ रही थी। बातों बातों में मुझसे मुखातिब हुई और अपनी नाराजगी बताने लगी। माँ और भाई उसे टोकने लगे; लेकिन उसके हाव-भाव से लगा कि वह रुकने वाली नहीं। मैंने उन्हें रोका और बहू को अपनी बात कहने  की अनुमति दे दी। भाई, माता-पिता मेरी इज्जत करते हैं। अत: उन्हें अच्छा तो नहीं लगा लेकिन कुछ बोले नहीं। बहू ने अपनी व्यथा बयान की। उसकी व्यथा थी कि वहाँ सब उसमें और बेटियों में दो भाँत करते हैं, यह उसे अच्छा नहीं लगता। प्रमुखत: - पहनावे, रीति-रिवाजों को मानने और घर का काम करने में। हाँ, वह सही कह रही थी। फिर मैंने पूछा क्या उसके पीहर और ससुराल में सब रीति-रिवाज शत-प्रतिशत एक जैसे माने और मनाए जाते हैं? क्या दोनों जगहों के विचार पूरी तरह आपस में मिलते हैं? वह खुद अब अपने पीहर और ससुराल में से किनके विचारों और रीति रिवाजों को मनाती है? यह घर उसका है या उसकी ननद का? इसी प्रकार उसके भाई का घर उसकी भाभी का है या उसका?’ उसने बताया वह उन्हीं रीति रिवाजों और परम्पराओं को निभाती और भली भांति जानती है जिसकी मान्यता ससुराल में है। यह घर ननदों का नहीं उसका है और इसी प्रकार  भाई का घर भाभी का है उसका नहीं। मैंने बताया कि माँ-बाप का यह फर्ज बनता है कि वह अपनी बेटी को इस प्रकार तैयार करे कि विवाह के बाद बदले हुए माहौल को समझने और अपनाने में उसे तकलीफ न हो। मानवीय-आध्यात्मिक संस्कार गहरे हों लेकिन पारिवारिक रीति रिवाजों की  जानकारी हो ताकि नए परिवेश में खुद को ढालने में उसे तकलीफ न हो। और वहीं बहू को इस प्रकार सिखाये की परिवार के संस्कार, रीति रिवाज, परंपरा को अच्छी तरह से समझ ले ताकि वह उनका निर्वाह भी कर सके और अगली पीढ़ी को उसके अनुरूप तैयार कर सके। इसमें कहीं कोई नियम-कानून, संविधान, महिला अधिकार-स्वतन्त्रता आड़े नहीं आती बल्कि भावनाओं और परिवार का ही महत्त्व है। किसी को बीच में न लाकर अपने घर का ही ध्यान रखा जाता है। बहू का यह भी फर्ज है कि इस सीखने और सिखाने में नए–पुराने का हिसाब न रख, सही और गलत का हिसाब रखे। सड़े-गले को काट-छाँट कर अलग करना जितना जरूरी है उतना ही जरूरी है उसमें नवीन को जोड़ते जाना या उसका नवीनीकरण करना भी। जिससे परिवार हर समय नवीन लगे, उन्नति करे और सुगंध फैलाये।  पूरी प्रक्रिया थोपने की नहीं सीखने-सिखाने की है और इसे उसी अंदाज में लेना चाहिए। यह नहीं समझना चाहिए की यह प्रक्रिया केवल महिलाओं के साथ होती है। पुरुषों के साथ भी होती है। फर्क है, केवल घर बदलने का। इस कारण जहां पुरुषों को सीखने-सिखाने का कार्य बचपन से चलता है, महिलाओं में विवाह के बाद एक बड़ा बदलाव आ जाता है। मुझे संतोष हुआ जब मैंने देखा कि हमारे वार्तालाप के बाद वहाँ उपस्थित सब लोगों के चेहरों से तनाव हट चुका था और सब सहज हो चुके थे। सब समझ गए थे कि महत्त्व भावनाओं का है, अधिकार-नियम-कानून का नहीं।  

श्री चैतन्यमहाप्रभु जंगलों में घूमने जाया करते थे। एक दिन उन्होंने वहाँ एक ब्राह्मण को देखा जो आसन लगाए बड़े ही प्रेम से गदगद कण्ठ से गीता का पाठ कर रहा था। वह श्लोकों का अशुद्ध उच्चारण कर रहा था लेकिन पाठ करते समय वह ऐसा तल्लीन था कि उसे बाह्य संसार का पता ही नहीं था। महाप्रभु देर तक उसका पाठ सुनते रहे। जब ब्राह्मण पाठ करके उठा तब महाप्रभु ने उससे पूछा, अरे भाई, तुम्हें उस पाठ में ऐसा क्या आनंद मिलता है जिसके कारण तुम्हारी ऐसी अद्भुत अवस्था हो जाती है। इतने ऊंचे प्रेम भाव तो अच्छे-अच्छे भक्तों के शरीर में प्रकट नहीं होते, तुम अपनी प्र्सन्नता का ठीक-ठीक कारण बताओ

ब्राह्मण ने कहा, भगवान, मैं एक बुद्धिहीन, ब्राह्मण-वंश में उत्पन्न हुआ निरक्षर ब्राह्मण हूँ। मुझे शुद्ध-अशुद्ध कुछ भी बोध नहीं। मेरे गुरुदेव ने मुझे आदेश दिया था कि तू गीता का नित्य पाठ किया कर। भगवन! मैं गीता का अर्थ भी नहीं जानता। मैं गीता का पाठ करते समय इसी बात का ध्यान करता हूँ कि सफ़ेद रंग के चार घोड़ों से जुता हुआ एक स्वर्ण जड़ित सुंदर रथ खड़ा है। उस रथ की  विशाल ध्वजा पर हनुमान विराजमान हैं। खुले हुए रथ में अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित अर्जुन शोक भाव से धनुष को नीचे रखे बैठा है। भगवान श्री कृष्ण हाथों में घोड़ों की रास लिए सारथी के स्थान पर बैठे मंद मुस्कान से साथ अर्जुन को गीता का उपदेश दे रहे हैं। बस, भगवान के इसी रूपमाधुरी का पान करते-करते मैं अपने आप को भूल जाता हूँ। भगवान की वह त्रिलोकपावनी मूर्ति मेरे नेत्रों के सामने नृत्य करने लगती है। उसी के दर्शनों से मैं पागल-सा बन जाता हूँ। मैं इसी भाव से पाठ करता रहता हूँ। महाप्रभु ने कहा, विप्रवर, तुम धन्य हो, यथार्थ में गीता का असली अर्थ तो तुमने ही समझा हैभावों की शुद्धि ही अत्यंत आवश्यक है। 

बेटे का वैवाहिक संबंध तय होते ही, माँ ने बहू को बाहों में भर कर घोषणा की ‘ये मेरी बहू नहीं  बेटी है’। आधुनिकता की चाशनी में ओत-प्रोत यह घोषणा बड़ी आम बात हो गई है। यह बात किसी की बेटी को अपनी बेटी तुल्य मानना और बेटी को बहू से बड़ा घोषित करने की कोशिश भर है। लेकिन इस आधुनिकता के दिखावे में हम यह भूल जाते हैं कि बहू का अधिकार, उत्तरदायित्व, गरिमा और सम्मान बेटी से ज्यादा है। बहू को बेटी बनाना, सही माने में उसके दर्जे को बढ़ाना नहीं, कम करना है। बहू का अधिकार बहू के रूप में ही है, बेटी बनते ही वह अपना बहू का अधिकार, गरिमा और सम्मान खो देती है। बहू को बेटी कहना केवल आधुनिकता और प्रतिष्ठा का सूचक भर है। यह समझने की जरूरत है कि तमाम आधुनिकता के बावजूद बेटी नहीं, बहू ही अपनी है।

मेरे घर की पहचान, मेरी बहू है। मेरे वंश को बढ़ाने वाली, बहू है। मेरे रिश्ते, परिवार, पास-पड़ोस, मित्र, अतिथि उसके ही इर्द-गिर्द घूमते हैं। इन सबों से बनाना-बिगाड़ना, बहू के हाथ में है। ये सब बहू के बल बूते पर फलते-फूलते हैं। मेरे परिवार का फैलाव, बहू ही करती है। मेरे बुढ़ापे में भी बेटे से ज्यादा भूमिका, बहू की ही है। हाँ, यह सही है कि भावनात्मक दृष्टिकोण से बेटी ज्यादा नजदीक है, उसमें मेरा अंश है, उसमें मेरा खून है, हमने उसे पाला है, वह हमारा दु:ख दर्द समझती है। लेकिन यह बहू की कला है, होशियारी है, कौशल है, समझ है जिससे एक  बेटी अचानक एक अनजान, पराए घर में आ कर  उसे अपना बना लेती है, हमारा मन जीत लेती है। जब तक वह बेटी थी उसके पास ऐसा उत्तरदायित्व नहीं था। बहू बन कर ही वह परिपक्व होती है। यहाँ भी बहू,  बेटी से आगे है। बेटी का संबंध कुछ वर्षों तक ही रहता है जबकि बहू, मृत्युपर्यंत हमारे साथ है। बल्कि, सही मायने में मृत्यु के बाद भी हमारे परिवार का अंग बहू ही है।

बुढ़ापे में बहू के बजाय बेटे-बेटी पर भरोसा करना ही हमारी भूल है। आधुनिकता के चक्कर में बेटी यह मानती है कि माता-पिता की देखभाल उसका उत्तरदायित्व है। उत्तरदायित्व कभी अकेला नहीं होता। उत्तरदायित्व को निभाने के लिए अधिकार की जरूरत होती है। इस चक्कर में बेवजह  अधिकारों का अतिक्रमण पारिवारिक परेशानियाँ पैदा करता है। बहू को बहू मानें, यही नहीं, बेटी को भी बहू बनने दें । याद रखें जिस प्रकार माता-पिता-बेटी के बीच मनमुटाव-स्नेह-नाराजगी-खुशामद, प्यार और तकरार होते रहते हैं लेकिन रिश्ता यथावत बना रहता है, वैसे ही सास-श्वसुर-बहू के बीच भी ऐसे वाकिए होते रहते हैं – उन्हें तूल न दें। बल्कि अगर उनके बीच तकरार नहीं, मनमुटाव नहीं, नाराजगी नहीं, खुशामद नहीं तो समझ लें कि रिश्ता अभी तक सामान्य नहीं हुआ है। प्रेम के बजाय, तकरार और तकरार के बाद प्रेम ही रिश्तों को सामान्य बनाता है। बीती बातों को बिसार कर फिर से रिश्तों को सामान्य करें और यही शिक्षा अपनी बेटी को भी दें। तकरार को अहमियत न दें, भावनाओं का मोल समझें।  जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी।

अपने भावों को शुद्ध रखें, बेटी को बेटी और बहू को बहू का दर्जा दें। उन्हें उनके अधिकार और उत्तरदायित्व प्रदान करें। अपना और बेटी, दोनों का घर सँवारें और सँवरने दें।

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शुक्रवार, 12 मार्च 2021

फर्क, गाँव और शहर का

 अभी ऋषिकेश प्रवास के दौरान मेरे कुछ अनुभव।

 ठंड के बावजूद हम प्राय: प्रात: 6.30 बजे गंगा किनारे सैर के लिए निकल जाते थे। उस दिन भी सैर से जब वापस आ रहे थे तो देखा साइकिल पर एक घर में बनी पावरोटी-बिस्कुट वाला सड़क किनारे चाय की दुकान पर बिस्कुट दे भी रहा था और गरम चाय भी पी रहा था। पत्नी ने बिस्कुट का एक पैकेट उससे खरीद लिया। आगे बढ़े तो मैंने कहा कि सुबह की चाय के साथ नमकीन पापड़ी वाली बिस्कुट अच्छी लगती है। लेकिन तब तक हम भी आगे बढ़ चुके थे और वह भी अपनी साइकिल लेकर जा चुका था। घूमते हुए जब हम अपने आश्रम के दरवाजे पर पहुंचे तो पाया कि वह वहीं अपनी साइकिल लेकर खड़ा है। पत्नी ने देखा और उससे बिस्कुट बदली करने का अनुरोध किया। बिना किसी शिकन और प्रश्न के उसने तुरंत उसे बदली ही नहीं किया, बल्कि बिना मांगे ही कुछ  पैसे भी वापस किए। हम शहर में रहने वालों के लिए यह एक रोमांचित अनुभव था। शहर में शायद सामान फिर भी बदली कर दें, पैसे वापस तो हॉकर हो या दुकान वाला  वापस करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।

 हमारा ऋषिकेश से देवप्रयाग जाने का कार्यक्रम बना। टैक्सी वाले से बात हुई थी लेकिन तय नहीं किया था। जाने के ठीक एक दिन पहले अचानक पेट गड़बड़ा गया और पतले दस्त लगने लगे। दवा प्रारम्भ की और जल्द ही लगा अब ठीक है। अत: 11 बजे टैक्सी वाले को फोन कर अगले दिन सुबह 6.30 आने का कह दिया। लेकिन अचानक दोपहर बाद परिस्थिति खराब होने लगी। थोड़ा इंतजार किया शायद ठीक हो जाय। लेकिन उल्टा ही हो रहा था। आखिर शाम तक कार्यक्रम रद्द करने का ही मन बनाया। पत्नी को इशारा किया कि टैक्सी वाले को मना कर दे। पत्नी हिचकिचा रही थी कि वह चिल्ला-मिल्ली करेगा, और नुकसान की बात करेगा। लेकिन कोई उपाय नहीं था। उसने फोन किया और उसे स्थिति से अवगत कराया। उसे बताया कि मेरी तबीयत ठीक नहीं और पतले दस्त लग रहे हैं, इसलिए हम कार्यक्रम रद्द करना चाहते हैं। टैक्सी वाले ने तुरंत कहा ऐसी अवस्था में तो दिन भर के लिए जाना ठीक नहीं। जाएंगे तो बाहर खाना पड़ेगा, तबीयत और खराब हो सकती है। आगे उसने पूछा कि डॉक्टर से बात की है? दवा वगैरह दी है? कोई दवा लानी है? ध्यान रखिएगा? पत्नी कुछ भी बोल सकने की अवस्था में नहीं थी, उसकी आँखों में आँसू छलक आए।

 पत्नी को एक दुकान में एक पोशाक पसंद आई। लेने का मन तो बना लेकिन पहन कर देखने की सुविधा न होने के कारण पेशो-पेश में थी कि क्या किया जाए। दुकानदार ने मुसीबत आसान कर दी। कहा कि आप ले जाइए, आश्रम में पहन कर देख लीजिएगा और अगर नहीं जँचे तो वापस कर दीजिएगा, पैसे वापस मिल जाएंगे। पत्नी ने पूछा, “वापस करने पर क्या आप पूरे पैसे वापस दे दीजिएगा?” दुकानदार ने विश्वास दिलाया कि हाँ पूरे पैसे वापस मिल जाएंगे, बदली करने नहीं कहा जाएगा। उसने अपना वादा निभाया। 

 शहर में वादा-खिलाफी अपना हक समझा जाता है। शहरों में हमने बहुत पैसे खोये हैं। अग्रिम दिया पैसा तक, माल न आने पर भी, लौटते नहीं बल्कि कुछ और खरीदने के लिए या बार बार खबर लेने के लिए कहते हैं। शिक्षा ने हमें पतन के गर्त में धकेल दिया है। शहर की शिक्षा ने दुर्भाग्यवश हमें धूर्त और चालक बना दिया है।  इससे तो गाँव का अ-शिक्षित गँवार हमसे बेहतर है

 1909 में गांधी ने हिन्द स्वराज की रचना की थी। पुस्तक में गांधी ने शिक्षा विशेष कर ग्रामीण लोगों की साक्षरता अभियान की निंदा की थी। उन का मत था कि अमूमन ग्रामीण किसी भी शहरी की तुलना में अपनी जिम्मेदारियाँ ज्यादा समझता है और उनका निर्वाह भी करता है। शिक्षा उन्हें शिक्षित नहीं चालाक बनाती है। ऐसी शिक्षा का क्या उपयोग?

 इससे पहले लगभग 1830 में कैप्टन स्लीमन ने भी इसीसे मिलती जुलती बात कही थी। कैप्टन को भारत का दौरा करना पड़ा था और अपने कार्य हेतु वह भारत के बड़े पैमाने पर आम आदमियों के संपर्क में था। एक प्रश्न के उत्तर में उसने कहा था, एक ग्रामीण भारतीय सच्चा और ईमानदार है। वह बिना शपथ लिए भी सत्य ही  कहेगा भले ही उसे नुकसान उठाना पड़े। लेकिन एक शहरी, अगर उसे नुकसान हो रहा हो तो, शपथ लेने पर भी सत्य नहीं कहेगा।

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शुक्रवार, 5 मार्च 2021

सूतांजली मार्च २०२१

 सूतांजली के मार्च अंक का संपर्क सूत्र नीचे है:-

इस अंक में दो विषय, एक लघु कहानी एवं कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी धारावाहिक का तीसरा अंश है:

१। कैसा जीवन चाहिये? गुलाम का या मालिक का?

कैसा जीवन खोजते हैं आप? – एक गुलाम जैसा या एक मालिक जैसा! बड़ा बेहूदा सा प्रश्न प्रतीत होता है। यह भी कोई पूछने वाली बात है! गुलामी का जीवन भी कोई जीवन है? गुलामी में तो जीवन केवल जाता है, आता नहीं। गुलामी का जीवन बस एक आभास होता है, सपना होता है,.....

२। सुखी जीवन, आपकी मुट्ठी में

एक बड़ी कंपनी में कार्यरत महिला लिखती हैं:

उस वर्ष कंपनी में अनेक उठा-पटक हुए। अब कंपनी के कर्मचारियों का वार्षिक मूल्यांकन चल रहा था। सभी बेहद तनाव में थे। चाय पर, भोजन पर, गलियारों में, आते-जाते सब केवल इसी की चर्चा कर रहे थे। कौन रहेगा, कौन जाएगा, किसकी तरक्की होगी, किसकी अवनति होगी? जितनी मुंह उतनी बातें। मैं उस तनाव को झेल नहीं पा रही थी। अत: हरिद्वार एक आश्रम में  ध्यान- .......

३। गुरु पर भरोसा

भयानक कार दुर्घटना में अपना बायाँ हाथ खो चुकने के बाद भी १० वर्षीय जतिन की जूडो सीखने की तीव्र इच्छा थी। एक दिन वह एक बूढ़े जापानी जूडो गुरु के पास पहुंचा। साहस जुटाकर उसने उनसे जूडो सीखाने का आग्रह किया। गुरु ने उसे अपने शिष्यों में शामिल कर लिया। अगले दिन से वह नियमित अभ्यास में शामिल होने लगा। वह खूब मन लगाकर अच्छी तरह से सीख रहा था। लेकिन उसे समझ नहीं आ रहा था कि पिछले तीन महीने से वह एक ही पैंतरा .........

४। कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी

पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल बंद में थे। जेल के इस जीवन का, श्री अरविंद ने कारावास की कहानी के नाम से, रोचक वर्णन किया है। अग्निशिखा में इसके रोचक अंश प्रकाशित हुए थे। इसे हम जनवरी माह से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इस कड़ी में यहाँ इसका तीसरा अंश है।

 

संपर्क सूत्र (लिंक): -> https://sootanjali.blogspot.com/2021/03/2021.html

 

ब्लॉग में इस अंक का औडियो भी उपलब्ध है।