शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2020

शुभकामनाएँ, नये अंदाज़ में

त्यौहारों का मौसम प्रारम्भ हो चुका है। सही कहा जाए तो इस वर्ष पितृ पक्ष के बाद अधिक मास या पुरषोत्तम मास के कारण त्यौहारों का मौसम एक माह बाद प्रारम्भ हुआ। नवरात्र प्रारम्भ हो चुका है, इसकी समाप्ती दशहरा के साथ और उसके बाद करवा चौथ, काली पूजा, दीपावली, भैयादूज, गोवर्धन पूजा, छठ पूजा, मुस्लिम त्यौहार, गुरुनानक जयन्ती, क्रिसमस; यानि एक के बाद एक अनेक त्यौहार आते रहेंगे। देश के अलग-अलग भागों में इन्हें मनाने का तौर तरीका अलग-अलग हो सकता है, मान्यता और अहमियत भी अलग-अलग त्यौहारों की अलग-अलग हो सकती है, लेकिन यह मौसम, पूरे देश में, शुभकामनाएँ देने और लेने का  है।

किसी जमाने में हम बधाई पत्र (ग्रीटिंग्स कार्ड) के जरिये अपनी भावनाओं को ज़ाहिर किया करते थे। लेकिन समय के साथ साथ ऐसे पत्र अतीत के गर्भ में समा गये। नई तकनीक और विचारों ने इस प्रथा को उजाड़ दिया। पहले इने-गिने त्यौहारों पर ही ऐसे संदेशों का आदान-प्रदान होता था। लेकिन अब हमारे हाथ में संदेशों की बाढ़ आती है, अबाध रूप से, हर छोटे बड़े त्यौहार पर। एक ही संदेश बार-बार, लगातार। उदाहरण, नवरात्रि का एक संदेश न आकर नौ दिन के नौ संदेश। दीपावली के भी तीन संदेश – धनतेरस, रूप चौदस और दिवाली।  ये  जैसे आते हैं, वैसे ही भेजे भी या आगे बढ़ाये जाते हैं। इनमें से किसी से भी मन का  जुड़ाव नहीं होता है, न पाने में न देने में। यही नहीं, ये संदेश हमारा होता भी नहीं है। इन्हें लिखा, सँवारा, सजाया किसी और ने है, किसी और के लिए। उस किसी और को न हम जानते हैं न वे हमें जानते हैं। ये सब केवल अंगुली के झटके हैं।तब जुड़ाव कैसा?

पिछले वर्ष, यानि 2019, में मैंने एक सुझाव दिया था। तकनीक अपनायेँ, लेकिन तरीका नसीफ हो। किसी और के संदेश को न भेज कर अपना संदेश खुद बनाएँ या किसी जानकार से बनवाएँ, सजवाएँ, सँवारे; पारिवारिक संदेश बनाएँ, जिसके भी पास जाए वह आपके परिवार का अपना संदेश हो, किसी और का नहीं। उस संदेश पर आपकी स्पष्ट छाप हो, जिसे दूसरा किसी और को भेज न सके। लेकिन, आपका पूरा परिवार उसे किसी को भी भेज सके। तब, नए, रंग-बिरंगे संदेश देखने मिलेंगे साथ ही विशिष्टता भी बनेगी, भावुकता का समावेश होगा, पहचान बनेगी और आपसी जुड़ाव की भी गुंजाइश होगी।  

इसी कड़ी में इस वर्ष एक और नया अंदाज़। कोरोना का समय है। अर्थ व्यवस्था प्रभावित हुई है। बहुत बड़ी संख्या में लोग प्रभावित हुए हैं। तो आइए कुछ ऐसा करें कि अर्थ व्यवस्था को कुछ  प्रोत्साहन भी मिले, सकारात्मक संदेश भी जाए और आपके परिवार की एक विशेष छाप भी पड़े। शुभकामनाओं का संदेश भेजिये पुस्तक के माध्यम से

जी हाँ, पुस्तक भेजिये। अपना छोटा सा संदेश पुस्तक के पन्नों पर हाथ से लिखें या बड़ा सा प्रिंट करवाएँ या फिर पूरा एक रंग-रंगीला पन्ना प्रिंट करवा कर पुस्तक से संलग्न (स्टिक) करें। सबसे खास बात यह है  कि चाहें तो सबको एक ही पुस्तक भिजवाएं, परिवार विशेष को विशेष या कई पुस्तक भिजवायेँ, अलग अलग लोगों को अलग अलग भिजवायें। यह आपकी मर्जी पर निर्भर करता है। पत्र-पत्रिकाओं का वार्षिक चंदा भी बधाई के साथ साथ एक नायाब उपहार हो सकता है। यही नहीं, किसी भी भारतीय भाषा में हिन्दी, असमिया, बंगाली, उड़िया, तमिल, तेलगू, कन्नड, मलयालम, महाराष्ट्रियन, गुजराती, राजस्थानी, पंजाबी, किसी भी भाषा में। हिन्दी और अँग्रेजी तो है हीं।

नहीं मैं कोई बड़े बजट की बात नहीं कर रहा हूँ। भेजने लायक उत्तम पुस्तक तीन, जी हाँ तीन रुपये में भी मिलती हैं। अगर बजट दस – पंद्रह रुपये तक कर लें तब तो कहना ही क्या है। ऊपरी सीमा का तो कोई अंत ही नहीं है। सामान्यत: भेजने का खर्च, पोस्ट से भेजते हैं तो पाँच से पंद्रह रुपए और अगर कूरियर करना चाहते हैं तो दस से तीस रुपये। ऐसी पुस्तकें कई जगह मिलेंगी यथा गीता प्रेस, गोरखपुर की पुस्तकें गोविन्द भवन, कोलकाता में आसानी से उपलब्ध हैं। इसके अलावा चिन्मय मिशन, विवेकानंद केंद्र, श्री औरोबिंदो आश्रम और ऐसी अनेक संस्थाओं, एन बी टी प्रकाशन, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, नवजीवन प्रेस  के अच्छे प्रकाशन बहुत सस्ते में उपलब्ध हैं। इन प्रकाशकों की पुस्तक की सूची इंटरनेट पर उपलब्ध है। इन्हें इंटरनेट पर खोजकर अपने शहर में प्राप्ति स्थान से या ऑन लाइन मँगवा सकते हैं। ऐसा नहीं है कि इनमें केवल धार्मिक पुस्तकें ही मिलती हैं, विभिन्न विषयों पर रुचि के अनुसार पसंद कीजिये, मंगाइए और भेजिये। आपकी जानकारी के लिए ऐसी ही कुछ पुस्तकों की तस्वीर दे रहे हैं। अगर आपको और अधिक जानकारी चाहिए तो हमें अवश्य लिखें, हम यथा सम्भव उत्तर देंगे। 


ये पुस्तकें गीतप्रेस, चिन्मय मिशन, रामेश्वर टांटिया ट्रस्ट, विवेकानंद सेंटर द्वारा प्रकाशित हैं 

आपके पास भी अगर कोई नए अंदाज़ का सुझाव हो तो जरूर बताएं। हम उसे लोगों तक पहुचाएंगे। लीक पर न चलें, नयी लीक बनायेँ।

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शुक्रवार, 16 अक्टूबर 2020

मार्क ट्वेन ने कहा

 (मार्कट्वेन अमेरिका के जाने माने व्यंगकार, उपन्यासकार, यात्रा-संस्मरण लेखक और भाषण कर्ता थे। 18 जनवरी से 31 मार्च 1896 उन्होंने भारत की यात्रा की। हिंदुस्तान में मुंबई, पूना, बनारस, कलकत्ता, दार्जिलिंग, आगरा, जयपुर, दिल्ली और दूसरे अनेक नगरों की यात्राएं कीं। अपने लेखन में उन्होंने अपनी इस यात्रा का जिक्र भी किया है जिनमें भारत के सम्बंध में बहुत विस्तार से लिखा है। आपके लिए उजाले के गाँव से इसे संकलित किया गया है।)

·      अगर आप सत्य बोलें तो आपको कुछ भी याद रखने की आवश्यकता नहीं है।

·      यह बेहतर है कि आप अपने मुंह को बंद रखें और लोगों को यह सोचने का मौका दें कि आप मूर्ख हैं, बजाय इसके कि आप उसको खोलें और आपके बारे में सारे संदेह ही दूर हो जाएँ।

·      अधिकतर लोग शास्त्रों के उन अंशों से परेशान रहते हैं, जिन्हें वे बिलकुल नहीं समझते किन्तु मुझे वे अंश परेशान करते हैं जिन्हें मैं समझता हूँ।

·      सही शब्द बहुत प्रभावी हो सकता है, किन्तु कोई भी शब्द उतना प्रभावी नहीं होता, जितना कि सही समय पर प्रयुक्त किया गया विराम।

·      सबसे बड़ा अकेलापन अपने साथ सहज न होना है।

·      यह हिंदुस्तान है! सपनों और राग-रंग की धरती, बेइंतिहा दौलत और बेइंतिहा दरिद्रता की धरती, शान-शौकत और फटे-हाल लोगों की धरती, महलों और झोपड़ियों की धरती, अकाल और टिड्डी दलों के हमले की धरती, मामूली और महान हस्तियों की धरती, अलादीन के चिराग, शेरों और हाथियों की धरती, काले नाग और जंगलों की धरती, यही है एक सौ राष्ट्रों के एक देश की सरजमीं, सैकड़ों जुबानों और हजारों धर्मों की धरती, मानव सभ्यता के फलने-फूलने की क्रीड़ास्थली, मनुष्य की वाणी की जन्मभूमि, इतिहास की जननी, आख्यानों की दादी, परम्पराओं की परदादी, जिसका अतीत दुनिया के शेष हिस्सों से प्राचीनतम है।

·      ऐसे लोग हैं, जो बड़ी कड़ाई के साथ हर खाद्य पदार्थ से, हर पेय से और अपने भीतर धुआँ लेने वाले पदार्थ और ऐसी हर वस्तु से जिन्हें बुरा समझा जाता है, अपने आपको वंचित रखते है।  यह कीमत स्वास्थ्य के लिए अदा करते हैं और मात्र स्वास्थ्य ही वह वस्तु है, जिसे वे प्राप्त करते हैं। कैसी विचित्र बात है? यह तो कुछ ऐसा है, जैसे आप सारी संपत्ति उस गाय के लिए लुटा दें, जो दुधरु नहीं रही है।

·      मैं युवा था तो हर बात को याद रख सकता था, चाहे वह घटित हुई हो या नहीं।

·      जब कभी आपको लगे कि आप बहुमत के साथ हैं, तो यह, अपने आपको सुधारने का समय है।

·      हिंदुस्तान में 20 लाख देवी देवता हैं, जिनकी सभी लोग पूजा करते हैं। धर्म के मामले में अन्य सभी देश  दरिद्र हैं, जबकि हिंदुस्तान लखपति है।

·      दूसरे देशों में स्टेशन पर गाड़ी का इंतजार करना बहुत थकाने वाला और उबाऊ होता है, लेकिन हिंदुस्तान में इस तरह का कोई एहसास नहीं होता। यहाँ के स्टेशन पर भारी चहल-पहल और शोरगुल रहता है। आभूषण पहने नर-नारियों की भीड़ नजर आती है। उनकी बहुरंगी वेशभूषा और परिधानों को देख कर मन जितना आनंदित होता है उसे शब्दों में वर्णित नहीं किया जा सकता।  

·      प्रत्येक दिन आप कुछ ऐसा करें जो करना नहीं चाहते। यह एक ऐसा स्वर्णिम नियम है, जिससे आप अपने कर्तव्य को बिना किसी कष्ट के निभाने की आदत डाल सकते हैं।

·      अपनी भ्रांतियों को दूर मत कीजिये, यदि वे चली गईं तो आपका वजूद भले ही रहे, लेकिन आपका जीना मुश्किल हो जाएगा।

·      पहले तथ्यों को बटोरिए और फिर जैसा चाहें, उनको तोड़ मरोड़ लीजिये।

·      हास्य बहुत बड़ी चीज है, जिस समय इसका प्रस्फुटन होता है, हमारा सारा चिड़चिड़ापन और गुस्सा दूर हो जाता है और उसकी जगह उत्फुल्लता का संचार होने लगता है।

·      मैंने कभी कोई व्यायाम नहीं किया, सिवाय सोने और आराम करने के।

·      कोई भी व्यक्ति बिना आत्म स्वीकृति के सुखी नहीं हो सकता।

·      अंग्रेज़ वह है, जो बहुत सारी बातें इसलिए करता है कि उसके पुरखे पहले करते रहे हैं। अमेरिकी वह है, जो वह करता है, जैसा पहले कभी नहीं हुआ।

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शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2020

सर्व धर्म समभाव

 (अलग-अलग समय एवं जगहों पर प्रश्नों के उत्तर में गांधी ने धर्म के संबंध में अपने विचारों को व्याख्यायित किया है। उन्होंने हर प्रश्न का बड़ी बेबाकी से उत्तर दिया। उनकी बातें प्रकाशित भी होती रही हैं। कई शोधकर्ताओं ने उसे एकत्रित करके भी प्रकाशित किया है। श्री रवि के. मिश्रा का लिखा ऐसा ही एक लेख गांधी एंड रिलीजन (Gandhi and Religion) के नाम से गांधी मार्ग-अँग्रेजी के जनवरी-मार्च 2020 के अंक में प्रकाशित हुआ। उसी के कुछ अंश आपकी जानकारी के लिए, हिन्दी में प्रस्तुत है।)

1.

अलस्तरी मकराए

गांधी जहाँ जीसस के बड़े प्रशंसक थे उन्होंने इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि जीसस का स्थान  संसार के सब धर्म गुरुओं की तुलना में  ज्यादा ऊँचा है। उन्होंने अपने एक पत्र  में अलस्तरी मकराए (Alastari Macrae) को लिखा, “मैं जीसस को दुनिया के महानतम धर्म गुरुओं में मानता हूँ, लेकिन मैं यह विश्वास नहीं करता कि वे सर्वोच्च देव थे”।

2.

महिला मिशिनरी एमिली किन्नईर्ड (Emily Kinnaird) ने प्रश्न किया, “क्राइस्ट ईश्वर के एकमात्र पुत्र हैं?

एमिली किन्नईर्ड
गांधी, “आपके लिए क्राइस्ट ईश्वर के एकमात्र पुत्र हो सकते हैं। मेरे लिए वे ईश्वर के पुत्र थे। वे चाहे जितने भी पवित्र रहे हों लेकिन हम सब उसी ईश्वर की संतान हैं और वे सब करने की क्षमता रखते हैं जिसे क्राइस्ट ने किया; अगर हम प्रयास करें तो अपने भीतर के उस देवत्व को प्रकट कर सकते हैं”।  

 3.

महिला मिशीनरियों के समूह का प्रश्न, “अगर कोई काफी जिज्ञासु हो और किसी एक पुस्तक की  सिफ़ारिश करने पर ज़ोर दे तब उन्हें कौनसी पुस्तक की सिफ़ारिश करनी चाहिए?”

गांधी, “आप इस अवस्था में यही कहें कि आपके लिए बाईबल ही है। लेकिन अगर वे मुझसे पूछेंगे तो मैं किसी को कुरान कहूँगा, किसी को गीता, किसी को बाइबिल तो किसी को तुलसीदास कृत रामचरित मानस बताऊंगा। मैं एक समझदार डॉक्टर की  तरह रोगी के अनुसार उसे उपचार बताऊंगा”।

महिलाओं ने कहा, “लेकिन उन्हें गीता से ज्यादा कुछ प्राप्त नहीं हुआ”।

गांधी ने कहा, “लेकिन उन्हें भी बाइबिल या कुरान से ज्यादा कुछ नहीं मिला”।

महिलाओं ने फिर कहा, “लेकिन अगर हमारे पास आध्यात्मिक और चिकित्सीय दृष्टिकोण से कुछ है जिसे हम उन्हें दे सकते हैं तब उसे क्यों न दिया जाए?”

तब गांधी ने कहा, “इस दुविधा से बाहर निकलने का एक आसान मार्ग है। आप यह निश्चित रूप से अनुभव करें कि आपके पास जो है, आपका मरीज भी उसे प्राप्त कर सकता है, लेकिन किसी दूसरे रास्ते से। आप कह सकती हैं कि आप इसी रास्ते से आई हैं, लेकिन वे किसी दूसरे रास्ते से भी आ सकते हैं। आप क्यों ऐसा चाहती हैं कि वे भी उसी विश्वविद्यालय से उत्तीर्ण हों जिससे आप हुई हैं?”

सी.एफ.एंड्रूज़
4.


सी
.एफ.एंड्रूस, “अगर ऑक्सफोर्ड समूह आपके बच्चे को जिन्दगी दे और वो अपना धर्म परिवर्तन करना चाहे तब आप क्या कहेंगे?”

गांधी, “मैं कहना चाहूँगा कि ऑक्सफोर्ड समूह जितने लोगों की जिंदगी बदली कर सकता है, जरूर करे लेकिन उनका धर्म नहीं।

 5.

इस प्रकार किसी भी तर्क पर किसी के भी धर्म परिवर्तन को खारिज कर दिया।  उन्होंने मिशनरियों द्वारा चलाये जा रहे मिथ्या अफवाहों को यह कह कर खारिज कर दिया कि किसी का भी धर्म परिवर्तन उस व्यक्ति के प्रति केवल हिंसा नहीं है बल्कि यह कार्य धर्म की आधारभूत मान्यताओं के खिलाफ है जिसका आधार ही यह है कि सब धर्म एक समान हैं। जिसका मूलभूत आधार यही है कि सब एक ही समान सत्य हैं और सब उसी एक ही देवतुल्य सत्य की ओर ले जाते हैं। और अगर सब धर्म समान हैं तब फिर धर्म परिवर्तन सिर्फ अनावश्यक ही नहीं बल्कि पागलपन है। यह केवल एक व्यक्ति के लिए ही नहीं बल्कि उस समाज के लिए भी हानिकारक है जिसमें ऐसी घटनाएँ घटती हैं।

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शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020

सूतांजली अक्तूबर 2020

 सूतांजली के अक्तूबर अंक का संपर्क सूत्र नीचे दिया है।

संपर्क सूत्र (लिंक):

URL -> -> https://sootanjali.blogspot.com/2020/10/blog-post.html

 

इसमें निम्नलिखित विषयों पर चर्चा है:

१। चार्ली चैपलिन की फिल्म “द ग्रेट डिक्टेटर

कुछ समय पहले चार्ली चैपलिन की फिल्म “द ग्रेट डिक्टेटर” का एक दृश्य व्हाट्सएप्प पर बहुत साझा किया गया। लेकिन क्या आप इस प्रसिद्ध फिल्म के पर्दे के पीछे की कहानी और इसका महत्व जानते हैं? .......

२। धर्म क्यों?

धर्म हमें बहुत परेशान करता है और दुखी भी। लेकिन फिर भी धर्म स्थापित है। क्यों? क्या जरूरत है धर्म की? क्यों यह आवश्यक है? .......

 

सूतांजली के आँगन में के नाम से ज़ूम मीटिंग की सूचना और अपने सुझाव देने का अनुरोध।

आगे पूरा पढ़ें -> संपर्क सूत्र (लिंक): ->

 

URL -> -> https://sootanjali.blogspot.com/2020/10/blog-post.html

 

शुक्रवार, 25 सितंबर 2020

बदलो दुनिया को

जरूरत है

“एक खतरनाक जोखिम भरी यात्रा के लिए युवाओं की जरूरत है। यात्रा में हड्डियों को जमा देने वाली ठंड मिलेगी। महीनों तक पूर्ण अंधकार में रहना पड़ सकता है। यात्रा के दौरान पग-पग पर खतरों की संभावना है और सही-सलामत वापस आने में संदेह है। वेतन नाममात्र का ही मिलेगा। अगर यात्रा में  सफलता मिलती है तो सम्मान और प्रतिष्ठा मिलेगी”।

 

अर्नेस्ट शक्कलेटोन

यह इश्तिहार एक शताब्दी से पहले एरनेस्ट शक्क्लेटोन ने दिया था; 1914 में अंटार्कटिका की यात्रा के लिए नाविकों और साथियों के लिए। एरनेस्ट अपनी जोखिम भरी समुद्री यात्राओं के लिये जाने जाते हैं।

                                                     उम्मीदवार चाहिए

रिक्त स्थान के लिए उम्मीदवारों की आवश्यकता है। काम 24x7x365 है, बिना किसी छुट्टी के। भोजन के लिये भी अवकाश नहीं। काम के बीच ही समय निकाल कर भोजन करना है। कार्य पर सबसे पहले आप आएंगे और सब के बाद जाएंगे। रात-बिरात भी काम पर बुलाया जा सकता है। कोई रविवार, त्यौहार या छुट्टी नहीं। बल्कि ऐसे दिनों पर काम का दबाव ज्यादा रहेगा। अपना काम प्राय: खड़े खड़े  ही करना है। आपकी अपनी न कोई टेबल होगी न कुर्सी, न एयर कंडिशन होगा, न पंखा। और वेतन? कुछ भी नहीं। पूरा कार्य बिना किसी वेतन के। काम किसी भी प्रकार का हो सकता है जैसे साफ-सफाई का, पकाने का, बच्चों, वृद्धों, युवाओं को संभालने का। बच्चों को पढ़ाने का, बाजार जाने का, सामाजिक उत्सवों को मनाने का, त्योहारों को याद रखना और उनकी तैयारी करने का। इसके अलावा और कुछ भी जिसकी जब जैसे जरूरत पड़ जाये”

 व्हाट्सएप्प पर इसकी काफी चर्चा हुई है, आपने भी देखा ही होगा। जब उम्मीदवारों ने कहा ऐसा सिरफिरा तो कोई हो ही नहीं सकता। तो उन्हें बताया गया कि विश्व में अपने मन से ऐसा काम करने वालों की संख्या करोड़ों में है। तो लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ। तब कहा गया, ये और कोई नहीं आपकी माँ है ऐसी माताएँ दुनिया भर में हैं और निरंतर अपने कर्त्तव्य का निर्वाह पूरी ज़िम्मेदारी और निष्ठा से कर रही हैं।

 

जरूरत है बच्चे, जवान, बूढ़े, स्त्री, पुरुष, अनपढ़ या पढ़े लिखे सबों की

“केवल वे ही आयें जो अपना सर्वस्व स्वाहा करने को तैयार हों। सगे-संबंधी, धन-संपत्ति, सुख-चैन और तो और अपनी जान भी देने को तैयार हों। आपको केवल देना ही देना है, मिल सकती है जेल, लाठी, गोली या मौत। भाग्यशाली होंगे तब हो सकता है स्वतन्त्रता मिल जाये। वैसे स्वतन्त्रता का मिलना निश्चित है लेकिन यह निश्चित नहीं कि आपके जीवन काल में मिले”।  

 यह था गांधीजी का आवाहन, उनके सत्याग्रह में शरीक होने के लिए। और उनके आवाहन पर देश के करोड़ों लोग उनके साथ हो लिये थे।

 

विद्यालय में प्रवेश के लिए आवेदन

“यह शिक्षा केंद्र पूर्ण रूप से आवासीय है जिसमें छात्र-छात्राओं की शिक्षा, आवास व भोजन पूर्णत: नि:शुल्क है। शिक्षा का माध्यम अँग्रेजी है। शैक्षणिक सत्र हर वर्ष.......... से प्रारम्भ होता है तथा केवल 6 से 12 वर्ष तक की आयु के बच्चों को ही प्रवेश दिया जाता है।

          यह केंद्र पूर्ण शिक्षा प्रदान करने तथा व्यक्ति के सर्वांगीण विकास के लिए समस्त साधन प्रदान करने की अभीप्सा रखता है। जो अभिभावक अपने बच्चों के लिए सरकारी प्रमाण-पत्र, डिग्री व डिप्लोमा की आकांक्षा नहीं रखते अपितु उनकी सत्ता के केंद्रीय सत्य के अनुरूप उनके पूर्ण व सर्वांगीण विकास की अभीप्सा रखते हैं और अपने बच्चों को इस शिक्षण संस्था में प्रवेश दिलाने के इच्छुक हैं, वे पूरी जानकारी  के साथ निम्नलिखित पते पर संपर्क करें: ............”

 

यह इश्तिहार मैंने आज सुबह  श्री अरविंद सोसाइटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका  अग्निशिखा में देखा। यह शिक्षा केंद्र लगातार साल-दर-साल आदमी को इंसान बनाने में लगा हुआ है।  

 मैं यह सब क्यों लिख रहा हूँ? केवल आपके ध्यान में यह लाने के लिए कि इस दुनिया में ऐसे सिरफिरे लोगों की कमी नहीं जिनकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। लेकिन ये ही वे लोग हैं जो दुनिया को बदलते हैं। यह बात भी समझ आई कि हमें ज्यादा बच्चे क्यों चाहिये? पहला बच्चा तो हमें खुद अपने लिये चाहिये। देश-समाज को हम कैसे देंगे, किसे देंगे? कौन बदलेगा दुनिया को? कौन करेगा प्रशस्त भविष्य की मंजिल को?

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शुक्रवार, 18 सितंबर 2020

“मैं अज्ञानी हूँ” - पीटर डी. औसपेन्सकी

“दुनिया में वह क्या चीज़ है जिसे देते सब हैं लेकिन लेता कोई नहीं?”

“सलाह, दी खूब जाती है, लेता कोई भी नहीं”

हम सब एक दूसरे को सलाह देने के लिए तैयार बैठे हैं लेकिन लेने के लिए नहीं, क्योंकि हमें इस बात का अभिमान है कि हम जानते हैं। इंतिहा तो इस बात की है कि जो सलाह दी जाती है, उस पर हम खुद भी आचरण नहीं करते। कहीं आप भी ऐसे ही लोगों में हैं? सलाह देने के बजाय उस पर खुद आचरण करें, लोग आचरण देखेंगे, सलाह नहीं सुनेगें। ईमानदार बनें, यह स्वीकार करें कि हम अज्ञानी हैं, तभी कभी ज्ञानी हो सकते हैं।

 रूस के निवासी, पीटर डी. औसपेन्सकी, ने अनेक पुस्तकें लिखी हैं। उन्हें विश्व गूढ़ और आध्यात्मिक ज्ञान के अग्रणी जानकार, चिंतक, विचारक (esotericist) के रूप में जानता है। रूस, लंदन, अमेरिका में जब उनकी 

पीटर डी औसपेन्स्की 
वक्तृता आयोजित की जाती थी तब उन्हें सुनने के लिए अपने समय के जाने माने वैज्ञानिक, चिंतक और बुद्धिजीवी वर्ग इकट्ठे हो जाया करते थे। उनके गुरु थे जॉर्ज गुरजिएफ; बहुत ही गरीब, दुनिया में उन्हें कोई नहीं जानता। बड़े ही अजीब किस्म के इंसान जिन्हें बर्दास्त करना हर किसी के लिए संभव नहीं था।

 

इन दोनों को छोड़ एक बार हम थोड़ी चर्चा कर लेते हैं स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु श्री रामकृष्ण परमहंस की। ये दोनों महान विभूतियां परिचय की मोहताज़ नहीं हैं। साथ ही हम यह भी समझते हैं कि बिना विवेकानंद के, शायद, परमहंस इतिहास के पन्नों से गायब हो जाते। दुनिया का रामकृष्ण परमहंस से परिचय कराने का श्रेय स्वामी विवेकानंद को ही है। ठीक ऐसे ही गुरजिएफ से दुनिया को परिचित कराने का श्रेय उनके शिष्य पीटर डी. औसपेन्सकी को ही है।

 

श्री रामकृष्ण परमहंस एवं स्वामी विवेकानंद 

एक बार औसपेन्सकी अपने गुरु गुरजिएफ से मिलने पहुंचे। गुरु ने बेवजह उनसे कई दिनों तक मुलाक़ात नहीं की। कुछ दिनों बाद, जब वे औसपेन्सकी से मिले तो गुरु ने शिष्य को एक कोरा कागज़ और एक पेंसिल पकड़ा कर कहा, “इस पन्ने के एक तरफ यह लिख दो जो तुम जानते हो और दूसरी तरफ जो तुम नहीं जानते हो”। इसके साथ ही उन्होंने उसे यह भी बताया कि वे ऐसा इसलिए चाहते हैं क्योंकि जिन विषयों की उसे जानकारी है उसकी चर्चा नहीं करनी है क्योंकि उन्हें तो वह जानता ही है, अत: जिन विषयों के बारे में उसे जानकरी नहीं है केवल उसी की चर्चा करेंगे। औसपेन्सकी ने कागज़ और पेंसिल ले ली और विचार किया कि पहले वह लिखा जाये, जिसकी उन्हें जानकारी है। लेकिन यह क्या, वे घंटों बैठे रह गए, सर्द रात में भी पसीने से भीग गए, आसमान देखते रहे लेकिन कुछ भी विषय नहीं लिख पाये। किसी भी बात का ख्याल आता, जिस पर उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखी थी, व्याख्यान दिये थे, जिसे मनीषीजन भी पागलों की तरह उन्हें घेरे रहते थे, उसके बारे में भी उन्हें लगा कि वे नहीं जानते हैं। आखिर उन्होने गुरु को कोरा पन्ना ही लौटा दिया। गुरु ने देखा तो बड़े आश्चर्य से पूछा, “क्या बात है? तुम्हारी तो बड़ी धूम है, अनेक पुस्तक और ग्रन्थ तुमने लिखे हैं, फिर यह खाली पन्ना क्यों?” औसपेन्स्की कोई जवाब नहीं दे पाये, सिर्फ इतना ही कहा, “मैं अज्ञानी हूँ, यहीं से बात शुरू करें”। तब गुरु ने कहा, “यह अच्छी बात है। मैं यही समझ रहा था कि तुम्हें अपने ज्ञान का कितना अभिमान है। अगर ज्ञान का कोई अभिमान नहीं हैं, अगर यह मानते हो कि अज्ञानी हो, तब चर्चा हो सकती है”

 

जॉर्ज गुरजिएफ 


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मधुसंचय से प्रेरित 

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शुक्रवार, 11 सितंबर 2020

७ सामाजिक पाप

स्टीफन कोवे का नाम आपने जरूर सुना होगा। जी हाँ, अपनी पुस्तक “द ७ हैबिट्स ऑफ हाइली इफेक्टिव पीपल” के लेखक। इस पुस्तक की करोड़ों प्रतियाँ बिकीं। लेखक ने इस पुस्तक में तरक्की करने के गुर बताए हैं। 

कितने लोगों की जिंदगी में इसके कारण बदलाव आया इसका कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है लेकिन स्टीफन की जिंदगी बदल गई। इस पुस्तक के दशकों पहले किसी ने ७ सामाजिक पाप की चर्चा करते हुए लिखा कि हर मनुष्य को, संस्था को इन ७ पापों से बचना चाहिए। ये भी तरक्की के ही उपाय थे। उन्हों ने जिन ७ पापों से बचने के लिए कहा था वे थीं:

१। सिद्धान्त के बिना राजनीति

राजनीति से मिली शक्ति के द्वारा जनता का सर्वांगीण विकास किया जाना चाहिए। बिना सिद्धान्त की राजनीति में राजनीतिज्ञ और बड़े व्यापारियों के मध्य एक अनौपचारिक गठबन्धन और समझौता होता है जो उनके आपसी विकास और सुरक्षा का ही ध्यान रखता है। इससे निर्बल और गरीब जनता की  अनदेखी होती है।

२। कर्म के बिना धन

बिना मेहनत के आये हुए धन को स्वीकार नहीं करना। भ्रष्टाचार तथा अनुचित कार्यों से कमाया धन इसी श्रेणी में आता है। बिना कर्म के धन एकत्रित करने की होड़ में ही अनैतिकता का जन्म  होता है।

३। आत्मा के बिना सुख

दूसरों को दुख देकर पाया गया सुख पाप है। आंतरिक अनुशासन से आती आवाज के अभाव में प्राप्त सुख सिर्फ भोग-वासना है।

४। चरित्र के बिना ज्ञान

बिना चरित्र के ज्ञान भी पाप की ही कोटी में गिना जाता है और कलंक का भागी होता है। व्यापारिक संस्थानों द्वारा मानवीय ज्ञान (ह्यूमेन कोटेंट) के बदले बौद्धिक ज्ञान (इंटेलिजेंस कोटेंट) को दी जाने वाली प्राथमिकता का ही यह नतीजा है कि मानवीय चरित्र का ह्वास हुआ है और शिक्षा संस्थानों में भी उसे ही प्राथमिकता दी जाने लगी है। फलस्वरूप ऐसी संस्थानों ने रुपये बनाने की मशीनों का ज्यादा निर्माण किया है, मानवों का कम।  

५। नैतिकता के बिना व्यापार

आवश्यकता से अधिक नफा लेने वाला दुकानदार अगर किसी ग्राहक के छूटे समान को वापस भी करता है तो वह नीतिवान की श्रेणी में नहीं आता। जमाखोरी, डकैती का ही प्रारूप है। निजी और व्यापारिक नैतिकता अलग अलग नहीं हैं। नैतिकता का त्याग कर व्यापार करने की नीयत में ही भ्रष्टाचार पनपता है।

६। मानवीयता के बिना विज्ञान

मानवता को नजरंदाज करने वाला विज्ञान भी राक्षसी ज्ञान ही है। विज्ञान का प्रयोग अमीरों के बजाय गरीबों की सुविधा के लिए निर्माण का दृष्टिकोण ही मानवीय दृष्टिकोण है। ध्येय मानव के लिए मशीन (मशीन टु बी फिट फॉर मैन) होना चाहिए मशीन के लिए मानव (मैन टु बी फिट फॉर मशीन) नहीं। शिक्षण संस्थाओं को भी यही दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

७। त्याग के बिना पूजा

त्याग, पूजा का अभिजात्य अंग है। बिना त्याग के पूजा कर्मकांड ही है। पूजा का उद्देश्य एक ही है – सब का उत्थान यानि सर्वोदय।  सरकार द्वारा प्रचारित सामाजिक उत्तरदायित्व भी एक छलावा ही है। कई बार देखा गया है कि दान-धर्म देने वाले व्यापारिक संगठन इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि इस मद में उनके द्वारा खर्च किया गया रुपया किस तरह उनके हित में ही हो। जब कभी, जहां कहीं उनके मुनाफे और त्याग का आमना सामना हुआ है त्याग का ही त्याग किया गया है। एक बहुत बड़ी बहुराष्ट्रीय संस्था ने, जिसकी एक वैसी ही बहुराष्ट्रीय लोकोपकारी (फिलन्थ्रोफिक) सहयोगी संस्था भी है, अपने उत्पादन के लिए जमीन से बड़ी मात्रा में पानी निकालना प्रारम्भ किया। जिसके फलस्वरूप 17 जिलों में पानी की कमी होने लगी और अकाल के लक्षण दिखने लगे। जब उन जिलों की निगम ने उनका ध्यान इस तरफ खींचा तब संस्थान ने निगम से साथ मिलकर कार्य करने का ही त्याग  किया और कानूनी कार्यवाही कर निगम को रोकने को  ही अपना फर्ज़ समझा।

इन सात पापों के प्रतिपादक थे बापू। सिर्फ ध्येय का महान होना ही पर्याप्त नहीं है, उसकी प्राप्ति का मार्ग भी महान होना आवश्यक है। ये दोनों आपस में उसी प्रकार जुड़े हुए हैं जैसे बीज और वृक्ष। अगर मुझे आपकी घड़ी पसंद है और मुझे वह चाहिए तो मैं उसे आपसे छीन सकता हूँ, आपसे खरीद सकता हूँ या आपसे देने का अनुरोध भी कर सकता हूँ। इस प्रकार वह घड़ी मेरी द्वारा हथियाई भी हो सकती है, खरीदी हुई भी हो सकती है और मुझे उपहार में मिली हुई भी हो सकती है। हमारे द्वारा अख्तियार किया गया रास्ता ही हमारे भविष्य का निर्माण करता है।

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