शुक्रवार, 29 जनवरी 2021

काम या नाम

आज हर कोई, हर संस्था, राजनीतिक दल हो या राजनीतिक संगठन। सामाजिक कार्यकर्ता हों या सामाजिक संस्था। सामाजिक आंदोलन के प्रणेता या धार्मिक संस्थान, सब हिमालय जैसी भूलें कर रहे हैं, पर इनमें से एक भी अपनी गलती मानने को तैयार नहीं।

इन सब से अलग एक व्यक्ति था, इन सब से अलग था, अनूठा था। जो बातें उन्हें अलग और अनूठा  बनाती थीं, वे थीं:

१। उन्हें मृत्यु का भय नहीं था,

२। पराजय का भय नहीं था,

३। कहीं कोई उन्हें मूर्ख न मान ले – इसका डर नहीं था,

४। सबसे महत्वपूर्ण बात, उन्हें अपनी गलती स्वीकार करने में डर नहीं लगता था।

इनके अलावा एक और विशिष्ट बात थी – कड़ुवे सच सुनने और समाज को कड़ुवे सच सुनाने का साहस था।

आज इन बातों को अगर हम मापदंड के तौर पर लें और पूछें कि कौन है जो इन मापदंडों पर खरा उतरता है, तो बहुत कम लोग मिलेंगे। यही हमारी सबसे बड़ी कमजोरी है। इसे हम चाहे कुछ भी नाम दें, शक्ति कहें, ताकत कहें, आदत कहें या तकनीक कहें या कुछ और। उस व्यक्ति का नाम बताऊँ तो शायद आपके मुंह: का स्वाद खराब हो जाएगा। क्योंकि दुष्प्रचार, भ्रामक और झूठी बातें फैला कर सोशल मीडिया और खुद गर्ज़ लोगों ने हमारे दिल में उनके लिए नफरत भर दिया है। लेकिन कोई उनसे पूछे कि अगर ऐसा ही था तब, जब वे थे, पूरा भारत उनके पीछे क्यों चला, पूरा विश्व उनका लोहा क्यों मानता था, बिना कोई प्रश्न किए? खैर, अभी मुद्दा कुछ और है। वैसे भी, आप समझ ही गए होंगे मैं जिनकी बात कर रहा हूँ वे थे मोहनदास करमचंद गांधी।

हमें जब भी किसी राजनीतिक दल, राज्य या केंद्र सरकार की किसी गलती को खोज निकालने में मजा आए तो हमें खुद से भी पूछ लेना चाहिये क्या इस गलती को करने में हमारी अपनी भी कुछ भूमिका थी?’ हम ऐसा नहीं करने वाले। और राजनीति में जो लोग हैं, वे भी हमसे ऐसा करने को कहने वाले नहीं।  कोई यह कहने को तैयार नहीं कि मैं हारूँ तो हारूँ, मैं अपना स्नेह लुटा दूँ तो लुटा दूँ लेकिन मैं सच जरूर कहना चाहता हूँ। एक आम नागरिक  की तरह भी हमने अपने देश को नीचा दिखाया है – यह आज कोई कहने को तैयार नहीं। लेकिन इसके विपरीत इस पीड़ा को, इस दर्द को, इस घाव को दूर करने के लिए कई लोग ठोस काम कर रहे हैं। वे अपने आप को गांधीवादी नहीं बताते हैं। पर वे काम कर रहे हैं। उनकी संख्या कम है। उनके नामों से भी हम परिचित नहीं हैं। गांधी का जो भी काम देश में हो रहा है, वो खासकर उन्हीं लोगों से हो रहा है जो कि अपने काम को गांधी का नाम नहीं दे रहे हैं। उन्हें नाम से मतलब भी नहीं है। उन्हें केवल काम से मतलब है और वे सिर्फ अपने काम में रत हैं।

अब कुछ नाम और काम प्रकाश में आए हैं लेकिन उनकी चर्चा कहीं नहीं है। सुहासिनी माइती ने भीख मांग कर हयूमैनिटी अस्पताल खड़ा कर दिया, हरेकाला हजब्बा  ने संतरे बेच कर प्राथमिक विद्यालय की  स्थापना की,  बिहार के बेतहारवा गाँव में स्वाधीनता के बाद से आज तक न एक भी एफ़आईआर दाखिल हुई और न ही कोई केस दर्ज हुआ, अनेक सरकारी अधिकारी स्थानांतरण के जुल्म झेलते रहे लेकिन सत्य से नहीं डिगे,  नदिया जिले के अभयनगर में प्राथमिक विद्यालय के प्राध्यापक ने रोज पूरे गांववासियों को राष्ट्रगान पर सब काम छोड़ कर खड़े होने की प्रेरणा दी। इनमें से कोई भी नाम के पीछे नहीं गया, ये सब काम के भूखे हैं, इनमें एक जज़बा है। और सबसे खास बात ये है कि ये समाज के उस तबके से हैं जिन्हें हम कमजोर वर्ग का मानते हैं। उनपर न हमारी नजर पड़ती है और न हम उनकी परवाह करते हैं। दुनिया में जो थोड़ी बहुत अच्छाई बची है, इंसानियत बची है, वह शायद ऐसे ही लोगों के कारण बची है जो काम में विश्वास रखते हैं। वे न नाम की परवाह नहीं करते और न ही संसाधनों का इंतजार।  वे बिना किसी संसाधन के, अपने आप में समस्त  संसाधनों से युक्त पूर्ण संस्थान हैं। 

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शुक्रवार, 8 जनवरी 2021

डॉ एल पी तेस्सीतोरी

 विदेशी मनीषियों, साहित्यकारों, विद्वानों का हमारी संस्कृति, आस्था, साहित्य और भाषा के क्षेत्र में अप्रतिम योगदान रहा है। उनके यात्रा विवरणों से विश्व को हमारे एवं हमें अपने इतिहास, देश-काल, संस्कृति, सभ्यता  और समाज का पता चलता है। इसके अलावा हमारे कई अनमोल ग्रन्थों का भी उन्होंने ही उद्धार किया है । इसमें एक नाम है जर्मनी के श्री मैक्स मुलर का। हम यह जानते हैं कि हमारे वेदों को विलुप्त होने से बचाने में मैक्स मुलर का ही हाथ था। ये मैक्स मुलर ही थे जिनके प्रयास से विलुप्त होते हमारे चारों वेद प्रकाश में आये, उनकी छपाई हुई तथा अनेक भाषाओं में उनका अनुवाद भी हुआ। इस प्रकार ये हमारे अनमोल आधारशिला ग्रंथ विलुप्त होने से बचे।

 ऐसे ही इटली के भाषाविद थे डॉ एल पी तेस्सीतोरी। इटली में ही रहते हुए उन्होंने रामायण और राम चरित मानस पढ़ा, उसका अध्ययन किया और फिर ग्रियर्सन के अनुमोदन पर कोलकाता के एशियाटिक सोसाइटी में आये। यहाँ आकार उन्होंने राजस्थानी भाषा पर काम प्रारम्भ किया। राजस्थानी सीखी और राजस्थान को अपना कर्म क्षेत्र बनाया। विपरीत हालातों और मौसम की परवाह न कर ऊंटों पर सवारी कर पूरे राजस्थान का भ्रमण किया और दूर-दराज के गाँव-गाँव में घूम-घूम कर राजस्थानी साहित्य की पांडुलिपियाँ जमा कीं, उनको छपवाया और अन्य भाषाओं में  उनका अनुवाद भी किया और करवाया। उन्हीं के प्रयास से राजस्थानी के अनेक ग्रंथ विलुप्त होने से बचे।

 डा. तेस्सितोरी का संक्षिप्त परिचय – 13 दिसम्बर 1887 को इटली के उदीने शहर में जन्मे डा. तेस्सितोरी करीब 100 साल पहले भारत आए थे। 1910 में विदेशी भाषाओं के प्रति रुचि रखने वाले तेस्सितोरी ने फ्लोरेंस विश्व विद्यालय से संस्कृत में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। वे भारत में रहकर राजस्थान के राजपुताना के इतिहास को 1914 में लिपिबद्ध किया। इस प्रयास में भाषाविद जार्ज ग्रियर्सन ने भाषाई सर्वेक्षण कराने के लिए उन्हें भारत आमंत्रित किया था। उन्होंने तेस्सितोरी को तत्कालीन एशियाटिक सोसाइटी के स्कालर के तौर पर राजपुताना की भाषाओं पर शोध करने के लिए आमंत्रित किया था। तब कोलकाता देश की सांस्कृतिक व बुद्धिजीवियों का शहर माना जाता था। तेस्सितोरी ने जयपुर, जोधपुर व बीकानेर को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाया तथा गहरी मेहनत के साथ ही इन्हें सोसाइटी में लिपिबद्ध किया। सोसाइटी ने इनमें से काफी तथ्यों का सिलसिलेवार प्रकाशन करवाया जिसमें तेस्सितोरी की हस्तलिपी भी संरक्षित है।

ग्रिर्यसन का तेस्सितोरी पर निर्भता इसी बात से समझा जा सकता है कि फ्लोरेंस यूनिवर्सिटी के विद्वान ने संस्कृत, प्रकृत व पाली में शीर्ष डिग्री प्राप्त की। उन्होंने न केवल रामयाण पढ़ी बल्कि संस्कृत में लिखे बाल्मिकी रामायण तथा अवधी में तुलसीदासकृत राम चरित मानस के तुलनात्मक अध्ययन पर शोध कर शोध पत्र भी लिखा। तेस्सितोरी ने राजपुताना की भाषा व संस्कृति के विकास क्रम को लिपिबद्ध किया। राजस्थान में उनके महत्व को इसी बात से समझा जा सकता है कि राजस्थान की कई सड़कों व संस्थानों का नामकरण उनके नाम पर हुआ है। उन्होंने राजस्थान प्रवास के दौरान, यहाँ न केवल सघन दौरा किया, बल्कि तपते रेगिस्तान तथा झुलसा देने वाली धूप की भी परवाह किए बगैर राजस्थानी भाषा व संस्कृति के विकास व समृद्धि के लिए काम किया। हालकृत सतसई, नासकेतरी कथा, इंद्रिय पराजय शतकम और आजाद वक्त की कथा आदि कृतियों का इतालवी भाषा में अनुवाद करके जहाँ, वहाँ के लोगों को भारतीय साहित्य से परिचित कराया, वहीं इतालवी साहित्य की भी श्री वृद्धि करके अपनी मातृभाषा की सेवा भी की।

मात्र 32 वर्ष की अल्पायु में 22 नवंबर 1919 को बीकानेर में माँ भारती का यह चितेरा उसकी गोद में सदा के लिए सो गया। बिकानेर के राजकीय संग्रहालय के प्रांगण में उनकी मूर्ति लगी है और इसी के नजदीक कब्रगाह में उनका मकबरा सुरक्षित है।

राजस्थानी प्रचारिणी सभा, दी एशियाटिक सोसाइटी के साथ हर वर्ष डा तेस्सितोरी की याद में व्याख्यान का आयोजन करती है। इस वर्ष यह आयोजन शनिवार, 9 नवंबर को संध्या 7.00 बजे से ज़ूम पर आयोजित है जिसमें उदीने, इटली के भाषाविद भी भाग ले रहे हैं। कार्यक्रम की पूरी जानकारी तथा ज़ूम सभा की पूरी सूचना नीचे संलग्न है। हम ऐसी सभाओं में उपस्थिती दर्ज करा कर अपनी जानकारी बढ़ा सकते हैं साथ ही इससे आयोजकों का उत्साहवर्धन भी होता है। अत: प्रयत्न कर इस आयोजन का हिस्सा बनें।

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राजस्थानी प्रचारिणी सभा एवं दी एशियाटिक सोसाइटी आपको आमंत्रित करती है ज़ूम सभा में

विषय : डॉ. एल पी तेस्सितोरी  - व्याख्यानमाला 2020

समय : शनिवार, जनवरी 9, 2021, 07:00 संध्या, कोलकाता, भारत

 ज़ूम सभा का लिंक

https://us02web.zoom.us/j/6106781034?pwd=ZkwzNHU1SytvaXBlV3dKSmFBWjVPZz09

 सभा संख्या : 610 678 1034

पासकोड : tessitori

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शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

सूतांजली, जनवरी २०२१

 सूतांजली के जनवरी अंक का संपर्क सूत्र नीचे है:-

इस अंक में कई विषयों पर चर्चा है:

१। ध्यान कैसे करें?

कैसे करें, से पहले यह समझें कि ध्यान क्या है और क्यों करना है। अगर यह क्या और क्यों समझ आ जाए तो कैसे बेहद सरल हो जाता है।

२। बोध कथा

क्या होती हैं बोध कथाएँ’? क्या उद्देश्य होता है इन कथाओं का? कहाँ मिलेगा बोध कथाओं का खजाना? क्या सम्पर्क है इनका हमारी भाषा, सभ्यता और संस्कृति से? इन सब के उत्तर आपको मिलेंगे एक ही पुस्तक में। पढ़ें-पढ़ाएँ, सुने-सुनाएँ और पुस्तकालयों में बांटें।

३। जनसम्पर्क

जीवन में सफलता के लिए, लोक प्रिय बनने के लिए यह आवश्यक है कि आपका जनसम्पर्क मजबूत हो। कैसे बनाएँ ये जनसम्पर्क?

४। कारावास की कहानी

पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल बंद में थे। जेल के इस जीवन का, श्री अरविंद ने कारावास की कहानी के नाम से, रोचक वर्णन किया है। अग्निशिखा में इसके रोचक अंश प्रकाशित हुए थे। इसे हम इस माह से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। यहाँ इसका पहला अंश है।

संपर्क सूत्र (लिंक): ->  https://sootanjali.blogspot.com/2021/01/blog-post.html

ब्लॉग में इस अंक का औडियो भी उपलब्ध है। 

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

आनंदोत्सव

(दांपत्य जीवन में पति-पत्नी के मध्य झगड़ा, विवाद होना लाजामी है, बल्कि होना ही चाहिए, अन्यथा जीवन समरस हो जाए। अत: झगड़िये, जरूर झगड़िये मगर ध्यान रहे ...... आगे खुद पढ़िये)  

विश्व के तमाम झगड़ों से एकदम परे होते हैं पति-पत्नी के झगड़े। हलके-फुल्के व्यंग्यों के प्रथम सोपान से आहिस्ता-आहिस्ता विवादों के विभिन्न सोपानों पर चढ़कर आत्मविश्वास के साथ लड़ने को तैयार। अभी-अभी ताजा लड़कपन लिये विवाह-सूत्रों में बंधे युवा दंपती झगड़ों के अभ्यस्त होने लगते हैं। परंतु क्या आप सहमत नहीं हैं कि तमाम पारिवारिक, सामाजिक और मैत्रिक झगड़ों से हटकर पति-पत्नी के झगड़े होते हैं? पता है कि (अधिकांश प्रकरणों में) ताउम्र साथ देना है, सहारा देना है, बच्चों का विवाह करना है, गम बांटना है, आँसू पोंछना है, बुखार में गीली पट्टी भी रखनी है, बुढ़ापे में धुंधली आँखों से ही सही सुई में धागा भी डालना है, बटन टंकवाना है फिर भी झगड़ता है, खूब झगड़ता है। जबान नियंत्रण खोयेगी, आँखें खूब रोएँगी, फिर जबर्दस्ती भूखे पेट ही आँखें बंद कर सोयेगी, लेकिन झगड़े तो होंगे ही। क्या है इन पति-पत्नी के झगड़े का मनोविज्ञान? किसी ख्यातनाम मनोवैज्ञानिकों या मनोचिकित्सकों की भारी-भरकम पुस्तकों या शोधों या सर्वेक्षणों का संदर्भ देना उचित ही नहीं है। क्योंकि जब पति-पत्नी के झगड़े विशाल आकार लेते हैं, तो ख्यातनाम पुस्तकें और मनोचिकित्सक बौने हो जाते हैं। भिन्न-भिन्न मानसिकता के भिन्न-भिन्न दम्पतियों के मध्य जब अस्त्र-शस्त्र चलते हैं, तो अच्छे से अच्छे मनोवैज्ञानिक या मनोचिकित्सकीय उपाय धराशायी हो जाते हैं और उत्तरोत्तर स्वयं दंपती ही काफी अनुभवी चिकित्सक हो जाते हैं। अपने दांपत्य जीवन को सुधारने हेतु आजमाये गए उपाय कभी दूसरे के दांपत्य जीवन हेतु आजमाए जाने का जोखिम नहीं उठाना ही हितकर है। पृथ्वी पर जिस प्रकार लोगों के चेहरे एक दूसरे से मेल नहीं खाते, कमोबेश विचारों की स्थिति भी इससे अलग नहीं है।   

प्यार है, दुलार है, फर्माइशों पर इकरार है, दिलों में स्नेह के तार हैं, फिर भी झगड़ों के अंबार हैं। बड़ी अबूझ पहेली है। इसके लिए मानसिक परिभाषाओं के साथ दैनिक परिभाषाओं की सूक्ष्मताओं को भी समझना होगा। केवल और केवल पति-पत्नी के मध्य दैहिक तरंगों का सर्वाधिक स्पंदन होता है। वैज्ञानिक तौर पर भी सिद्ध हो चुके प्रत्येक व्यक्ति के अपने-अपने आभामंडल और तरंग आवृत्त में सर्वाधिक घुसपैठ सिर्फ उसका जीवन साथी ही करता है। दैहिक चेतनाओं, ऊर्जाओं और तरंगों का यही मुक्त आदान-प्रदान पति-पत्नी का प्रेम ही नहीं, झगड़ों का भी मुख्य कारण है। देहों की यह एकात्मकता मानसिक तौर पर पति और पति में इतनी समरसता भर देती है कि आवेग और उत्तेजना के क्षणों में अंतर्द्वंद्व की ओर एकरूपकता की भावना से ही अपने प्रिय जीवन साथी के साथ झगड़ पड़ता है। कहीं-कहीं पति-पत्नी के बीच विचारों के फर्क की गहरी खाई है, लेकिन विवाद शून्य है। क्योंकि पति कितना ही गलत, व्यसनी और शौकीन हो, फिर भी पत्नी को चुप के विशाल पर्वत तले दबे रहने की सख्त हिदायतें बचपन से ही दी गई है, पराकाष्ठा उलांघती सहनशीलता की घुट्टी गले-गले तक पिलाई गई है। उसकी विरोध क्षमता शून्य नहीं, बल्कि माइनस में है और कहीं-कहीं पत्नी का दबदबा प्रभाव और स्टेटस इतना जबर्दस्त है कि पति की विरोध-शक्ति क्षीण है। दोनों ही परिस्थितियाँ ऋणात्मक हैं और ऐसे दम्पतियों की संख्या भी अल्प है। कुछ दंपती ऐसे भी होते हैं, जो झगड़ों के एडवेंचर से वंचित एक सरल रेखा में चलते-चलते बूढ़ा जाते हैं और चले जाते हैं।  

खैर! यहाँ तो मुद्दा अधिकांश दम्पतियों के मध्य पनपने वाले, पकने वाले, पूरे जोशो-खरोश से होने वाले झगड़ों को लेकर चल रहा है। किसी भी विरोधी नेता या राष्ट्र ने आज तक झगड़ों के शक्तिशाली दौर में जितने गड़े मुर्दे उखाड़े हैं, उतने तो एक सामान्य पति-पत्नी अपने झगड़ों के दौरान उखाड़ कर रख देते हैं। पति-पत्नी का रौद्रावतार और पुरुष का पौरुष चरम सीमा पर पहुँच जाता है और महान आश्चर्य तीन-चार दिनों पश्चात दोनों दुपहिया या चार पहिया वाहन पर ऐसे खिलखिलाकर हँसते-घूमते नजर आते हैं गोया कि भगवान ने दोनों की रचना खुश रहने के लिए की हो। यही है दो झगड़ों के बीच का आनंदोत्सव।  पता नहीं फिर किस मुद्दे पर, किस झूठे अहम पर अगला झगड़ा हो जाए। उसमें अनबन की यात्रा कितने दिनों की हो? मानसिक संत्रास के प्रहार कितने तीव्र हों? फिर शनै: शनै: उसकी तपिश ठंडक में तब्दील होगी, खोया हुआ आकर्षण और प्रखर होकर खड़ा होगा। मानसिक और दैहिक दूरियाँ कम हो जाएंगी। वाचा के उग्र बाण फूलों में रूपांतरित हो जाएंगे। एक तन और एक मन। कब तक? अगले विवाद तक और अभी वसंत ऋतु के कामदेव और देवी को लजा देने वाला वसंतोत्सव! आनंदोत्सव! दो झगड़ों के मध्य का आनंदोत्सव।

झगड़िए, फिर झगड़िए और जरूर झगड़िए, लेकिन आनंदोत्सव में प्रण कीजिये कि कोई भी झगड़ा उम्रभर के लिए आपको भीषण पश्चाताप या पछतावे में न धकेल दे। दांपत्य जीवन के झगड़ों को समस्त औजारों के मध्य भी तराशिए, मगर ऐसा दुर्लभ दांपत्य जीवन जलाइए नहीं, लेकिन यह समझाइश एक-दूसरे को दो झगड़ों के बीच अद्भुत आनंदोत्सव में ही दीजिये।

(श्री विवेक हिरदे की रचना, अहा जिंदगी से)

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शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

ये जीवन है ......

यह कोई कहानी नहीं, जीवन है। पति-पत्नी के चार सन्तानें थी। तीन पुत्र और एक पुत्री। पति ने बड़ी मेहनत की, चारों संतानों को किसी बात की कोई कमी नहीं होने दी। हैसियत से बढ़ कर चारों बच्चों को विदेशों में भेज उच्च शिक्षा दिलवाई। चारों को विश्व के चार अलग अलग देशों में, अमेरिका-इंग्लैंड-जर्मनी-फ्रांस भेजा। तीनों बेटों ने उच्च शिक्षा पाई, वहीं विवाह किया और वहीं बस गए यानि सेटेल हो गए। बेटी ने विवाह तो स्वदेश आकर किया लेकिन विवाह पश्चात वह भी विदेश ही चली गई और वहीं की होकर रह गई।

इधर अपने देश में पति-पत्नी सुख चैन से थे और अपनी सूझ-बूझ की चर्चा करते और संतानों पर गर्व।  पति के लिए धीरे-धीरे कारोबार का तनाव संभालना भारी पड़ने लगा। बच्चे वापस नहीं आना चाहते थे। पिता को व्यवसाय के तनाव झेलते देख, बच्चों ने व्यवसाय को बंद या कम करने की सलाह दी। लेकिन वैश्विक बाजार इसकी इजाजत नहीं देता। बंद करना ही एकमात्र विकल्प है। बच्चों की सलाह और व्यापार के तनाव के मद्देनजर पिता ने धीरे धीरे व्यवसाय समेट लिया। एक-एक कर वे सब बच्चों के पास रह आए। लेकिन कहीं टिक न सके। बच्चे चाहते थे कि पिता घर पर शांति से बैठे रहें और घर के काम संभाले। जिंदगी भर कर्मठ रहे पिता के लिए यह संभव नहीं था। घर के छुट-पुट काम करने में उन्हें असुविधा नहीं थी। लेकिन उसके बाद दिन भर चुप-चाप बैठे रहना, उद्देश्यहीन घूमना, टीवी देखना उन्हें रास नहीं आया। वे वापस लौट आये, अपने कर्म क्षेत्र में। लेकिन उनका मानसिक संतुलन बिगड़ने लगा। अकेलापन, उन्हें बार-बार अवसाद की तरफ धकेल देता था।

इसी बीच, एक रात, अचानक पत्नी को दिल का दौरा पड़ा और उसे तुरंत अस्पताल में भरती करना पड़ा। बाप ने एक-एक कर तीनों बेटों को फोन किया और तुरंत आने का अनुरोध किया। लेकिन तीनों ने मना कर दिया। एक को छुट्टी नहीं मिली, दूसरा कुछ समय पहले ही आ कर गया था, तीसरे की पत्नी गर्भवती थी। सभी के कारण अलग-अलग थे लेकिन बात एक ही थी, “प्लीज, किसी तरह आप संभाल लीजिये या बड़े-मँझले-छोटे को बुलवा लीजिये, मैं नहीं आ पाऊँगा”।  टूटे दिल से उसने बेटी को भी खबर की। खबर सुनते ही, पिता के मना करने पर भी बेटी-जवाँई दोनो तुरंत आ गये और जब तक पत्नी स्वास्थ्य लाभ कर वापस घर न आई वहीं साथ ही रहे। उन्हों ने सोचा,  बेटियाँ ही काम आती हैं? बेटियाँ ही प्यारी होती हैं? वाह रे बेटियाँ? लेकिन बात अभी समाप्त नहीं हुई है।

कुछ समय के अंतराल के बाद इसी घटना का पुनरावर्तन हुआ, पात्रों में थोड़े से उलट-फेर के साथ। इस बार बेटी के ससुराल से उसकी सास की तबीयत खराब होने की खबर गई, और एक बार आने की गुजारिश की गई। बेटे ने जाने का मन बनाया, और आने की बात भी कही। लेकिन पत्नी ने उसे तैयार कर लिया  व्यस्तता के कारण नहीं आ सकेंगे कहने के लिए और माता-पिता को खुद परिस्थिति संभालने के सलाह दे दी गई।  अपनी ही जिस बेटी पर साल भर पहले गर्व हुआ था, उसी बेटी का ही यह दूसरा रूप भी है।

(बेटों के इस व्यवहार के लिए कौन जिम्मेदार है? अगर हम अपनी संतान को विदेशों में भेज रहे हैं तो उसके पहले हमें खुद अपनी मानसिकता उस प्रदेश के जैसी बनानी चाहिए। इसमें बच्चों का कोई दोष नहीं है। हमने बच्चों को तो बदल दिया लेकिन खुद को बदल नहीं सके। यह भी नहीं समझ सके कि देश और विदेश की परिस्थितियों, मान्यताओं, संसाधनों में फर्क है।  हम यह मान कर चलते हैं कि भविष्य विदेशों में ही बनता है अपने देश में नहीं! यही नहीं हमने अपने माता, पिता, चाचा, ताउ, भुआ, भाई, बहन के बजाय सास, ससुर, साले, साली, मामा, मामी, दोस्तों को ज्यादा महत्व दिया। बच्चों ने जो देखा वही सीखा। फल मीठा होगा या कडुआ, वह तो बीज पर निर्भर करता है। जैसा बोया वैसा काटा। विचार बीज बोते समय करना है, फसल काटने के समय नहीं।)

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शुक्रवार, 11 दिसंबर 2020

संस्कार

 प्रिय ......,

इतना स्नेह भरा पत्र पढ़कर मन प्रसन्न हो गया। तुम दोनों ने याद किया, यही मेरी पूंजी है। दोनों के स्वर्णिम भविष्य के लिए हम सब की मंगल कामनाएँ।

 यह सच है कि स्मृतियाँ मीठी होती हैं। यह भी सच है कि ये मेरे वर्तमान को खाती हैं। ध्यान  रखना, जो कुछ भी करो, उसमें स्वयं को उपस्थित अनुभव करके करना। खाने की टेबल पर अनेक विचार दिमाग में चलते रहें और हमें पता नहीं चले कि खाना किसने खाया, हम तो वहाँ थे ही नहीं।

 आने वाले समय में तुम मानव शरीर का निर्माण भी करोगी। इसमें भी न मरने वाली आत्मा आकर रहने लगेगी। यह तुम्हारा दायित्व है कि तुम उस आत्मा को शरीर के साथ एकाकार कर दो। तभी उसके जन्म-जन्मांतर के अनुभव शरीर में प्रकट हो सकेंगे। वह महापुरुष बन सकेगा। उसके बिना केवल स्थूल शरीर का भोग करके चला जाएगा। तुम उसे जो चाहे बना सकती हो। अभिमन्यु की  तरह सीखकर, तैयार होकर, संस्कार पाकर ही बाहर आना चाहिए। माँ की फिर से विश्व में पूजा होने लगेगी। कहानियाँ, लोरियाँ सुनना, मीठी बातों से उसमें मिठास भर देना, ताकि बाँट सके।

 प्रसन्नता की बात है कि विशाल के विचार और उसका व्यवसाय तुम्हारे अनुकूल है। शुरुआत अच्छी है। आगे पति-पत्नी के रूप में तो तुम्हारा संकल्प ही काम आयेगा। इसे कमजोर मत पड़ने देना। नहीं तो केवल स्त्री-पुरुष रह जाओगे। दिल के बजाय दिमाग से व्यवहार करने लगोगे। यह गलती कभी मत करना। जीवन का मिठास दिल में होता है, दिमाग में नहीं।

 तुमलोग जब भी आओ, स्वागत है। तुम्हारे भाई-बहन-भाभियाँ सब तुमसे मिलकर प्रसन्न होंगे। सब कुशल है। आनंद से रहना। विशाल हृदय को मेरा स्नेह। ........

   (श्री गुलाब कोठारी की स्पंदन से)

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शुक्रवार, 4 दिसंबर 2020

सूतांजली दिसंबर, 2020

 सूतांजली के दिसंबर अंक का संपर्क सूत्र नीचे दिया है।

इस अंक में एक प्रश्न पर चर्चा है:

“मैं कौन हूँ?”

मैं कौन हूँ? यह एक शाश्वत प्रश्न है। अनादि काल से यह प्रश्न ऋषियों, मुनियों, संतों, चिंतकों, दार्शनिकों, मनोवैज्ञानिकों को मथता रहा है, भारत में ही नहीं पूरे विश्व में। अलग-अलग देश-काल में अलग-अलग लोगों ने अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर अपने अपने ढंग से इसका उत्तर दिया भी है। लेकिन  इनमें एक्य तो है ही नहीं विरोधाभास भी है। और यह प्रश्न आज भी जस-का-तस-खड़ा है।

इसका यह अर्थ नहीं है कि कोई भी इसका उत्तर ढूंढ नहीं पाया। अनेकों ने अपने अपने ढंग से इसे व्याख्यायित किया है। किसी एक की सुनें तो वही सटीक लगता है; लेकिन दो विरोधाभासी व्याख्या सुनें तो असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है। लेकिन दोनों ही अपनी अपनी जगह पर सही हैं; जब तक एक सर्वमान्य व्याख्या ढूंढ न ली जाये। आज हम इसी विषय पर कुछ विरोधी व्याख्याओं की चर्चा करेंगे।  

इस प्रश्न पर निम्नलिखित मनीषियों के विचार उद्धृत हैं: -

श्री अरविंद,

डॉ वेन डायर,

श्री जे.कृष्णमूर्ति, और

श्री सद्गुरु

 

संपर्क सूत्र (लिंक): -> https://sootanjali.blogspot.com/2020/12/2020.html