गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

मेरे विचार - हैल्थ इज़ बिग बिज्नेस

चिकित्सा एवं डेथ डान्स 

२००९ में हमने एक पुस्तक की शताब्दी मनाई थी । किसी व्यक्ति या संस्थान का  जन्मशताब्दी समारोह तो देखा - सुना  है, लेकिन किसी पुस्तक की  शताब्दी समारोह? गिने चुने पुस्तक को ही ऐसा सौभाग्य मिलता है। वह भी एक ऐसी पुस्तक जो आज भी उतनी ही विवादास्पद है जितनी प्रकाशन के समय थी।  और तो और न तब और न अब हम उस पुस्तक के विचारों को अमल करने  की  अवस्था में थे और न हैं। लेखक ने भी लिखा कि भारत अभी इसके लिए तैयार नहीं है। लेखक ने १२ वर्ष बाद १९२१ में पुस्तक में कई रद्दोबदल किए, लेकिन साथ ही उसने फिर से यही लिखा कि मूल रूप  से उनके विचारों में कोई परिवर्तन नहीं आया है, उन्हे इस बात का पूरा विश्वास है कि उनके बताए गए विचारों पर अगर अमल हो तो “स्वराज” स्वर्ग से हिंदुस्तान में उतरेगा लेकिन उन्हे लगता है कि ऐसा होना दूर की बात है। मैं मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा लिखी गई “हिन्द स्वराज” की बात कर रहा हूँ। आज १०० वर्षों के बाद तो भारत उससे और भी दूर चला गया है। क्या कभी ऐसा समय आएगा जब उस पर अमल करने लायक मन:स्थिति और परिस्थितियाँ तैयार होंगी? कम से कम अभी तो ऐसा नहीं लगता है। इस के लिए एक बड़े परिवर्तन एवं विशाल धैर्य की आवश्यकता है, और इन दोनों की  ही कमी  है। फिर भी मुझे एक क्षीण सी आशा दिखती है। शायद! शायद कभी ऐसा दिन आये जब जीडीपी का पैमाना आय पर आधारित न हो कर, पड़ोसी देश भूटान की तरह, “आनंद” हो तब शायद हमें इस पुस्तक की याद आए।
मुझे याद आ रहा है कवि रविन्द्र नाथ टैगोर का एक संस्मरण। १९२०। गर्मी का मौसम। अकाल की अवस्था। बंगाल के गावों  में पानी  की कमी। रविन्द्रनाथ गाड़ी में, जो उस समय एक दुर्लभ वस्तु थी, बंगाल के ग्रामीण इलाके  से गुजर रहे थे। गाड़ी में कुछ  खराबी आ जाने के कारण  गाड़ी में बार बार पानी  डालने की आवश्यकता थी। ऐसी अवस्था में ग्रामीणों  से, जहां पीने एवं सिंचाई के लिये ही पानी नहीं  था, गाड़ी के लिए पानी मांगने में संकोच होना स्वाभाविक  था। लेकिन  कोई चारा भी नहीं था। रवीन्द्र  नाथ को आश्चर्य हुआ जब सीधे सादे गरीब गाँव वालों ने, बिना किसी शिकन के, उनकी गाड़ी के लिए पानी की व्यवस्था की एवं उसके प्रत्युतर में कुछ  भी लेने से इनकार कर दिया। । ऐसा एक के बाद एक सब गाँवों में हुआ। गाँव वालों को किसी भी प्रकार की कमाई नहीं हुई। शायद उन्हे बाद में कष्ट भी हुआ हो। जीडीपी के आंकडों  में भी कोई वृद्धी नहीं हुई। लेकिन गाँव वालों को आनंद मिला। अगर जीडीपी का मापदंड आनंद होता तो उसमें वृद्धी होती। उधर रवीन्द्र नाथ के कष्ट का तो निवारण हो गया लेकिन साथ ही कुछ अनुभूति हुई।  शायद उन्हे भी ऐसे लोगों से मिल कर आनन्द मिला। इसी लिए उन्होने बाद में लिखा की यह देखने एवं समझने में बहुत ही सीधी सादी  और सरल सी बात लगती है लेकिन ऐसी सहजता के पीछे शताब्दियों की संस्कृति होती है, ऐसा आचरण सहजता से नहीं किया जा सकता। कुछ वर्षों की मेहनत से एक मशीन को चला कर कुछ मिनटों में   हजारों सुइयों में  छेद करना सीखा जा सकता है लेकिन ऐसी मेहमान बाजी सीखने में कई पीड़ियाँ  लग जाती हैं। क्या किसी भी आईआईटी, आईआईएम, ऑक्सफोर्ड या हारवर्ड में ऐसी शिक्षा दी जा सकती है? क्या यह सीखने के लिये हम कई पीढ़ियों का इंतजार कर सकते हैं? “हिन्द स्वराज” पर अमल करने के लिए ऐसे लोगों की ही आवश्यकता है।
एक बहुत खूबसूरत तितली की प्रजाति पाई जाती है। नाम है “डैथ डांस” तितली। ये किसी मृत जन्तु का ही भोजन करती हैं। मृत जन्तु की खबर मिलते ही समूह  में ये तितलियाँ, नर और मादा दोनों, जमा हो जाती हैं। फिर प्रारम्भ होता है उनका जश्न । मृत जन्तु के चारों तरफ घूमते हुए ये नृत्य करती हैं, नृत्य करते करते जोड़े बनते जाते हैं, समागम का दौर  चलता है, फिर भोजन और फिर अंडे। किसी निजी अस्पताल में डाक्टर और नर्सों के समूह को देखता हूँ तो मुझे ये तितलियाँ याद आ जाती हैं। ऐसा लगता है जैसे कोई मरीज निजी अस्पताल में असाध्य रोग से पीड़ित बेसुध पड़ा है। डाक्टरों को पता है कि अब इसकी उम्र ज्यादा नहीं बची है। फिर भी जीवन रक्षक प्रक्रिया को उस मरीज पर बार बार आजमाया जाता है – मसलन “कोड ब्लू” की प्रक्रिया यानि डाक्टर  एवं नर्सों  की  एक पूरी टीम जो मरीज को कृत्रिम श्वांस, स्टेरनम को दबाना, विभिन्न जीवन रक्षक दवाओं के सुइयां, मशीन से बिजली के झटके यानि कार्डियो-पलमानेरी रिसेसिटीओन आदि आदि। कृत्रिम रूप से भोजन एवं ऑक्सीज़न दे कर महीनों मरीज को “जिंदा” रखना। कई बार तो मृत मरीज पर भी सी पी आर का प्रयोग किया जाता है।  इन सब क्रियाओं को करने का कारण अस्पताल के बिल में  नजर आता है। मरीज का चाहे जो हो घर वाले तो उस बिल को चुकाते चुकाते मर लेते हैं। और उधर, दिवास्वप्न में देखता हूँ,  उस मरीज के बिस्तर के चारों तरफ डाक्टर, नर्स, एवं अन्य कर्मचारी जमा होते हैं और प्रारम्भ होता है उनका “डैथ डांस”।
आज अस्पताल, अस्पताल नहीं बड़ी कंपनियाँ हैं, जिनका  एक मात्र उद्देश्य पैसे कमाना है। “हेल्थ  इज बिग बिजनेस”। स्वास्थ्य एक बड़ा व्यापार है। उन अस्पतालों में  काम करने वाले डाक्टर, नर्स एवं अन्य कर्मचारी उस कंपनी के विक्रेता हैं। वे केवल उसी अस्पताल के लिए नहीं बल्कि दवा बनाने  वाली कंम्पनियों, निदान करने वाले केन्द्रों के भी विक्रेता हैं। और तो और डाक्टर और अस्पतालों के मध्य भी अलिखित साझेदारी है तथा एक दूसरे को अनुमोदित करने पर पैसों का लेन देन होता है। इन सबका एकमात्र उद्देश्य है ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाना। मुझे याद है, एक बड़े निजी अस्पताल में नामी डाक्टर से अपनी पत्नी के कान का ऑपरेशन कराने का निर्णय  लेने के बाद जब मैंने अपने बीमा एजेंट को, जो हमारे घर के सदस्य अनुरूप है, से  आवश्यक बीमा कार्यवाही करने के लिए फोन किया तो उसकी तुरंत प्रतिक्रिया थी,  अरे  भाई वो तो दुकान है, किसी अच्छे डाक्टर को दिखाओ। कान का ऑपरेशन आसान नहीं है।
टेलीग्राफ में प्रकाशित एक लेख के अनुसार भी जो मरीज  दवाओं से ठीक हो सकते हैं उनका भी आँख मूँद  कर बाइ-पास सर्जरी  कर दिया  जाता है या स्टंट  लगा दिया जाता है। रूटीन  तौर में  कराये जाने वाले ज्यादातर परीक्षण अनावश्यक हैं।
परिस्थितियाँ इतनी बदतर हो चुकी हैं की डाक्टर एवं जानकार मरीज “लिविंग विल” लिखने लग गए हैं जहां वे यह हिदायतें दे देते हैं – “ढू नॉट रिसेसिटेट – नो सी.पी.आर. – नो मकेनिकल वेंटिलेशन” स्वयं हस्ताक्षर करते हैं तथा परिवार के अन्य सदस्यों और पारिवारिक डाक्टर से हस्ताक्षर करवाते हैं। क्योंकि उन्हे भी यह डर है कि कहीं आज का “हेल्थ कॉर्पोरेट” रुपयों के चक्कर मे उन्हे एक खाट पर पड़ी जिल्लत भरी ज़िंदगी ना प्रदान कर दें। कहीं उन्हे कौमा में पड़े रहने के लिए मजबूर नहीं होना पड़े। कहीं वे उनके परिवार की अर्थ व्यवस्था की रीड़ की हड्डी न तोड़ दें। 
क्या ये बातें आपकी मानसिकता के अनुकूल हैं? गांधी ने अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में डाक्टरी का धंधा करने वालों  की कड़ी निंदा की है। डाक्टर एवं अस्पतालों को पाप की जड़ तथा अनीति को बढ़ावा देनेवाला बताया है। उन्हों  ने  लिखा है की ये केवल उनके अपने व्यक्तिगत विचार एवं अनुभव नहीं हैं बल्कि पश्चिम  के अनेक सुधारक भी यही मत रखते हैं। डाक्टर सेवा भाव से नहीं बल्कि  पैसे कमाने की ललक से बनते हैं। गांधी ने आगे लिखा कि डाक्टर इंसान ही नहीं पशुओं पर भी पाशविक अत्याचार करता है। जब ऐसा ही है तब भलाई का दिखावा करनेवाले डाक्टरों से खुले ठग-वैद्य (नीम-हाकिम) ज्यादा अच्छे  हैं। क्या आप इन तर्कों को पचा पाएंगे ? क्या हम हिन्द स्वराज के लिए तैयार हैं?
इसी संदर्भ में  मुझे बचपन में  बच्चों की पत्रिका चन्दामामा की एक लघु कथा याद आती है। एक गाँव में तीन भाई रहते थे। तीनों वैद्य थे। सबसे बड़ा भाई साधारण  वैद्य और सबसे छोटा भाई सबसे  प्रवीण माना जाता था। एक दिन एक ग्रामीण ने छोटे वैद्य से पूछ लिया, “आप सबसे प्रवीण वैद्य हैं , बड़ा भाई साधारण एवं मँझला  भाई मध्य दर्जे  का  वैद्य है। ऐसा क्यों?” वैद्य ने कहा, यह आपलोगों की समझ  का फ़र्क है। दर असल मेरे सबसे बड़े भाई सबसे प्रवीण वैद्य हैं। वे रोग के लक्षण को देख रोग का निदान कर लेते हैं। अत: रोग के प्रारम्भिक अवस्था में  ही आहार को नियमित कर के अथवा हलकी फुलकी दवा से उसका निवारण कर देते हैं। मँझले भाई को जब तक रोग कुछ बढ़ नहीं जाता वह निदान नहीं कर पाता है। अत: उसे निवारण करने के लिए कठिन दवाओं का प्रयोग करना पड़ता है। मैं तो सबसे निकृष्ट हूँ। जब तक रोग  काफी  बढ़ नहीं  जाता है मैं रोग का निदान  नहीं कर पाता हूँ। अत: रोग के निवारण के लिए ज्यादा औषधि लंबे समय के  लिए देनी पड़ती है और कभी कभी तो शल्य चिकित्सा भी करनी पड़ती है।“
क्या विश्व में  ऐसी  कोई शिक्षा संस्थान है जो बड़े भाई  जैसा वैद्य तैयार कर सकता हो? क्या कोई ऐसा पिता है जो अपने पुत्र को ऐसी शिक्षा  दिलाना चाहे? क्या कोई ऐसा नौजवान है जो ऐसी शिक्षा लेना चाहे? इन सवालों के जितने प्रतिशत जवाब “हाँ” में  हैं हम उतने प्रतिशत ही “हिन्द स्वराज” को अपनाने के लिए तैयार हैं।


गुरुवार, 4 सितंबर 2014

कविता

F     A     M     I     L     Y

I ran into a stranger as he passed by,
“Oh excuse me please” was my reply.
He said,”Please excuse me too;
I wasn’t really watching for you.”
We were polite, this stranger and I.
We went on our way and we said good – bye.
But at home a different story was told,
How we treat our loved ones, young and old.
Later that day, cooking the evening meal,
My son stood beside me very still.
When I turned, I nearly knocked him down.
“Move out of the way,” I said with a frown.
He walked away, his little heart broken.
I didn’t realized how harshly I h’d spoken.
While I lay awake that night in bed,
God’s still small voice came to me and said,
“While dealing with a stranger, commonly courtesy  you use,
But the children you love, you seem to abuse.
Go and look on the kitchen floor,
You’ll find some flowers there by the door.
Those are the flowers he brought for you.
He picked them himself: pink, yellow and blue.
He stood very quietly not to spoil the surprise,
You never saw the tears that filled his little eyes.”
By this time, I was feeling very small,
And then my tears began to fall.
I quietly went and knelt by his bed,
“Wake up, little one, wake up,” I said.
“Are these flowers  you picked for me?”
He smiled,”I found  ‘em, out of the tree.
I picked ‘em because they’re pretty like you.
I knew you’d like ‘em. Especially blue.”
I said ,” Son I am very sorry for the way I acted today;
I shouldn’t have yelled at you that way.”
He said,” Oh, Mom, that’s okay. I love you anyway.”
I said,”Son, I love you too,
And I do like the flowers, especially the blue.”

Are you aware that if we died tomorrow, the company that we are working for could easily replace us in a matter of days. But the family we left behind will feel the loss the rest of their lives. And come to think of it, we pour ourselves more into the work than into our own family ---------- an unwise investment indeed, don’t you think? So what is behind this story?

Do you know what the word FAMILY means?

FAMILY = (F) ather (A)nd (M)other, (I) (L)ove (Y)ou!

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

राजस्थानी लोक साहित्य में प्रेम कथा



राजस्थानी प्रचारिणी सभा एवं भारतीय भाषा परिषद ने एक गोष्ठी का आयोजन किया है। गोष्ठी का विषय “राजस्थान के लोक साहित्य में प्रेम कथा” है। गोष्ठी में राजस्थान में प्रचलित प्रेम कथाओं पर चर्चा एवं उन पर आधारित लोक गीतों का गायन होगा। इस शृंखला में  राजस्थानी कहावतों पर एक गोष्ठी का  आयोजन पहले किया गया था।

ऐसी गोष्ठियों के आयोजन का उद्देश्य राजस्थानी भाषा, संस्कृति एवं समाज का प्रचार एवं प्रसार है।  
गोष्ठी 23 अगस्त 2014 को भारतीय भाषा परिषद के सभाकक्ष में 4.00 बजे से आयोजित है।



रविवार, 17 अगस्त 2014

ब्रेकिंग न्यूज़


ब्रेकिंग न्यूज़
आज १५ अगस्त २०१४। मोदी सरकार पाँच व्यक्तियों को भारत के सर्वोच्च सम्मान “भारत रत्न” से नवाजेगी। इन पाँचों में  से दो के नामों  का तो अनुमान लगा लिया गया है – भारत के पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी एवं स्वतन्त्रता सेनानी श्री सुभाष चन्द्र बोस।

इन दो नामों पर पत्र – पत्रिकाओं में, टीवी पर, नुक्कड़ों  पर चर्चाएं हो चुकी हैं। साक्षात्कार प्रकाशित एवं प्रचारित हो चुके हैं। विभिन्न राजनीतिक दल, उद्योगपति, सामाजिक संगठन  इसके पक्ष एवं विपक्ष में अपने अपने विचार, सहमतियाँ एवं असहमतियाँ जाहिर कर चुकें हैं। साथ ही यह  बताने से भी नहीं चूके के इन नामों के चयन में पक्षपात की गंध है। इनके अलावा अन्य तीन के नामों पर भी बहस जारी है। यानी, पूरा घमासान हो चुका है।

इसी सन्दर्भ में बोस परिवार का साक्षात्कार एवं उनका इस पुरस्कार को लेने से इंकार भी प्रसारित हो गया है। उनका विचार है कि श्री सुभाष चन्द्र बोस का व्यक्तित्व इस पुरस्कार से ज्यादा ऊँचा है अत: वे  इस सम्मान को स्वीकार नहीं करेंगे। यह एक अलग प्रश्न  है कि  उनके इस कथन का क्या अर्थ  है? क्या श्री सुभाष चन्द्र बोस का व्यक्तित्व उन सभी हस्तियों से ऊँचा है जिन्हे भारत रत्न दिया गया है अथवा वे यह चाहते हैं कि श्री बोस को एक ऐसा सम्मान मिलना चाहिए जो न तो पहले किसी को मिला और न आगे किसी को मिलेगा? ....न भूतो, न भविष्यतो!

बहरहाल पत्र पत्रिकाओं ने अपने अपने पन्ने रंग डाले। टीवी चैनलों  ने ढेर सारे साक्षात्कार प्रसारित कर दिये, और अब पूरा वातावरण शांत हो गया है। आज १५ अगस्त है। आज उन सब नामों की घोषणा हो जाएगी, और उसके साथ ही एक नया विवाद प्रारम्भ करने का मसाला मिल जाएगा। चाय की चुस्कियों पर, सुबह टहलते हुए, दोपहर को लंच-ब्रेक पर गरमा गरम बहस चलेगी। सब साँस रोके उस क्षण का इंतजार करते रहे लेकिन हाय रे दुर्भाग्य वैसा  कुछ भी नहीं हुआ। किसी के भी नाम कि घोषणा नहीं हुई। अब अखबारों को अपने पन्ने रंगने के लिये  कोई और कहानी लिखनी होगी। टीवी को नया कुछ नया सनसनी खेज गढ़ना होगा  ।


इस बीच, समाचार यह है कि  वे  पाँच मेडल्स मोदी सरकार ने नहीं बल्कि मार्च में यूपीए सरकार ने खरीदे थे क्योंकि राष्ट्रपति माननीय श्री प्रणव मुखर्जी  “राष्ट्रपति भवन संग्रहालय” में उन्हें रखना चाहते थे एवं गृहमंत्रालय के पास एक भी मेडल नहीं था। गृहमंत्रालय को ये पाँच मेडल्स जुलाई में मिले। उनमें से एक संग्रहालय की शोभा बढ़ा रहा है एवं अन्य चार गृह मंत्रालय के पास सुरक्षित रखे हैं। खबर यह भी है कि  गृह मंत्रालय ने ३०० “पद्म” पुरस्कार के मेडल्स का ऑर्डर दिया है। पत्रकारों, संवाददाताओं, टीवी एंकरों  क्यों हाथ पर हाथ धरे बैठे हो?  गरमा गरम खबर है। बस धंधे में लग जाओ, अटकलें लगाओ और लगवाओ, टीआरपी बढ़ाओ! ब्रेकिंग न्यूज़ बनाओ!  

गुरुवार, 14 अगस्त 2014

राखी की राजनीति



प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काठमांडू के  पशुपतिनाथ मंदिर में पूजा की। मीडिया ने इसे बहुत अहमियत दी एवं इस घटना को प्रचारित एवं प्रकाशित भी किया। भारतीय संसद तक इसकी गूंज सुनाई दी।  विपक्ष ने मोदी की “पूजा” पर अंगुली उठाई और टिप्पणी की कि उनके पास पशुपतिनाथ में लंबी पूजा के लिए तो समय था लेकिन वे एक भी इफ्तार पार्टी के लिए समय नहीं निकाल सके।

यह हर्ष का विषय है की सांसदों के इस प्रश्न का मुस्लिम सांसदों ने ही विरोध किया एवं संसद के पास इससे ज्यादा महत्वपूर्ण विषय हैं, अत: इस “व्यक्तिगत विषय पर चर्चा कर संसद का समय नष्ट न करने का अनुरोध किया। उन्हों ने यह भी कहा की राजनेताओं का इफ्तार पार्टी में भाग लेना महज एक राजनीतिक कदम है। इस की शुरुवात 1970 में उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा ने की थी और काँग्रेस के साथ यह दिल्ली तक पहुँच गई। इन्दिरा गांधी ने इसे खूब हवा दी। 2009 में तो ऐसी राजनीतिक पार्टियों की इफ्तार पार्टियों के विरुद्ध फतवा भी जारी किया गया।  

यह बड़े दुख एवं दर्द का विषय है की धर्म, रीति – रिवाज एवं त्योहारों में राजनीतिक पहल बढ़ती जा रही है। भाई बहन के पवित्र रिश्तों के त्योहार, रक्षा बंधन पर अब राजनीतिक पार्टी की नजर है। यह एक सामाजिक व्यवस्था है, रीति रिवाज है, त्योहार है। इसमें कहीं भी राजनीति नहीं है।  राजनीतिक दलों से यह अनुरोध है की इसे राजनीति का जमा न पहनाएं।  इसे घर परिवार तक ही सीमित  रहने दें।



रविवार, 27 जुलाई 2014

कविता - कोशिश




कोशिश

तुम निरे बुध्धू रहे,
चाँद से कुछ सीखो ना?
कहीं से कुछ लेकर
कुछ बनो ना?

चाँद ने सूरज के प्रकाश का
एक अंश भर लिया है,
और अब शान से
रात को अपना एक छत्र राज्य जमाये
प्रकाश कुबेर बन बैठा है।

अपने चेचकनुमा मुंह पर
रशिमयों का  लेप लगा कर
उसने कायाकल्प भी कर लिया है।

अब कुरूप – कलूटा चाँद
परम रूपवान बन
रमणियों का चहेता है,
तारिकाओं का कन्हैया है,
निशा-वधुओं का छबीला है।

तुम भी कोई ऐसी कोशिश करो ना,
कुछ बनो ना?


-    श्याम सुंदर बागड़िया

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

कविता - LADO KI

FAITH

Faith is the only thing which
                        keep the relations intact,
                        Though no words are spoken.
Faith is the only thing that,
                       keep one’s aspirations still high,
                       Though brain always pushes towards pessimism
Faith is the only thing which,
                        when broken bring tears to the eyes,
                        Though the heart ponder over the memories
Faith is the only thing that,
                         connects God with every soul
                         Though Adam broke it at the time of creation.

-          LADO

रविवार, 13 जुलाई 2014

राजनीति में नैतिकता की बात



एड्स की रोक थाम के बहाने मानवीय एवं नैतिक मूल्यों पर ज़ोर

यह बड़े हर्ष का विषय है कि वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री ने एड्स की रोक थाम के लिए कंडोम के प्रयोग के बदले नैतिक मूल्यों पर ज़ोर देने की बात की।  विशेष ध्यान देने की बात है कि  प्रशासन के शिखर से एक राजनेता  नैतिकता की बात कर रहा है। यह टिप्पणी सराहनीय तो है ही, चौंकाने वाली भी है। पिछले कुछ वर्षों में बने माहौल में नैतिकता का जो पतन हुआ है वह शर्मनाक है। राजनीति का पर्याय ही अनैतिकता, अपराध, भेद-भाव आदि  हो गया है। आम आदमी ने भी “यथा राजा तथा प्रजा” को सत्य प्रमाणित किया। ऐसी परिस्थितियों में अगर मंत्री  नैतिकता एवं चरित्र निर्माण की  बात कर रहे हैं, तो यह आवश्यक है कि हम उनका साथ दें। 

आज सबसे बड़ी समस्या मानवीय संवेदना, नैतिकता एवं संस्कृति का विलोप होना है। कहीं भी इनकी जानकारी नहीं दी जाती है और इनका सीधा संबंध धर्म से कर दिया गया है। धर्म का हमने  ऐसा  हाल कर रखा  है कि हम धर्म शब्द से ही घबड़ाने लगे हैं  और इसे अछूत  समझने लगे हैं। कहीं भी कुछ भी हो, अगर हमें नुकसान नहीं तो हमें मतलब नहीं।  
लोग आहट से भी आ जाते थे गलियों में कभी,
अब जो चीखें भी तो कोई घर से निकलता ही नहीं।
एक समय था जब हम यह मानते थे कि हमें अपनी गलती स्वीकार करनी चाहिए। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में यह पाठ ठोंक ठोंक कर पढ़ाया गया  है कि किसी भी हालात में हम अपनी गलती स्वीकार न करें।  इसका परिणाम धीरे धीरे यह हुआ कि  हम सर उठा कर गलतियाँ करते हैं, अपराध करते हैं। झूठ बोलना, घूस लेना, अपशब्द बोलना, नियमों को तोड़ना तो बहुत साधारण सी बात हो गई है। हत्या, बलात्कार, बड़ी हेराफेरी भी हम शान से करते हैं और जरा भी हिचक नहीं होती। ये घातक बीमारियाँ हमारे समाज में इस तरह फैल गयी हैं जैसे एड्स। फर्क  इतना ही है कि  एड्स की रोक थाम के लिए हम चिंतित हैं, लेकिन इस नैतिक पतन से हमारा कोई सरोकार नहीं। सरकार एवं प्रशासन भी धर्म निरपेक्षता का जामा पहन कर इस तरफ से  उदासीन है। इसका परिणाम यह हुआ कि बुरे ताकतवर होते चले गए और अच्छे कमजोर।  दुनिया में खतरा बुरे की ताकत के कारण नहीं, अच्छे की दुर्बलता के कारण है। भलाई की सहनशीलता ही बड़ी बुराई है। घने बादल से रात नहीं होती, सूरज के निस्तेज हो जाने से होती है। हमारे देश में यही हुआ। इस परिस्थिति  को बदलना  होगा। अच्छे की दुर्बलता दूर करनी होगी। इसके लिए नैतिकता एवं चरित्र निर्माण की बात करनी होगी।

यह किसी एक धर्म विशेष की धरोहर नहीं है। यह मानव धर्म है और इसका पाठ विद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में पढ़ाना आवश्यक है। जैसे हम अपने घर, ऑफिस, सड़क, उद्यान को साफ तभी रख सकते हैं जब हम उसे गंदा न होने दें। इन्हे साफ रखने के लिए तो हम बड़े बड़े अभियान चलाते हैं। लेकिन समाज की सफाई? समाज गंदा न करने का पाठ?  धार्मिक पंथो, मठों, धर्माचार्यों को तो हमने अपराधी बना कर कटघरे में खड़ा कर दिया है। धर्म निरपेक्षता का इतना शोर मचाया है कि “धर्म” ही विलुप्त हो गया।  तब कौन हमें इसका पाठ पढ़ाएगा?? कहीं किसी को तो कदम उठाना ही होगा। अगर किसी मंत्री ने पहल की  है तो हमें उसे पूरा समर्थन देना होगा।


किसी भी प्रकार के नियम एवं कानून उतनी सफलता हासिल नहीं कर सकते जितना चरित्र एवं नैतिकता की सजगता हासिल कर सकती है। आवश्यक है कि  हम चरित्र, नैतिक, संस्कृति की ऐसी दीवार बनाएँ कि  अपराधी ही समाप्त हो जाएँ। अमन और शांति का वातावरण बने। 

शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

मेरे विचार - नागरिक कर्तव्य


चुस्त नागरिक सतर्क प्रशासन

चुस्त नागरिक सुस्त प्रशासन को दुरुस्त करता है। प्रशासन बिना नागरिकों के सहयोग के कुंठित है। आवश्यक है कि हम उसे अपना सहयोग दें। गांधीजी ने भी कहा था की अत्याचार करने वाले से अत्याचार सहने वाला ज्यादा दोषी है। यह सोच  कर कि प्रशासन कुछ नहीं करेगा हाथ पर हाथ धरे बैठना ठीक नहीं है। प्रशासन द्वारा दी गयी सुवधाओं का प्रयोग करें। गलत एवं अनुचित का विरोध करें। याद रखें भावन शुद्ध होनी चाहिए, यानि सत्य एवं न्याय की प्रतिष्ठा। किसी को नुकसान पहुंचाने का उद्देश्य नहीं होना चाहिए, बदले की भावन नहीं होनी चाहिए।

कुछ एक उदाहरण निम्नलिखित हैं। आप को भी ऐसे अनुभव हुए होंगे। उसकी चर्चा करें तथा लोगों को गलत / अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए प्रोत्साहित करें।

प्रदूषण के  नियंत्रण में प्रशासन को सहयोग
कोलकाता पुलिस ने प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए यह सूचना प्रसारित की थी कि धुआँ करने वाली वाहन  का नंबर उन्हे सूचित किया जाय। लोगों ने इस पर ध्यान नहीं दिया। हमने ऐसे एक वाहन का नंबर फोन पर उन तक पहुंचाया। पुलिस ने उस पर कार्यवाही की एवं हमें सूचित भी किया। उनसे प्राप्त पत्र की प्रतिलिपि नीचे है।



गलत विज्ञापन का विरोध

कुछ समय पहले तक आइनोक्स यह विज्ञापन देता रहा कि सप्ताहंत ( वीक एंड ) एवं छुट्टी के दिन को छोड़ कर टिकटों की दरें कम हैं। लेकिन इसके विपरीत शुक्रवार को भी टिकटों की  दरें ज्यादा रहती थी। आइनोक्स को सूचित करने पर भी उसने इस पर ध्यान नहीं दिया। अंत में इसकी शिकायत एडवर्टाइजिंग स्टंडार्ट काउंसिल ऑफ इंडिया से की  गयी। आइनोक्स को उनकी बात माननी पड़ी एवं वैसे विज्ञापनों को बंद करना पड़ा। काउंसिल के पत्र की प्रतिलिपि संलग्न है।


रविवार, 29 जून 2014

Rajasthani Bhasha ko Sanvaidhanik Manyata

राजस्थानी भाषा को संवैधानिक मान्यता

भारतीय संविधान ने निम्नलिखित २२ भाषाओं को मान्यता प्रदान कर रखी है। २००१ की जनगणना के अनुसार उनके बोलने वालों की संख्या भी साथ में दी गयी है  :

१. आसामी – १.३ करोड़                 २. बंगाली – ८.३ करोड़
३. बोडो – १४  लाख                    ४. डोगरी – २३ लाख
५. गुजरती – ४.६ करोड़                 ६. हिन्दी – २५.८ करोड़
७. कन्नड़ – ४ करोड़                   ८. कश्मीरी – ५५ लाख
९. कोंकणी – २५ लाख                  १०. मैथिली – १.२ करोड़
११. मलयालम – ३.३ करोड़              १२. मणिपुरी – १५ लाख
१३. मराठी – ७.२ करोड़                 १४. नेपाली – २९ लाख
१५. ओड़िया - ३.३ करोड़                १६. पंजाबी – ३.४ करोड़
१७. संस्कृत – १० हजार                 १८. संथाली – ६५ लाख
१९. सिंधी – २५ लाख                   २०. तमिल – ६.१ करोड़
२१. तेलुगू – ७.४ करोड़                  २२. उर्दू – ५.२ करोड़

इस विषय पर हम आपका ध्यान राजस्थानी भाषा की  तरफ आकर्षित करना  चाहेंगे। इस भाषा से संबन्धित कुछ तथ्य इस प्रकार हैं :

१। देश एवं विदेशों में इस भाषा को बोलने वालों की संख्या १० करोड़ से ज्यादा है।

२। केंद्रीय अकादमी ने इस भाषा को मान्यता प्रदान की है। १९७१ से अनवरत रूप से केन्द्रीय अकादमी प्रति वर्ष राजस्थानी भाषा में साहित्यकार को पुरस्कार भी दे रही है।

३। राजस्थानी भाषा के प्रचार, प्रसार एवं संवर्धन के लिए अलग से राजस्थानी साहित्य अकादमी की भी स्थापना की गई है एवं यह अकादमी सक्रिय है।

४। राजस्थानी भाषा का अपना २००० वर्षों से ज्यादा पुराना स्वर्णिम इतिहास है एवं इस भाषा में अनेक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कवि, साहित्यकार एवं रचनाएँ हुई हैं।

५। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने भी राजस्थानी भाषा को हिन्दी से अलग मान्यता प्रदान की है। जोधपुर एवं उदयपुर विश्वविद्यालय तथा माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, राजस्थान ने राजस्थानी को १९७३ से अलग विषय के रूप में पाठ्य क्रम में अपनाया है।

६। अमेरीकन व्हाइट हाउस ने भी मारवाड़ी (राजस्थानी) को अंतर्राष्ट्रिय भाषा के अधीन नामांकित कर रखा है।

७। राजस्थान विधान सभा ने भी २००५ में राजस्थानी को मान्यता प्रदान करने के लिए सर्वसम्मति से केन्द्रीय सरकार को ज्ञापन भिजवा दिया था

८। समय समय पर देश एवं विदेश की विभन्न संगठनो, साहित्यिक संस्थाओं एवं साहित्यकारों ने राजस्थानी को मान्यता प्रदान करने का अनुरोध  किया है।

संक्षेप में, राजस्थानी भाषा को मान्यता प्रदान कर राजस्थानियों के आत्मसम्मान एवं गौरव को प्रतिष्टिथ करना सरकार का उत्तरदायित्व भी है और हमारी आप से अपेक्षा भी। राजस्थानी को मान्यता प्राप्त होने से हम अपनी पहचान, संस्कार एवं संस्कृति को भी बचा पाएंगे।


आशा है मोदी सरकार आप इस विषय पर ध्यान देगी  एवं हमारी भाषा के साथ न्याय करेगी।