शुक्रवार, 14 जुलाई 2017

मैंने सुना

मुझे गांधी क्यों प्रेरित करते हैं?
कुमार प्रशांत
(सोमवार, 1 मई 2017, भारतीय संस्कृति संसद, अनौपचारिक विचार विमर्श)


श्री कुमार प्रशांत
 कठिन काम  को करना आपकी हिम्मत का काम है। उसे करना एक चुनौती होती है। लेकिन एक असंभव कार्य को संभव बनाने का प्रयत्न करना आपकी मूर्खता का प्रमाण है। जो कार्य संभव नहीं है वह कार्य आप करने की कोशिश कर रहे हैं। यानि, आप एक ऐसे समाज में सुख और शांति खोजने की कोशिश कर रहे हैं जिसका कोई भी सिरा सुख और शांति से जुड़ा हुआ नहीं है। उसमें आप एक कल्पना कर रहे हो कि कुछ तो ऐसा हो जाएगा कि हम एक अच्छा जीवन जीने लगेंगे, एक शांति का जीवन व्यतीत करने लगेंगे। जिसको आनंद कहते हैं, वह आनंद का जीवन मिल जाएग। मैं परेशान इस बात से हूँ।

यक्ष ने युधिष्टिर से पूछा कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? तो उन्होने कहा कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि हर आदमी यह जानता है कि उसका अंत होने वाला है लेकिन वह जीने की कोशिश में लगा है। यही दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य है। कुछ इसी तरह का यह सवाल है कि आप जो भी चीज खोज रहे हो समाज में, चाहे जिस भी नाम से खोज रहे हो, चाहे जिन भी सवालों के द्वारा खोज रहे हो वह है नहीं और आप पाने की कोशिश में लगे हो। और बड़ी आशा से लगे हुवे हो। किसी को लगता है कि बहुत सा पैसा कमा लेंगे तो सुख मिल जाएगा। कुछ सोचते हैं कि बहुत सा ज्ञान कमा लें तो उसमें से कुछ निकल आयेगा। नये नये आविष्कार हो रहे हैं। नई-नई तरह-तरह की तकनीक सामने आ रही हैं वे हमारा काम बहुत आसान कर रही हैं। जिस काम के लिए बड़ी मशक्कत लगती थी वह काम अब बड़ी आसानी से हो रहा है। लेकिन जो हो रहा है उसमें से वह चीज नहीं निकल रही है जो हम चाहते थे। यह अपने आप में ही एक बड़े कौतुक का सवाल है। तब,  मेरी चिंता इस बात पर है कि यह बात कैसे समझी जाए और कैसे समझाई जाये? समझना एक चीज़ है और समझाना एक अलग चीज़ है। मैं एक बात कहता हूँ अपने साथियों से कि “तुमने कोई बात समझ ली है” इसकी कसौटी क्या है? “हाँ हाँ हम यह बात समझ गए हैं। गांधी का क्या विचार है हम समझ गए है।” लेकिन आप समझ गए हैं इसकी कसौटी क्या है? इसकी एक बहुत साधारण सी कसौटी है। क्या  यह बात तुम दूसरे को समझा सकते हो? अगर तुम दूसरे को समझालोगे तो तुमने बात समझ ली है। और नहीं तो, एक गजल है:
      कभी कभी हमने भी ऐसे अपना दिल बहलाया है,
            जिन बातों को हम खुद नहीं समझे औरों को समझाया है।
ज्यादा कर हम ऐसी ही बाते करते हैं। ज़्यादातर हम उन बातों को समाज के नये नवजवानों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं जिनकी समझ  हमको ही नहीं होती है। एक, हमारी भाषा भी काम नहीं करती है। दूसरे, हमारे पास तथ्य नहीं है उन बातों को करने के लिए, हम उनकी भी बातें करते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि जो बात तुम समझा रहे हो उसमें तुम्हारा खुद का विश्वास नहीं है। तो तुम्हारी बात तुरंत नकली हो जाती हैं।

ये सारी चीजें हैं जिनके बीच में से तुमको खोजना है, जिसे हम चाहते हैं। तो गांधी वान्धी को छोड़ कर अगर हम अपनी चिंता थोड़ी ज्यादा करने लगें तो शायद हम अपने  सवालों के जवाब के नजदीक पहुँच पायेंगे। क्योंकि एक बड़ा लंबा जीवन आप सब लोगों ने जीया है, अपनी अपनी तरह से। अपने अपने विचार, अपने साधन, अपना परिवार। इन सबों को देखते हुवे एक ऐसी जगह पहुँच गए हैं, हम सभी लोग, सामूहिक रूप में जहां हम न खुद को सुरक्षित पा रहे हैं न अपने परिवार को। न अपने खुद के बारे में विश्वास के साथ कुछ कह पा रहे हैं, न परिवार के बारे में। तो जिसे दिहाड़ी मजदूर कहते हैं वैसी जिंदगी गुजार रहे हैं। आज का दिन गुजर गया। बस, अगला दिन कैसा होगा मालूम नहीं। अगला दिन भी गुजर जाए, ऐसा कुछ हो जाए तो चलो भगवान का भला अगला दिन भी निकल गया। ऐसे तो समाज नहीं चलता है। ऐसे तो समाज जीता भी नहीं है। इसीलिए हम जी नहीं पा रहे हैं। मुश्किल में पड़े हैं।

इतने सारे प्रतिद्वंद्वी खड़े कर लिए हैं हमने अपने अगल बगल कि लगता है कि हर समय कुरुक्षेत्र में ही खड़े हैं। कोई भी शांति के साथ जीवन का मजा नहीं ले रहा है। ऐसा लगता है कि युद्ध में खड़े हैं। युद्ध कभी कभी होता है तो शायद, अच्छा लग सकता है। लेकिन अगर 24 घंटे ही यद्ध होता रहे तो बोझ लगता है, मुश्किल हो जाती है, जीना कठिन हो जाता है।  अभी मैं भद्रक से आ रहा हूँ, ओड़ीशा से। अभी १५-२० दिन पहले वहाँ एक बहुत बड़ा दंगा हुआ था वहाँ और तब से लगातार चल रहा है। वहाँ था मैं कुछ समय। कैसे शुरू हो गया? क्या बात हो गई? किसी ने, जो एक नया संवाद का संसाधन निकला है, एस एम एस, उसमें   सीता के बारे में थोड़ी गंदी सी बात लिख दी और उसके नीचे एक मुसलमान का नाम लिख दिया। यह बात फैली और वहाँ से विश्व हिन्दू परिषद ने इसे उठा लिया। इसके पहले कि यह समझ पाएँ कि यह सारा खेल क्या हुआ तब तक १५-२० मुसलमानो की दुकानों में आग लग गई। शाम को पुलिस सुपरिंटेंडेंट ने सभा बुलाई और कहा कि मैंने इस आईडी की जांच कारवाई है। यह एक बिलकुल गलत और भ्रामक आईडी है। ऐसी कोई आईडी है नहीं जिससे यह निकला हो।  अत: यह किसी बदमाश की कार्यवाही है। लेकिन तब तक तो परिस्थिति बदमाशों के हाथों मे चली गई थी। बदमाशों की  संख्या दोनों तरफ ही बराबर है। रात को पत्थर बाजी हुई मुसलमाओं की तरफ से।

जब कभी ऐसा होता है आप क्या करते हो? एक साधारण जिंदा व्यक्ति की तरह। यह साधारण सी बात मन में आती  है कि वहाँ पहुँच तो जाएँ और फिर देखें क्या होता है? हम,  जो भी १५-२० व्यक्ति थे पहूंचे। और तब से इस कोशिश में लगे हैं कि कोई रास्ता निकले। कुछ तो समझ बने लोगों के मन में। मैं बराबर लोगों से पूछता हूँ कि ऐसे ही रहने का इरादा हो कि आप भी रहते हो हम भी रहते हैं और बीच में पुलिस छावनी रहनी चाहिए। अगर यह पसंद है तो रहा जाए। मुझे कोई दिक्कत नहीं है। मैं तो कुछ दिनों में यहाँ से चला जाऊंगा। भुगतना तो आप लोगों को ही पड़ेगा। लेकिन अगर आपको लगता है कि यह रहने का तरीका नहीं है तब ये पुलिस छावनी आपके बीच से हटे, इसकी कोशिश आपको ही करनी पड़ेगी। मैं इस छावनी को नहीं हटा सकता। पुलिस मेरी बात मानेगी भी नहीं क्योंकि उसे मालूम है कि खतरा दोनों तरफ से है। इसमें पहला कदम कौन पीछे खींचता है वही सबसे समझदार आदमी है। आपने नियम ही यह बना दिया है कि कदम पीछे खींचना कायरता है। जब तक आप कदम पीछे नहीं खींचते,  कदम ऊठेंगे नहीं यह आप देख रहे हो। फिर, कोई तो निर्णय आपको करना पड़ेगा।  

जब मैं यह बात सोचता हूँ तो मेरे लिए हिन्दू मुसलमान जैसी कोई बात रहती ही नहीं है। मैं सोचता हूँ हिन्दू हो, मुसलमान हो, क्रिश्चियन हो, पारसी हो, अगर रहना है तो रहने के लिए कुछ मूलभूत नियम तो बनाने ही पड़ेंगे।  क्योंकि हम में से कोई भी यह निर्णय नहीं ले  सकता है कि आज से इस देश में कोई मुसलमान नहीं रहेगा, और मुसलमान नहीं रहेंगे। वे तो हैं। हमारे आप के चाहने या न चाहने के बावजूद हैं। और उनके चाहने, न चाहने  के बावजूद हम हैं। तब कैसे रहोगे? इसको सोचना शुरू करोगे तब हम वहीं पहुंचेगे जहां पाकिस्तान बनने के पहले महात्मा गांधी पहुंचे थे। तो मेरे लिए महात्मा गांधी भगवान नहीं हैं। मैं उनकी पूजा नहीं करता हूँ। मैं जिन सवालों से परेशान हूँ उनका समाधान ढूँढता हूँ तो इसी आदमी के पास पहूंचता हूँ। तब सोचता हूँ कि कोई तो बात है भाई। इस आदमी के जवाब खत्म नहीं होते हैं। बस इतनी सी ही बात है जो मुझे प्रेरित करती है।

आधी धोती नंगा बदन
इंग्लैंड में गांधीजी की प्रतिमा का उदघाटन समारोह था। इस समारोह में भारत से अरुण जैटली गए 
महात्मा गांधी की मूर्ति का अनावरण

थे। वहाँ के प्रधान मंत्री उस समय कैमरोन थे। जब वे वहाँ से चले तब रास्ते में अरुण जैटली कैमरोन को गांधी जी के चुट्कुले वगैरह सुना रहे थे। तब कैमरोन ने कहा कि आपने सबसे बड़ी घटना तो बताई ही नहीं। जब गांधी बकिंघम पैलेस में राजा से मिले उस समय जो बात उन्होने कही वह बड़ी जबर्दस्त बात थी। तब जैटली ने वह बात भी सुना दी। गांधी राजा से भी अपनी ही पोशाक में मिले। राजा से उस प्रकार की आधी पोशाक में मिलने की इजाजत नहीं थी। पूरी पोशाक पहन कर, ढँक कर जाना पड़ता था। लेकिन गांधी वैसे ही आधी धोती में और एक चद्दर कंधे पर डाल ली और वैसे ही मिले। जब वे बाहर आए तो पत्रकारों ने उनसे पूछा कि अरे आप इतने ही कपड़ों में, इसी पोशाक में राजा से मिले? उन्होने कहा कि आप फिकर मत करो राजा ने हम दोनों कि जरूरत से ज्यादा कपड़े पहन रखे थे। यह बता कर अरुण जैटली ने टिप्पणी की,what a wit (क्या मज़ाकिया अंदाज था)?” कैमेरोन ने तुरंत टिप्पणी की, “नहीं जैटली यह मज़ाक नहीं यह जीने का अन्दाज था।” यह मज़ाक की बात नहीं है यह जीवन का तरीका है। कैमेरोन को 
महात्मा गांधी बकिंघम महल में राजा के साथ
यह बात समझ में आई।  हमारे जैटली को समझ में आया कि मज़ाक है। महात्मा गांधी के मज़ाक और गंभीरता में कोई फर्क नहीं था क्योंकि उनका जीवन ही यही था। कैमेरोन ने यह समझा कि गांधी एक नई जीवन पद्धति की तरफ इशारा कर रहे हैं।

जहां पर संसाधनों का बंटवारा ऐसा होगा कि सबकी जरूरतें पूरी होगी और अगर सबकी जरूरत पूरी नहीं हो सकती तो अपूर्णता का बंटवारा होगा। जो है वही तो बांटेंगे। लोग कहते हैं कि हमलोग एक गरीब देश में रहते हैं। मैं कहता हूँ कि यह बिलकुल गलत बात है। हमलोग किसी गरीब देश में नहीं रहते हैं। हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां संसाधनों की एक सीमा है। संसाधन असीम नहीं हैं। हमलोग बचपन में पढ़ते थे कि दुनिया में पानी का  कोई अंत नहीं है। इतना गैलन पानी है। हवा तो इतनी है। लेकिन अब हम समझ रहे हैं कि इनकी भी सीमा है। इन सब कि एक सीमा है। यही मर्यादा है समाज की और इसे भी समझने की दरकार है। यह मर्यादा ही हमारा सौंदर्य है। खेल इसी के भीतर होगा। ५२ पत्ते हैं ताश में। ५२ पत्तों का खेल अगर तुम्हें आता है तब तो तुम बहुत अच्छे खिलाड़ी हो। लेकिन अगर तुम बैठे हो कि कोई तिरपनवा पत्ता बनेगा तब हम खेलेंगे, तब ताश के खेल के बाहर चले जाओ। ये सारे संसाधन बने ही सीमित हैं कि तुम इसके भीतर ही एक सत्य सुखी जीवन दिखाओ। और यह सब के लिए होना चाहिए। जहां आप इस कसौटी को स्वीकार कर लेते हैं कि जो भी है वह सब के लिए होगा, तब आपकी जीवन शैली बदलने लगती है। फिर आपको काटता है कि यह जरूरत से ज्यादा हमारे पास क्यों जमा है? यह किसी दूसरे का छीना हुआ है इसलिए हमारे पास है। यह चीज तो इतनी ही थी उसमें से यह हिस्सा हमने निकाल लिया। आज या कल के ही अखबार में हैं कि देश के 1 प्रतिशत भारतीय हैं जिनके पास देश के ५३ प्रतिशत संसाधन हैं। अगर देश के एक प्रतिशत भारतीय के पास देश के ५३  प्रतिशत संसाधन हैं तब जो बाकी ९९ प्रतिशत बचे, उनके हिस्से में जो आया वह तो नगें, भूखे, बेघर-बार का होना तो निश्चित ही है। यह तो सामान्य गणित है। यह कोई और जोड़ घटाव नहीं है। तब अगर कोई यह कहता है कि हम समाज में समता लाना चाहते हैं, समृद्धि लाना चाहते हैं तो उसे कहना पड़ेगा कि भैया यह गणित बदलना पड़ेगा।


***********
05-जुलाई-2017
साहित्य की जरूरत और महत्व
भारतीय संस्कृति संसद, 6 मई 2017

श्री अशोक बाजपेयी

मुझे अपने बचपन की याद आती है। यही कोई 13-14 वर्ष का रहा होऊँगा। कवितायें लिखना शुरू कर दिया था। बहुत ही खराब कवितायें थीं। मेरे कुछ मित्र कहते हैं कि आप ज़िंदगी भर खराब कवितायें ही लिखते रहे हैं। बहरहाल, वे तो निश्चय ही खराब कवितायें थीं। एक कवि गोष्ठी हो रही थी और हमलोग 10-12 कवि फर्श पर बैठे हुवे थे। सभी खराब थे और एक दूसरे की कविता, जिस प्रकार खराब कविता लोग प्रसन्नता से सुनते हैं, वैसे ही सुन रहे थे। तो इतने में चाय के प्याले आ गए। वहाँ अध्यक्ष, वैसे तो वे वयोवृद्ध थे उनका उपनाम “रमा हृदय” जैसा कुछ था, उनका ध्यान उन चाय की प्यालियों की ओर चला गया। जो कवि कविता सुना रहा था वह बहुत नाराज हुआ और बोला कि मैं आपको कविता सुना रहा हूँ और आप का ध्यान चाय के प्यालों पर है? वे अध्यक्ष महोदय, वैसे तो अँग्रेजी नहीं बोलते थे लेकिन खुदा न खास्ता कैसे उनकी अँग्रेजी में बोलने की प्रवृत्ति जागी और उनके मुंह से निकाला,poetry is good, but tea is better” ( कविता अच्छी है, लेकिन चाय ज्यादा बढ़िया है)। तो यह पहला पाठ मुझे बहुत पहले ही मिल गया कि ऐसे लोग बहुत होंगे और बहुसंख्यक होंगे जिनको कविता और साहित्य की कोई जरूरत नहीं होगी। दूसरा पाठ मिला मेरे एक गुरु से स्कूल में। एक सरकारी फटीचर स्कूल था। मैं उतना फटीचर नहीं था जैसा अब दिखता हूँ। मैं अच्छा खासा बुद्धिशील छात्र था। अव्वल आता था, जिंदगी भर आता था। बहरहाल, उन गुरु के साथ मैंने पहली बार फिल्म देखी, पहली बार चाय पी, पहली बार होटल में खाना खाया, पहली बार शास्त्रीय संगीत सुना, पहली बार अज्ञेय और पंत की कवितायें सुनी, पहली बार कल्पना नाम की एक पत्रिका थी उसे पढ़ा। जब वे जाने लगे तो मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहा, “देखो तुम प्रशासकों के परिवार से हो, तुम्हें भारतीय प्रशासन सेवा में आना चाहिए। मगर मरना कवि की तरह”। 15 वर्ष के युवक को कोई मरने की सलाह देता है? खैर वे अध्यापक थे, उन्होने यह सलाह दे डाली। तो मैंने पहला हिस्सा तो पूरा कर लिया और अब दूसरा हिस्सा जो बहुत कठिन है उसमें लगा हुआ हूँ। जब मैं प्रशासन में था, उस समय के मेरे वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं कि देखो कितना अच्छा ऑफिसर था अब नचय्ये – गवय्ये की सेवा में लगा रहता है। एक तरह का व्यंग भाव, जैसे मैं एक ऊंचे दर्जे से उतर कर नीचे के दर्जे का काम कर रहा हूँ। ऐसे लोग हैं, बहुत बड़ी संख्या में हैं, पूरे संसार में हैं, जिनका काम बिना साहित्य के खूब चलता है। और अच्छा भला पूरा सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। इसलिए ज़्यादातर लोगों को साहित्य को कोई जरूरत नहीं है। एक बात तो यह।

यह बात हमें विनयी बनती है। ये जो कहा जाता है कि, “आप, लोगों को राह दिखाते हैं, आप, पथ प्रदर्शक हैं। आप मार्ग दर्शक हैं, इत्यादि इत्यादि”। हमारे दिखाये राह पर कोई नहीं चलता। और संभवत: हम भी नहीं चलते।  ये सब कहने में बड़ा अच्छा लगता है और इससे हमारा मनोबल भी बढ़ता रहता है इसलिये हम कहते रहते हैं लेकिन सच बात यह है कि दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या बहुत अधिक है और वे बहुसंख्यक हैं जिनको साहित्य की कोई जरूरत नहीं है।

दूसरी  बात यह है कि साहित्य भाषा की एक गतिविधि है। लेकिन साहित्य की और भी बहुत सारी गतिविधियां हैं और कइयों का सारा जीवन साहित्य से ही चलता है। वे सब बिना साहित्य के भी चलता है। पहले जमाने में यह होता था, कम से कम हिन्दी में होता ही था कि पत्रकारिता का साहित्य से थोड़ा बहुत संबंध होता था। और अब वह जमाना आ गया है जब गैर पढ़े लिखे लोग पत्रकार हैं और अब गैर पढ़े लिखे लोग लेखक भी हैं। ऐसा नहीं है कि पढ़े लिखे लोग ही लेखक हैं। इसलिए भाषा के अनेक रूप हैं। उसमें प्रार्थना भी है गाली-गलौच भी है, उपदेश भी है। आजकल आध्यात्मिक बाबा घूमते रहते हैं। तरह तरह के उपदेश देते रहते हैं, बलात्कार करते रहते हैं, इत्यादि। वे सब भी भाषा का उपयोग करते हैं, अक्सर दुरुपयोग करते हैं। उनक काम भी साहित्य के बिना बखूबी चल जाता है।

आजकल ये बहुत लोकप्रिय हैं, फ़ेस बुक, ट्वीटर, व्हाट्स एप्प आदि।  इनके साथ मेरी विशेष गति नहीं है, ये सब भी भाषा में ही होते रहते हैं। हम भारतियों में यह एहसास कुछ ज्यादा प्रबल हो गया है कि कम्प्युटर से पूरा ज्ञान पैदा होगा। कम्प्युटर में पहले ज्ञान डालना पड़ता है तथा ज्ञान कहीं और पैदा होता है यह भाव हममे नहीं रह गया है। इसलिए हमने ज्ञानार्जन भी बंद कर दिया है। यह काम दूसरों का है। सब कार्य  आउट सोर्स कर दिया गया है। जैसे सब कार्य आउट सोर्स किया जाता है तो यह भी आउट सोर्स कर दिया गया है। इसकी अब हमें कोई जरूरत नहीं है। हमको क्या करना है ज्ञान पैदा करके? पहले कलकत्ते में और जाने कहाँ कहाँ ज्ञान पैदा होता था अब नहीं होता है। अखिरी लोग होंगे, श्री शंख घोष जैसे, जिन्होंने ज्ञान पैदा करने की बहुत चेष्टा की होगी बाकी हमलोगों को इसकी कोई जरूरत नहीं रह गई है। पूरा ज्ञान विलायत से आता ही रहता है तब अब हमें इसकी क्या जरूरत है?

हम बहुत हिसाबी किताबी भी हो गए हैं। हमारे जमाने में भी अफसरों के बीच में यह बातें होती थीं कि भाई ईमानदार हुवे तो क्या हुवा? हासिल क्या हुवा? वह ऑफिसर ईमानदार है तो न ठीक से उन्नति हुई, न ठीक जगह पोस्टिंग हुई, न उसका नोएडा में संगमरमर का महल बना। न उसके बच्चे अमेरिका पढ़ने गए। तब, ईमानदार हो कर क्या किया? जब ऐसी दुनिया बन गई हो, ऐसी मानसिकता बन गई हो, कि हरेक चीज से कुछ न कुछ हासिल होगा। ईमानदार को क्या जरूरत है और कुछ हासिल करने की? ईमानदार है तो आदमी ईमानदार है। इतना काफी है। लेकिन उसको भी ईमानदारी से कुछ नहीं मिलता तो हमारा ये हिसाबी किताबी दिमाग बन गया है। उसमें साहित्य से भी कुछ नहीं मिलता। क्या हासिल होगा? कुछ नहीं। बहुत हुआ तो आप थोड़े बहुत सभ्य हो जाएंगे। फिर वही प्रश्न, सभ्य होने से क्या हासिल? उस से टालीगंज में कोई बंगला थोड़े हो बन जाएगा! हासिल वाली जो जहमीयत है कि हर चीज से कुछ हासिल होना चाहिए, तो साहित्य से कुछ भी हासिल नहीं होता। ऑस्कर वाइल्ड ने एक बार कहा था,all artists are useless” (सब चित्रकार बेकार हैं)। यह उसने तंग आकर कहा था, क्योंकि हर कोई पूछता था कि इससे फायदा क्या है? हमको इससे मिलेगा क्या? मिलेगा तो कुछ भी नहीं।

अब हम भयानक रूप से आत्मरत लोग हैं। हमें अपने सिवा और कुछ सूझता ही नहीं। इस यंत्र ने जिसे मैंने बहुत देर से बंद कर रखा है, बहुत ही असभ्य यंत्र है। मैं आप से बात कर रहा हूँ, आपका फोन आ गया आप उससे बात करने लगे। और मैं बैठा हुआ हूँ आपके सामने बेवकूफ़ों की तरह। आप कहीं किसी गाँव का कोई आदमी आपसे बात किए जा रहा है इससे असभ्यता फैल रही है। आत्मरति है। तमाम लोग अपनी तस्वीरें भेजते रहते हैं। इनमें से अधिकांश सुदर्शन भी नहीं होते। तस्वीरें भेज रहें हैं कि आप हिमालय को देख रहे हैं, या कुछ इस भाव से भेज रहे हैं कि देखिये यह हिमालय का सौभाग्य है कि वह हमें देख रहा है। यह  आत्मरति है। साहित्य आत्मरति से पैदा होता होगा। साहित्यकार  भी  मिट्टी के माधव ही हैं, वे कोई देवता थोड़े ही हैं? फरिश्ते हैं, जो कहीं स्वर्ग से उतरे हैं? उनमें भी वे सब गुण दोष होते हैं जो हममे हैं। वे लोग भी वैसे ही लोग हैं जैसे हमलोग-आपलोग हैं। लेकिन आत्मरति से ऊपर जाकर दूसरे भी हैं दुनिया में, और दूसरे भी मैटर करते हैं। साहित्य का एक बहुत ही छोटा सा सबक ये भी है। लेकिन हमें तो इसकी कोई जरूरत है नहीं क्योंकि हम तो हिमालय का सौभाग्य मानते हैं कि उसने हमें देखा है।

फिर एक सतही किस्म कि सामुदायिकता पैदा हो गई है। हम यह मानते हैं कि हम एक ही ग्रुप के हैं। ऐसे ग्रुप भी बनाते हैं जैसे व्हाट्स एप्प में। इसमें ऐसे भी ग्रुप हैं जिसके आप  एक बार सदस्य बन गए तो फिर बाहर नहीं आ सकते। यह एक छद्म तरीके की सामुदायिकता है यह असली सामुदायिकता को रोक रही है। अब हम अपने पड़ोसियों को भी नहीं जानते। हम जिस सोसाइटी में रहते हैं वहाँ हमारे पड़ोस में कौन रहता है उनका हमें मोटा मोटी तो पता होता है क्योंकि कभी वे मिठाई भेज देते हैं, कभी हम भेज देते हैं। कभी फल आ गए या आम आ गए तो कम से कम पड़ोसी को  भेज दें, नहीं तो सड़ जाएंगे।  लेकिन पड़ोस नाम की चीज गायब हो गई और इसको सबसे अधिक नष्ट किया गुजरात ने। जहां पड़ोसियों ने इसी यंत्र का उपयोग कर के अपने मुसलमान पड़ोसियों की हत्या करवाई। नाम तो इस बेकरी का प्रेम सागर बेकरी है लेकिन इसका मालिक गयासुद्दीन है। ये खबर इसी यंत्र का उपयोग करके दी गई। तो पड़ोस का नष्ट होना शुरू हुआ 2002 में, गुजरात में, क्योंकि पड़ोसी वक्त पर काम आने के बजाय आपको मरवाने पर आमादा हुवे।

लोग सफल होना बहुत चाहते हैं। सफलता की एक अंधी दौड़ है। हमारे जमाने में इम्तिहान हुआ करते थे तो एक पेपर से दूसरे पेपर के बीच में, देवदास नाम की एक बहुत रोती गाती सी फिल्म आई थी, उसे देखा था।  अठारह बार देखी थी। मेट्रिक में दिस्टिंक्शन  (distinction) मिला था।  मेरा पोता, पिछले छ: महीने से बिलकुल कारगार में बंद है। बड़ी मुश्किल से खाना खाता है, कहीं बाहर जाता है। हमने सफलता का एक ऐसा खौफ बना रखा है। साहित्य ज़्यादातर विफल लोगों द्वारा लिखा जाता है। साहित्य यह भी बताता है कि विफलता उतनी खराब चीज नहीं है जितना हम समझते हैं। असल में विफल लोग ही अमर हुवे हैं। महात्मा गांधी से ज्यादा विफल और कौन हैं? जिस भारत की उन्होने कल्पना की थी, जिस तरह की राजनीति की कल्पना की थी, जिस तरह की राम राज्य की कल्पना की थी वे सब इतिहास के धूरे पर पड़े हुवे हैं। मार्क्स, इतना पड़ा चिंतक था। पूरी दुनिया को बदलने का उसने सपना देखा था। सारा ध्वस्त पड़ा है। ये सब विफल लोग हैं। विफलता का मूल्य, साहित्य सिखाता है। लेकिन हम सफलता चाहते हैं अत: इस विफलता का क्या करना? सफल होना ही जरूरी है।

अब इधर छद्म भावुकता ने भी साहित्य को बहुत अपदस्थ किया है। सीरियल आते रहते हैं। मेरे घर में एक टेलीविज़न पड़ा है। लेकिन मैं उसे देखता नहीं। फोन करके लड़की बताती है कि सर आपका इंटरव्यू आज नौ बजे आ रहा है। तो मैं कहता हूँ कि शुक्रिया, लेकिन  मैं देख नहीं पाऊँगा।  तो बताती है कि सर अड़ोस पड़ोस में कहीं देख लीजिये। तब मुझे बताना पड़ता हैं कि टेलीविज़न मेरे पास भी है लेकिन मैं टेलीविज़न देखता नहीं। यह मेरा नैतिक निर्णय है। क्यों मैं झूठी खबरें देखूँ? सारी खबरें बुरी हैं, क्यों मैं आज देखूँ। कल सुबह अखबार में पढ़ लूँगा। क्यों अपनी रात बर्बाद करूँ? यह एक छद्म भावुकता पैदा हो गई है। हमारी एक पुराण पंथी या घटिया किस्म का पिछड़ापन है वह सीरियल में बहुत प्रदर्शित है और लोग बहुत मुदित मन से देखते रहते हैं। देखकर ऐसा नहीं लगता कि ये अब हमारे जमाने में हो रहा है। ये छद्म सामुदायिकता और भावुकता पैदा हो गई है। साहित्य इसके खिलाफ भी लिखता है। साहित्य का सच हिस्सेदार सच है।

अभी फास्ट फूड का जमाना है। हमें सब चीजें फटा फट चाहिए। बने बनाए उत्तरों का जमाना है। बल्कि, प्रश्न पूछना तो हमने बंद ही कर दिया है, क्योंकि उत्तर तो पहले से ही तैयार है। और उत्तर उन्होने तैयार किए हैं जिन्होने  अपनी जिंदगी में कोई महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा ही नहीं होगा। साहित्य एक प्रश्न वाचक विधा है। वह दिये गए हल को वैसे का वैसे मानने से इंकार करने वाली विधा है। साहित्य का सच तभी पूरा होता है जब हम उसमें थोड़ा सा अपना सच मिला दें। इसीलिए एक ही रचना की कई व्याख्याएँ होंगी क्योंकि हर पढ़ने वाला अपनी तरफ से थोड़ा सा अपना सच मिलाता है। अब हमें तो अपने सच का सामना करने की भी ताब नहीं है। सच तो वही मिलाएगा जिस के पास सच होगा। और जिसको उस सच की, चाहे वह कितना ही क्रूर और असहज करने वाला क्यों न हो, सामना करने की ताब हो। वहाँ भी साहित्य की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि वहाँ तो उत्तर बने बनाए हैं। और हर चीज के उत्तर दिये हुवे  हैं। यह वैसे ही है जैसे समोसा खाने की इच्छा हुई तो बाजार में गए समोसा खरीदा और खा लिए। बना बनाया मिल गया। हमें इस बात से कोई मतलब नहीं किसने बनाया, क्या बनाया, कैसे बनाया? साहित्य समोसा नहीं है। इसे ज्यादा तो दूसरे बनाते हैं लेकिन थोड़ा हमें अपना बनाना पड़ता है। अब हमारे यहाँ तो प्रश्न पूछना लगभग जूर्म करार दिया जाता है। यानि, अल्पसंख्यक केवल वही लोग नहीं हैं जो धर्म से अल्पसंख्यक हैं। हम जैसे लोग विचार के अल्पसंख्यक हैं। और हमें भी अब प्रश्न पूछने नहीं दिया जा रहा है। प्रश्न पूछेंगे तो कहा जाता है कि आप तो राष्ट्र द्रोह कर रहे हैं। यानि असहमति प्रगट नहीं  कर सकते क्योंकि यह तो राष्ट्र के खिलाफ जा रहा है। यह एक हास्यास्पद व्याख्या है, दयनीय व्याख्या है और परम्परा विरोधी व्याख्या है। भारतीय परम्परा, पूरी की पूरी असहमति से विकसित हुई है।  अगर सनातन धर्म इतना सर्वकालिक और सर्व ग्रासीय धर्म होता तो बौद्ध धर्म और जैन धर्म क्यों बनते? और बौद्ध तथा जैन धर्म दो ऐसे धर्म हैं जिसमें ईश्वर की परिकल्पना ही नहीं है। आप यह कह सकते हैं कि यह भारत में ही संभव है कि दो ईश्वर विहीन धर्म भी हैं। इससे बड़ी असहमति का और क्या उदाहरण होगा? लेकिन अब यह कहा जा रहा है कि  नहीं आप हमसे असहमत नहीं हो सकते। अब असहमति ही जुर्म करार दी जा रही है। साहित्य तो असहमति पर ही आधारित है। और असहमति की अल्पसंख्यकिता का भी एहतरान करता है। हमें यह भ्रम नहीं है कि हम जो कह रहे हैं वह सही है। साहित्य वह होता है जो अपना सच कहने की हिम्मत तो रखता है और यथा संभव इसकी कोशिश भी करता है लेकिन, अपने सच के हर हालत में सच होने पर संदेह भी करता है। कोई राजनेता कभी संदेह करता है? वह किसी भी दल का क्यों न हो? क्या कोई धर्पोपदेशक कभी संदेह करता है? संदेह करना, कलकत्ते में कहना जरूरी तो नहीं लेकिन यह याद दिलाना जरूरी है। अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक “Argumentative Indian” में नासदीय सूत्र का जिक्र किया है। ऋग्वेद में सृष्टि की स्तुति है, नासदीय सूत्र की,Him of Creation”। उसमें यह कहा गया है कि ये ऋषि पहले ब्रह्मांड का वर्णन करते हुवे अंत में आकर यह कहता है कि लेकिन जब न अंधेरा था न उजाला, न उपस्थिती थी न अनुपस्थिति, न था न न था, तब क्या था? पहले पारंपरिक उत्तर देता है। हो सकता है उसे पता हो जिसने इस सृष्टि को रचा है। यहाँ तक तो ठीक है। लेकिन भारतीय संदेह का पहला बीज यहीं प्रगट होता है। वह कहता है, “हो सकता है उसे भी पता नहीं हो”। यानि इस सृष्टि के विधाता को भी यहा पता नहीं है कि सृष्ट के पहले क्या था? यह हम नहीं कह रहे हैं। यह ऋग्वेद कह रहा है। जो बात भारतीय पूरी तरह से भूल चुके हैं वह यह कि भारतीय सभ्यता काव्य सभ्यता है। यह बनी ही कविता से है। ऋग्वेद या अन्य सब वेद काव्य हैं। उससे पैदा होकर रामायण और महाभारत से चलती हुई यह परम्परा है जिसने इस सभ्यता को रचा है और इस सभ्यता ने असहमति को तरह तरह के विचलनों को स्थान दिया है।

परम्परा के नाम पर तरह तरह के बाबा पैदा हो गए हैं। माला फेरता रहता है, बीच बीच में हिंसा करता रहता है, बलात्कार करता रहता है, पकड़ा जाता है। मुझे बड़ा सुख होता है। जब कोई बड़ा गुरु, हत्या या बलात्कार या हिंसा के अपराध में जेल जाता है। अधिकांश को वहीं जाना चाहिए, लेकिन कम से कम 2-4 तो पकड़े जाते हैं। और वे आपको परम्परा बता रहे हैं और परम्परा की लगातार दुर्वाख्या करते जा रहे हैं।

भीष्म पितामह के पास, जब वे शर शय्या पर लेटे थे, दुर्योधन भी गए और युधिष्ठिर भी गए यह पूछने कि राज धर्म क्या है? भीष्म पितामह ने लंबे चौड़े उत्तर दिये, उनमें से 2 हमारे काम के हैं, इस समय। उन्होने कहा कि राजा का कर्तव्य है कि वह अपने राज्य में रहने वाले बुद्धिमान लोगों का सम्मान करे। पहली सलाह का पहला हिस्सा यह है। दूसरा हिस्सा यह है कि राजकाज में लालचियों और मूर्खों को न लगाए। अब मैं इस पर टिप्पणी नहीं करूंगा कि राज काज में कितने मूर्ख और लालची लोग लगे हुवे हैं। आगे उन्होने कहा कि राजा का कर्तव्य है कि वह अपनी प्रजा को भय से मुक्त रखे। हमारी सत्ता, इन दिनों, सबों को भयाक्रांत कर रखा है। हमारे अटॉर्नी जनरल (Attorney General) ने तो यहाँ तक कह दिया है, सर्वोच्च न्यायालय में, कि हमारे शरीर तक पर हमारा पूरा अधिकार नहीं है। इस पर राज्य का अधिकार है। हमें और कितनी तरह से डराएंगे? यह कह कर डरा रहे हैं कि हमारे शरीर तक पर हमारा अधिकार नहीं है। व्यक्ति की गरिमा का हमको अधिकार नहीं है? यह सब राज्य के उपहार हैं, संविधान के नहीं है। हमारा संविधान एक अपूर्व ग्रंथ है। हमने भारतीय परम्परा के श्रेष्ठ मूल्यों को समाहित किया था। और यह संविधान निर्माताओं के विवेक, सयानापन, ज़िम्मेदारी की दाद देनी चाहिए कि उन्होने ऐसे समय में ऐसा संविधान रचा।

अब, हर समय, प्रत्येक 2-4 दिन में वे दूसरे बन गए हैं, फलाने दूसरे बन गए हैं, ये दूसरे हैं, वो दूसरे हैं, ये बाहर से आए हैं। ये इधर चले जाएँ, वो उधर चले जाएँ। साहित्य तो यह बताता है कि असल में दूसरा तो कोई होता ही नहीं। हम ही वे हैं, वे ही हम हैं। हम भी उनके जैसे हैं और वे भी हमारे जैसे हैं। थोड़ा बहुत खाने पीने में अंतर है या पहनावे में अंतर है तो इससे हमारी बुनयादी मानवता में तो कोई अंतर नहीं आता। जिस देश में कहा गया “वसुधैव कुटुम्बकम” यानि कि सारी वसुधा एक कुटुम्ब है और यह याद रखने की दरकार है कि उस समय और किसी सभ्यता ने ऐसा नहीं कहा था। भारतीय सभ्यता सबसे पहली सभ्यता है जिसने यह प्रतिपादित किया था कि पूरी वसुधा एक कुटुम्ब है। अब आप उस वसुधा को बाँट रहे हैं? यह कह रहे हैं के ये वो नहीं है और वो ये नहीं हैं।  ये जो दूसरे बनाए जा रहे हैं हर दिन किसी न किसी चक्कर से।

विकास के नाम पर हम लगातार पर्यावरण को क्षत विक्षत कर रहे हैं। और साहित्य में प्रकृति के प्रति आसक्ति का भाव, पवित्रता का भाव, सुंदरता का भाव है। भारत में वेदों से लेकर आज तक, काव्य और भी बहुत सारे हैं, चरित काव्य आदि लेकिन जो एक बात उनमें लगातार चलती रही है वह सब प्रकृति काव्य है। प्रकृति के साथ इतना घनिष्ठ संबंध भारतीय सभ्यता का और भारतीय मनुष्य का रहा है। मुझे याद है मेरा जब विवाह हुआ, हम एक छोटे से कस्बे में रहने वाले थे, वहाँ हम, मैं और मेरी पत्नी, एक पेड़ की पूजा करने गए, एक कुंए की पूजा करने गए। हम एक कृतज्ञता प्रगट करते हैं सब चीजों के प्रति जो हमारे जीवन को संभव और समृद्ध बनाती है। और अब हम लगातार, हर जगह हुआ है, नंदीग्राम में, उड़ीसा में हर जगह यह हो रहा है कि हम प्रकृति को नष्ट करने पर तुले हुवे हैं। और साहित्य कि क्यों जरूरत होगी क्योंकि साहित्य तो आड़े आयेगा, वह तो कहेगा कि पीपल में भी जीवन है। जगदीश चंद्र बसु, यहीं के थे, उन्होने ही सबसे पहले यह प्रतिपादित किया था कि पौधों में भी जीवन होता है और हमें उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। फिर तरह तरह कि एकात्मता। भारत एक सभ्यता में अपनी बहुलता से ही जीवित रहा है। हमारी सभ्यता में कुछ भी एक वचन नहीं रहा और थोड़ी देर के लिए रहा भी तो उसको बहुवचन होना पड़ा। चाहे वह ईश्वर हो, चाहे धर्म हो, चाहे भाषा, चाहे पहरावा, चाहे भोजन, हर चीज यहाँ बहुल है। यहाँ हर चीज में बहुलता है। हर चीज बहुवचन है। बल्कि अनेक विदेशी भाषाओं में इंडिया  शब्द ही बहुवचन है। मैं जब एक बार पोलैंड में भाषण दे रहा था तो वहाँ एक जन खड़े हो गए और बोले कि पोलिश भाषा में तो इंडिया बहुवचन है। इस बहुलता को, बहुवचनात्मकता  को हम एक वचन, एकात्म क्यों कर दें, कैसे कर दें? इतने धर्मों का देश, हिंदुओं से ही लें, ब्रह्म से शुरू हुवे, पहले त्रिमूर्ति, फिर 33 करोड़ देवता। 33 करोड़ तो हमारी जनसंख्या नहीं रही होगी उस समय। यह हमारी देव संख्या हमारी जनसंख्या से ज्यादा हो गई थी। और इतने सारे और तरह तरह के देवता होने का मतलब क्या है? तरह तरह के ग्राम देवता थे। स्थान देवता था, गृह देवता थे, पीपल में देवता, बरगद में देवता, हर जगह में पवित्रता का भाव, यह बहुलता का भाव।  भारत में आजादी के पहले  हम ज्यादा आजाद ख्याल के थे। आजादी के बाद हम ज्यादा गुलाम हुवे हैं। भारत में ही गांधी, रवीन्द्रनाथ, अरविंद घोष, थोड़ा पहले विवेकानंद, राम मनोहर लोहिया, ये लोग थे जिन्होने पश्चिम के वर्चस्व को, गुलामी को प्रश्नांकित  किया और एक उग्र आलोचना प्रस्तुत की, पश्चिमी सभ्यता की। गांधीजी से जब पूछा गया कि पश्चिमी सभ्यता के बारे में आपका क्या विचार है? तो गांधी ने कहा कि ओ, यह एक अच्छा विचार है। ये कह पाना 1910 में जब हिन्द स्वराज लिखा। यह सिर्फ एशिया से ही नहीं सारे संसार से पश्चिमी सभ्यता कि पहली उग्र आलोचना है।  उसके पहले पश्चिमी सभ्यता को प्रश्नांकित करने का कोई उपाय नहीं था। यहा प्रश्न साहित्य में हुवा है। हमारा पिछले पचास वर्षों का साहित्य प्रश्न का साहित्य है। प्रश्नवाचक साहित्य है। वह चाहे शंकर घोष जैसे बड़े कवि का हो चाहे मेरे जैसे छोटे कवि का हो। हम सब प्रश्न पूछते हैं। बने बनाए उत्तरों को हम नाकाफी मानते हैं। तो अब इसकी किस को जरूरत है?

अब साहित्य में बहुत से छुटभैये बहुत से अवतारों में  प्रगट हो रहे हैं। एक जमाने में तो यह था कि ईश्वर अवतार लेते हैं, अब छुटभैये अवतार लेते हैं। कभी इधर से पैदा हो जाते हैं, कभी उधर से पैदा हो जाते हैं और हम उनसे आक्रांत हैं। जबकि साहित्य एक तो साधारण व्यक्ति कि महिमा प्रतिपादित करता है। उसमें नायक नहीं है कोई। इस समय हम नायकत्व से बुरी तरह आक्रांत हैं, कि हम भूल गए हैं कि इस समय साधारण लोग नायक हैं। और साहित्य में तो साधारण लोग ही नायक है। पिछले 100 वर्षों के साहित्य का नायक, पिछले ऐतिहासिक और पौराणिक नायकों को अपदस्थ कर साधारण को केंद्र में लाने का है। आप नायक चाहते हैं और हम नायक दे नहीं सकते क्योंकि हम नायकों में विश्वास नहीं करते। हमारा नायक तो साधारण आदमी है, जैसे होरी, बामनदास। ये नायक हैं। ये नायक तो आपको चाहिये नहीं आपको तो मिले हुवे  हैं बड़े बड़े नायक और दहाड़ रहे हैं।

फिर साहित्य में हँसना भी है और रोना भी है। हँसना है अपनी मूर्खताओं पर। हम अपनी मूर्खताओं पर नहीं हँसते हम दूसरों कि मूर्खताओं पर हँसते हैं। हमको लगता है कि सारी मूर्खताएं दूसरे करते हैं। हम तो पाक साफ हैं। हमें तो वरदान मिला हुआ है। हम तो कभी गलत हो ही नहीं सकते। इत्यादि इत्यादि। साहित्य आपको अपनी मूर्खताओं पर हंसने का भी अवसर देता है। वह दुष्टों, नायकों, खलनायकों पर भी हँसता है उनका मज़ाक बनाता है। श्रीकांत वर्मा कि एक कविता थी –
हैजे से मरती मारती हैं बस्तियाँ
कैंसर से हस्तियाँ
वकील रक्त चाप से
कोई नहीं मरता
अपने पाप से।
ये जो बताने वाला है उसकी बात हम क्यों सुनेंगे? क्योकि वह हमें असहज करेगा। वह जमाना गया जब साहित्य आपको सिर्फ आल्हादित करता था। ये भी उसका एक काम है, लेकिन अब साहित्य आपको विचलित करता है। वह बेचैन करता है क्योंकि वह प्रश्न पूछता है। वह सच्चाई के ऐसे पहलू को आपके सामने लाता है जिनसे आप दरकिनर किए हुवे हैं, या नजर अंदाज करना चाहते हैं। और हम रोते नहीं हैं। यानि कि विलाप करने की जगह नहीं बची समाज में। बची है थोड़ी बहुत जब मृत्यु हो जाए, रुदली ले आयें। वो काम भी अब हम आउट सोर्स कर सकते हैं। साहित्य आपको विलाप करने का भी न्योत देता है। जो अत्याचार हो रहा है, जो अनाचार हो रहा है, जो व्यभिचार हो रहा है, औरों के साथ, औरतों के साथ, आदिवासियों के साथ, अल्प संख्यकों के साथ, उस पर आपको विलाप करना चाहिए। अगर प्रतिरोध नहीं कर सकते, उसके लिए संघर्ष नहीं कर सकते, तो कम से कम दो आँसू तो बहा सकते हो।

लोग पूछते हैं कि आप इतना हँसते क्यों हैं? मैं इसका एक जवाब ये देता हूँ कि मुझे अपनी  मूर्खतायें याद आती रहती हैं और मैं हर दिन मूर्खतायें करता रहता हूँ।  इसलिए उनकी याद कम नहीं होती अत: हँसता रहता हूँ। लेकिन इसका और एक कारण है और गंभीर कारण है। मैं जब संत स्टीवेंस कॉलेज में पढ़ता था तो एक अंग्रेज़ कवि आए थे जो बाद में ऑक्सफोर्ड में “पोइट्रि चेयर” पर भी नियुक्त हुवे। उनकी एक कविता संग्रह का नाम था “वीप बिफोर गॉड” मैंने उसे खरीदा और जब बस में बैठ कर जा रहा था तब मैंने उसे खोला। उसमें एक यहूदी कहावत लिखी हुई थी, “लाफ़ बिफोर मैन, वीप बिफोर गॉड”। मुझे आस्था का वरदान मिला नहीं। मैंने सोचा की ईश्वर तो है नहीं तब मैं कहाँ रोऊँ? मैने सोचा कि रोना धोना छोड़ो, थोढ़ा बहुत कविता में ही विलाप कर लेंगे। बाकी बचा आदमी, उसके सामने हंसो। वैसे भी मेरा नाम अशोक है, उसकी भी लाज रखनी चाहिए। ये जो रोना हँसना है, अपने अंदर की भाव प्रबलता को जगाना है। सपने वही देखने लायक हैं जो दूसरों के लिए देखें जाएँ। अपने सपने देखें, अपनी समृद्धि के सपने देखें, ससुरे दुनिया भर के अपने सपने देखें, अभी बहुत से अपने टुच्चे सपनों का समय है। इसलिए हमने बड़े सपने देखने बंद कर दिये हैं। टुच्चा सपना ये है कि मेरा लड़का अमेरिका चला जाए, उसे अमेरिका में बड़ी नौकरी मिल जाए। और मेरा दो कमरे का घर तीन कमरे का हो जाए। छोटी गाड़ी बड़ी गाड़ी हो जाए। या छोटी गाड़ी के अलावा और एक बड़ी गाड़ी आ जाए। ये सब टुच्चे सपने हैं। साहित्य आपको इस दी हुई दुनिया का विकल्प देती है, आपको जो दुनिया दी गई है इसके अलावा और भी कई प्रकार की दुनिया सम्भव है। ये कहा जा रहा है कि ग्लोबलाइजेशन से बच नहीं सकते। क्यों नहीं बच सकते? हम कोशिश तो करते। हमने कोशिश ही नहीं की। और अब कहते हैं कि अब ग्लोबलाइजेशन  वहीं पर ढल रहा है और हम उत्तर राग की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह जब वहाँ ढह जाएगा तब हम कहेंगे कि हाँ, यह तो बहुत गलत हो गया। वगैरह, वगैरह। इस  बुद्धिहीन आत्म  समर्पण के खिलाफ साहित्य आपको आगाह करता है।

अब दूसरी तरफ देखें तो हमारी संवेदनशीलता धीरे धीरे भोथरी हो रही है। और इसमें एक बड़ी भूमिका हमारी मीडिया और चैनलों की है। हम हत्याओं को चाहे कश्मीर में हो रही हो चाहे कहीं और हो रही हो। चाहे ससुरे, जगह जगह रक्षक पैदा हो गए हैं, ये कर रहे हों, चाहे सेना कर रही हो, चाहे पुलिस कर रही हो। ये हम ऐसे देखते हैं जैसे कोई क्रिकेट का स्कोर देख-सुन रहे हों। उसी समान संवेदनशीलता से देखते हैं। हमारी मानवीयता में बहुत गहरी कटौती हो रही है। हमको मनुष्य से एक दर्जा नीचे रहने के लिए विवश किया जा रहा है। और हम इसको ले कर मुदित हैं कि वह बहुत ही अच्छा हुवा। हमें कोई चिंता नहीं करनी पड़ती है दूसरों की। केवल अपनी चिंता करनी पड़ती है। ये जो संमवेदनशीलता का भोथरा होना है, हिंसा के प्रति हमारा आकर्षण बढ़ना है, यह उतनी ही हिंसक है जितना स्वयं हिंसा। और धीरे धीरे यह पौरुष की निशानी बनता जा रहा है। आप में बड़ा पुरुषार्थ है अगर आप चार दूसरों को मार दें। ये बड़ा भारी पुरुषार्थ माना जा रहा है। यह वीरता है।
     
जिस देश में इन सब विषयों पर प्रश्न पूछे गए..... याद करें महाभारत के यक्ष प्रश्न। इस देश में प्रश्न पूछने से, असहमत होने से, विपथगामिनी होने से, कभी उजिर्न नहीं था।  उसकी जगह थी और हमारी परंपरा में तो यह था कि अगर आप कोई नया विचार प्रस्तुत करें तो उसके पहले यह बताएं कि उसके पूर्व क्या पक्ष था? इस पर पहले क्या कहा गया। फिर आप अपना विचार प्रस्तुत करें। किसी विचार को मान्यता तब तक नहीं मिलती थी जब तक खुले शास्त्रार्थ में वह सत्यापित न किया जा सके। शंकराचार्य तक को शास्त्रार्थ में विजय पानी पड़ी थी। उस देश में अब यह कहा जा रहा है कि बहस नहीं हो सकती। काहे पर बहस नहीं हो सकती। हमारे राष्ट्र प्रेम पर भी हम बहस कर सकते हैं। ऐसा राष्ट्र जो करोड़ों लोगों को गरीब, शोषित, और वंचित रखने पर लागू है वह मेरा राष्ट्र नहीं हो सकता। हमने अपने राष्ट्र की परिकल्पना की है, हमारी परम्परा में वह परिकल्पना है, हमारी संविधान में परिकल्पना है, ये क्या बात हुई और ये सब परम्परा के नाम पर। सबसे ज्यादा लोग परम्परा  की बात करने वाले लोग परम्परा के सब से ज्यादा अज्ञानी या जान बूझ कर उसकी दूरव्याख्या करने वाले। और ये सब हम हाथ पर हाथ धरे देख रहे हैं। हम पढ़े लिखे लोग हैं, हमारे पास साधन हैं, हमारे पास कोई इतनी असुरक्षा नहीं है लेकिन हम इस सब के प्रति एक तरह से ..........

मैंने इतना विलाप कर लिया है। अब साहित्य की जरूरत किस लिए है? पहली बात तो यह कि हमें तीन बोध एक साथ चाहिए। आत्मबोध-हम क्या हैं? दूसरा समाज बोध-वह समाज वह दुनिया जिसमें हम रहते हैं वह क्या है? और तीसरा समय बोध-हमें यह भी जानना है कि हम किस समय में रह रहे हैं। वह समय कैसा है? हिंसक है, आक्रामक है, क्रूर है। हर समय में कुछ गुण तो वही है या दुर्गुण भी वही हैं जो पहले के समय में थे और कुछ अधिक जुड़ जाते हैं सक्रिय हो जाते हैं। इन सब को जानने के लिए साहित्य चाहिए। क्योंकि हम अपने से यह नहीं जान सकते। दूसरे माध्यम हैं अखबार। अब तो सब अखबार बिके पड़े हैं। एक आध ऐसे अखबार हैं जिनमें ...... यानि अभी जो बिल्किस वाला केस था जिसमें हत्या हुई थी, जिन में  डॉक्टर और पुलिस, जिन्हे जिंदगी भर की कैद की सजा दी गई, थी जिसे हाई कोर्ट ने पुष्ट किया है, उसकी खबर छपी, उसमें यह बात छपी ही नहीं।  उसमें और एक छोटा सा मामला था जिसे हाई कोर्ट ने नहीं माना था। वह छपा यानि कि इतना बड़ा फैसला हुआ। 17-18 वर्षों बाद न्याय मिला है। उसकी खबर नहीं छपी उस पर बहस नहीं हो रही है। मुझे  कई बार फोन आता है मैं इंकार कर देता हूँ। झूठ बोलना भी उचित होता है, और नैतिक भी होता है। मैं ऐसे झूठ बहुत बोलता हूँ। जैसे चैनल से फोन आयेगा, “सर आज एक टुच्चे विषय पर बहस है हम उसमें आपकी उपस्थिती चाहते हैं।” मैं कह देता हूँ कि नहीं मैं बाहर हूँ। ऐसे ऐसे टुच्चे विषयों पर राय जानना चाहते हैं जो राय के काबिल ही नहीं हैं और उसपर जानना नहीं चाहते हैं जो दर असल विचार के काबिल हों। ये आपके मानसिक स्तर को घटाया जा रहा है।

दूसरे, हम सब अपनी आत्मा की कारा में बंदी हैं। उस से मुक्ति का कोई एक स्थायी उपाय नहीं है। भवसागर से मुक्ति होगी तभी संभवत:   मुक्ति होगी। लेकिन साहित्य एक थोड़ा सा रास्ता खोलता है कि आप दूसरों से अपने को identify करने लगते हैं। इसलिए ऐसे चरित्र जिनसे आपका कोई ताल्लुक नहीं उन चरित्रों के जीवन पर, उनकी घटनाओं पर, उनके दुखों सुखों को लेकर, दुखी सुखी होते हैं। और साहित्य आपको फ़ौसला देने से रोकता है। टोल्स्तोय के एक महान उपन्यास, एनाकेरेनिना आपने पढ़ी होगी या सुनी होगी। यह एक बदचलन पत्नी के बारे में है, एना केरेनिना। वह विवाह से अलग एक प्रेम में फँसती है। इसमें तो जाहिर है कि उसकी निंदा होनी चाहिए, उसको सजा होनी चाहिए। या उसको दंड दिया जाना चाहिए। लेकिन टोल्स्तोय यह करने से रोकते हैं। बाइबिल की एक बड़ी प्रसिद्ध उक्ति है,judge not for thee shall be judged”। “फैसला मत दो क्योंकि तुम पर भी फ़ौसला बरपेगा।” टोल्स्तोय क्या कह रहे हैं? हाँ, इसने गलत किया है। इस स्त्री ने विवाह की मर्यादा को तोड़ा है। लेकिन ठिठक कर सोचो कि उसने ऐसा क्यों किया है? क्या उसका कोई औचित्य है? क्या इससे वह अपनी मानवीयता को एक तरह से प्रतिपादित कर रही है, सत्यापित कर रही है? साहित्य आपको फैसला देने से रोकता है और यह याद दिलाता है कि फ़ौसला मत दो। इसकी बहुत हड़बड़ी हो गई है। हर चीज पर हम फैसला ही देते रहते हैं। सुबह से शाम तक यह ठीक नहीं है, वो गलत है। फिर हमने ऐसे प्रश्न पूछने ही बंद कर दिये हैं जो मानवीय स्थिति के लिए अनिवार्य है। यानि नश्वरता के बारे में। हम सदियों से इसके बारे में प्रश्न पूछते आए हैं कि क्या होगा नश्वरता के बारे में? क्या हमारा जीवन इतना ही है? क्या जब एक समाप्त होगा तो सब समाप्त हो जाएगा या पुनर्जन्म होगा? ये प्रश्न हम पूछते रहे हैं। हम यह प्रश्न पूछते रहे हैं कि मनुष्य कि नियति क्या है? कबीर ने तो कहा है, अलख चबेना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद। यानि हम सब काल के चबैना हैं। कुछ मुंह: में रखा हुआ है और कुछ गोद में है। क्या हम इतने ही हैं? क्या हमें थोड़ा सा, इतना ही समय मिला हुआ है? या कि हम इससे अलग भी होंगे? इसके बाद भी होंगे? वे लोग भी होंगे जो अपने किए धरे का कुछ नहीं छोड़ गए होंगे? लेखकों को तो थोड़ा सा अबोध सा विश्वास होता है कि मरने के बाद भी कुछ समय तक तो उनकी पुस्तकें जीवित रहेंगी। शायद! खुदा जाने रहेंगी या नहीं रहेंगी लेकिन अधिकांश के तो ऊनके जीवनकाल में ही नहीं रह पातीं तो उनके मरने के बाद क्या होगा? लेकिन फिर भी अबोध सा विश्वास होता है। लेकिन यह प्रश्न पूछना हमने बंद कर दिया। क्या संबंध है? हम ब्रह्मांड का हिस्सा हैं। हम सिर्फ पृथ्वी का हिस्सा नहीं हैं। ये पृथ्वी ब्रह्मांड का हिस्सा है। इसमें हमारी क्या स्थिति है? ये प्रश्न साहित्य में पूछे जाते हैं। कविता में इसका अहसास होता है। लेकिन हमने जीवन में यह प्रश्न पूछना  बंद कर दिया है। हम घटिया प्रश्नों में फंस गए हैं। हम सब अपने समय से मुक्त होना चाहते हैं, कभी न कभी।  और साहित्य यह अवसर देता है। आप समय से मुक्त होना चाहें तो रामायण पढ़ लीजिये, महाभारत पढ़ लीजिये, कालिदास पढ़ लीजिये, रवीन्द्रनाथ पढ़ लीजिये, इतना सारा साहित्य है। साहित्य आपको समय से मुक्त करता है। और फिर भी आपको अपने समय में अधिक गहराई से अवस्थित भी करता है। एक साथ। यह समय से मुक्ति ऐसी नहीं है कि आप समय को छोड़ कर आगे निकाल जाएंगे। वह समय से मुक्ति  ऐसी है कि आप अपने समय में भी रहते हैं और समय से बाहर भी जा पाते हैं।

साहित्य में छोटा से कोटा सच भी खराब नहीं जाने दिया जाता है। ऐसी कविता होगी, ऐसा एक दृश्य होगा जिसमें एक लड़की दरवाजा खोल रही है। खिड़की खोल रही है और अपनी शय्या ग्रस्त माँ को बता रही है कि सूर्योदय हो रहा है और एक फलानी चिड़िया, पीले रंग की या नीले रंग की वहाँ किसी डाल पर बैठी है। यह अपने आप में कोई एक सच था जो थोड़े समय के लिए हुआ और साहित्य में बचा रह गया। ये बचाने का काम है, छोटी छोटी बातों को, छोटे छोटे दृश्यों को, छोटे छोटे अनुभवों को। हम विराट अनुभवों से थोड़े ही न जीते हैं? कई बार काज बटन से छोटा पड़ जाता है और बटन नहीं लगती है, झुंझलाहट होती है। इसको भी कविता बचा सकती है। इस पर भी कुछ हो सकता है।

मैंने कहा था ब्रह्मांड बोध। ब्रह्मांड बोध का मतलब क्या? हमारे समय में साहित्य ही अब एक मात्र अध्यात्म है और वह इस अर्थ में है कि एक, वह आपको ब्रह्मांड का हिस्सा होने का अहसास देता है। दूसरा, वह आपको इस बात की भी याद दिलाता है कि इस ब्रह्मांड में सब चीजें एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। सब अंतर गुंफित हैं। और तीसरा यह कि सब एक दूसरे के लिए जिम्मेदार हैं। यानि नदी, पर्वत, आकाश, वनस्पतियाँ, पक्षी, पशु ये सब मनुष्य के प्रति जिम्मेदार हैं और मनुष्य उनके प्रति जिम्मेदार हैं। साहित्य यह भी बताता है कि संभवत: नदियां, पर्वत, पशु, पक्षी, फूल, पत्ते सब अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हैं। मनुष्य अपनी ज़िम्मेदारी निभाने से चूक रहा है। ये याद दिलाना ही अध्यात्म है। और क्या है? इससे परे कोई कल्पना नहीं है कि कोई विराट है, ईश्वर है, हो तो ठीक है नहीं है तो ठीक है अपना कम तो चल ही रहा है। लेकिन वह अपना, स्वयं अपना एक बोध पैदा करता है जो बड़ा बोध है। उस बड़े बोध को सक्रिय और सजीव रखने के लिए साहित्य चाहिए। साहित्य इस लिए चाहिए कि आप एक विराट स्पंदन, शंख घोष का शब्द है छंद स्पंदन, छंद स्पंदन हो रहा है उसका कभी कभी थोड़ा आपको स्पर्श मिल सके।


कोई टिप्पणी नहीं: