संस्कार
देने और लेने की अलग से कक्षा नहीं होती। यह न पाठशाला में पढ़ने की है न घर पर। न विश्वविद्यालय में सीखा जा सकता है न पुस्तकालय में प्राप्त है। न बचपन में सीखते
हैं, न जवानी में। न मंदिर में, न मस्जिद-गिरजा-गुरुद्वारा में। न घाटियों में, न पहाडों की चोटियों पर। न
कन्दराओं में, न नदी के किनारे । इनमें से कहीं भी और किसी
से भी नहीं लेकिन इन सबों से और हर किसी से। बशर्ते हमारी आँखों को देखना आए और कानों
को सुनना आए। मस्तिष्क में ग्रहण करनी की शक्ति होनी चाहिए, उसे
स्वीकार करना आना चाहिए। शायद इसीलिए कहा
जाता है कि हर समय शुभ बोलना चाहिए, निर्माण की बात करनी चाहिए। क्या पता कब कौन कहाँ संस्कारित हो जाए?
पाठशाला का
वह मेरा प्रथम दिन था। टाटपट्टी की खाली जगह की ओर इशारा करते हुए मास्साब ने कहा,
“यहाँ बैठो” , और पूछा, “क्या नाम है तुम्हारा”?
“किसना”,
मैंने धीरे से अपना नाम बताया।
“किसना
.....नहीं.....” वे बुदबुदाये थे, “किशनलाल......रामकिशन.....” फिर मेरी तरफ देख
कर कहा था, “किसना नहीं, तेरा नाम रामकिशन
है आज से!..... क्या है”? वे मेरी ओर देख रहे थे।
“रामकिसन”
मैंने जैसे तैसे उच्चारा था।
“रामकिसन
नहीं, रामकिशन! श सीटी वाला!” उन्होने कहा था।
आगे चलकर मुझे
पता लगा था कि मास्साब का उस दिन का सिटी वाला ‘श’ ही हिन्दी भाषा विज्ञान में ‘तालव्य’ श कहलाता है।
अनुपममिश्र के संपर्क में आए हर व्यक्ति ने यह अनुभव किया है कि वह पारस के संपर्क में
आ गया है। और वे इस पारस की अनुभूति अपनी करनी से करवाते थे। एम्स के डॉक्टर
प्रसून चक्रवर्ती अनुपम मिश्र को याद करते हुए लिखते हैं-
उनसे मिलने
और उन्हे जानने के बाद मुझे अपने अस्तित्व का अंदाजा हुआ। हम कितने पानी में हैं, इस
अनुपम मिश्र |
अपनी कथनी
और करनी पर नजर रखिए। आप सबसे पहले अपने ही परिवार को संस्कारित कर रहे हैं जिनमें
हैं आपके बच्चे, आपके पति / पत्नी, भाई बहन आदि। और उसके बाद वे सब जिनसे आप सम्पर्क में
आते हैं।