शुक्रवार, 10 मई 2019

दान और विक्रय



दान
नरेंद्र (स्वामी विवेकानंद) पंडित शिवराम से संस्कृत पढ़ा करते थे। गरीबी के कारण उनका पूरा परिवार कुछ दिनों से भूख से व्याकुल था, परंतु इससे अप्रभावित रहते हुए पंडित अपना अध्यापन कार्य उसी उत्साह व मनोयोग से करते थे। एक दिन डाकिया उनके लिए एक तार व मानिओर्डर लाया और उन्हे दस रुपए देकर चला गया। पंडित जी ने तार पढ़ा तो उनके आँखों से आँसू निकल पड़े। नरेंद्र ने उनसे पूछा, “गुरुजी! ऐसा क्या हुआ कि आप इतने भावुक हो रहे हैं?” पंडित शिवराम बोले, “ नरेंद्र! ये प्रभुकृपा के प्रति कृतज्ञता के आँसू हैं। यह कहकर उन्होने वह तार नरेंद्र को पढ़ने के लिए दिया। वह तार काशी  से आया था और एक शिव भक्त ने लिखा था।
उस भक्त ने लिखा था कि कल मुझे स्वप्न में भगवान शिव दिखे औए मुझसे बोले कि मेरा एक भक्त शिवराम, वरहनगर में तीन दिन से भूखा है। तू उसकी मदद कर। मैं शिवाज्ञा से ये रुपए आपको भेज रहा हूँ। आप इन्हे स्वीकार करें। नरेंद्र इस घटना को सुनकर पंडित शिवराम से बोले, “आप धन्य हैं, जो तीन दिनों से भूखे रह कर भी हमें पढ़ाते रहे। आपने हमें क्यों नहीं कहा”? पंडित शिवराम बोले, “जब हमारे पिता परमात्मा हमारी चिंता कर रहे हैं, तो हम उनके पुत्रों से क्यों याचना करें”। नरेंद्र उनकी श्रद्धा से अभिभूत हुए बगैर नहीं रह सके।  

व्यापार
विद्याधर शास्त्री वाराणसी में विख्यात पंडित थे। धर्म ग्रन्थों का ज्ञान और अनुशीलन दोनों उन्हे प्राप्त था। उनके शिष्य और विद्यार्थी जहां भी जाते उन्हे अपने गुरु और आचार्य के समान ही प्रशंसा प्राप्त होती। विद्याधर शास्त्री की ख्याति का कोई ओर छोर नहीं था। कहा जाता है कि उनके गुरुकुल में एक सहस्त्र विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त कर चुके थे और अपने अपने क्षेत्र में  यश और धन दोनों उपार्जन कर रहे थे। विद्याधर शास्त्री को भी बिना मांगे इतनी गुरु दक्षिणा मिलती थी कि वे पूर्ण वैभव के साथ जीवन यापन करने में समर्थ थे। काल की गति किसी के लिए नहीं ठहरती। विद्याधर शास्त्री का भी समय आ गया तब उन्होने भी खुद को चित्रगुप्त के समक्ष खड़ा पाया। बोले, “महाराज, मैंने तो इतना विद्यादान किया है कि उसके पुण्य के बखान से  आपका पूरा खाता भी अपर्याप्त होगा”। चित्रगुप्त बोले, “आचार्य, आप नि:संदेह विद्वान हैं, परंतु एक बात आप भी समझ नहीं पाये। आपने अगर किसी एक भी ऐसे शिष्य को विद्या दी होती, जो कि आपकी गुरुदक्षिणा देने में असमर्थ था, तब मैं उसे दान समझता। आप ने विद्यादान कहाँ किया, अपने तो विद्या का विक्रय किया है”।

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