शुक्रवार, 14 जून 2019

हाँ, हम करेंगे

मेरे यहाँ मेहमानों का तांता लगा रहता है। अभी कुछ ही दिनों पहले एक युवा दंपत्ति बिहार के एक छोटे से शहर से आए थे। उनके साथ एक 4 वर्ष का बच्चा भी था। उनके लिए मिठाई लेनी थी। बच्चा भी साथ में ही था। दुकानदार ने मिठाई के डब्बे को एक प्लास्टिक के थैले में डाल कर मुझे पकड़ा दिया। बच्चे ने तुरंत मुझे टोका दादू, प्लास्टिक मत लीजिये। प्लास्टिक अच्छी चीज नहीं है। मैंने आश्चर्य से उसकी तरफ देखा और पीके की एक खास मुद्रा में कहा अच्छा...आ...आ...आ। और फिर उसका ज्ञान प्रारम्भ हुआ - दादू, इस प्लास्टिक को हम फेंक देते हैं, उसे गाय खा जाती है। इससे गाय की तबीयत भी खराब होती है और दूध भी। या फिर प्लास्टिक का बैग नालियों में जा कर नाली को जाम कर देता है जिससे गंदगी फैलती है। नदी में जाती है तो नदी को गंदा करती है। मैंने भी प्लास्टिक के बैलून लेने बंद कर दिये हैं

मैंने डब्बे को प्लास्टिक के थैले से निकाला और थैले को वापस कर दिया। अगल बगल दूसरे ग्राहक भी उसका ज्ञान सुन रहे थे। सबों ने प्लास्टिक के थैले वापस कर दिये । बच्चा बहुत खुश हुआ और बोला दादू! जब भी बाजार जाएँ तो साथ में एक थैला लेकर जाइए मैंने स्वीकृति में सिर हिलाया और दुकान से बाहर निकल गया। निश्चित रूप से यह बात बच्चे को स्कूल में ही बताई गई होगी। हम अध्यापक - अध्यापिकाओं पर, आज की शिक्षा पर अपनी टिप्पणी देते हैं, लेकिन क्या हमारे पास खुद के गरेबान में झाँकने का समय है?  क्या हम बच्चों की बात सुनते हैं, समझते हैं? हम बच्चों को शिक्षित कर रहे हैं या अशिक्षित? याद आए वे दिन जब हम बाजार जाते थे तो अपने थैले साथ लेकर ही जाया करते थे। प्लास्टिक बैगों ने पर्यावरण को दरकिनार कर र हमें सुविधा भोगी बना दिया।

कहीं पढ़ा था, अब हम घरों में नहीं, फ्लैट्स में रहते हैं। मोहल्लों में नहीं सोसाइटी में रहते हैं। अब हमारे फ्लैट्स  में रसोई नहीं मॉड्यूलर किचन होते हैं। जहां दादी-नानी, माँ-चाची-बुआ की मीठी मीठी रसोई नहीं, मॉम-आंटी के स्नैक्स एंड केक्स बनते हैं। वह भी शौकिया तौर पर। क्योंकि हर चीज़ बनाने, पकाने और बेचने का जिम्मा तो बाजार ने ले लिया है। आप तो बस ऑर्डर दीजिये, पिज्जा-बर्गर तो क्या, लिट्टी-चोखा तक आपकी डाइनिंग टेबल पर  प्लास्टिक बैग के साथ हाजिर हो जाएगा


इस संस्कृति को दबा कर जो एक नई संस्कृति पैदा हो रही है।  यह संस्कृति हमें  दो मुखौटों की जिंदगी जीना सिखाती है। श्री नारायण मूर्ति ने यह बात बड़े सहज ढंग से यूं कही, किस तरह भारतीय सुशिक्षित वर्ग अपने बच्चों को तो अँग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेजता है जबकि गरीब बच्चों को देसी स्कूलों में भेजने का दबाव डालता है, खुद विलासिता में रहते हुए भी गरीबी के गुणों की तारीफ करता नहीं थकता, खुद आराम से शहरों में बैठे रहकर ग्रामीण जीवन को महिमामंडित करता है। हमारे इस सुशिक्षित वर्ग का काली चमड़ी, गोरा नकाब का व्याहवर समाप्त करना आवश्यक है। क्या हम ऐसा कर सकते हैं? यस वी कैन, हाँ हम करेंगे। 

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