शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2019

ऑस्ट्रेलिया – दुर्गा पूजा


ऑस्ट्रेलिया – दुर्गा पूजा

माँ दुर्गा 
भारत के हर प्रान्त की भाषा, साहित्य, संस्कृति, कला, संगीत प्राय: अलग अलग हैं। हर प्रान्त को  अपनी इस विरासत पर गर्व है। प्रान्तीय संस्कृति ही भारतीय संस्कृति है।  लोगों का अपने क्षेत्रीय संस्कृति से लगाव अलग अलग धरातल पर है।  हम यह जानते हैं कि बंगाल उन कुछ एक प्रान्तों में है जिन्हे अपनी संस्कृति से बेहद लगाव भी है और बंगालियों की गहरी पैठ भी है। यही कारण है कि पत्र-पत्रिका-साहित्य पढ़ना, संगीत सुनना हर बंगाली का शौक है। वे अपने बच्चों को नृत्य-संगीत की शिक्षा भी देते हैं। बंगाल का प्रमुख त्योहार दुर्गा पूजा है। शरद ऋतु में अश्विन की सप्तमी, अष्टमी और नवमी, तीन दिन दुर्गा माता की बड़ी धूम-धाम, श्रद्धा और भक्ति से आराधना की जाती है। जहां बड़ों और बुजुर्गों के लिए यह एक पूजा-अनुष्ठान का समय होता है वहीं बच्चों और युवक-युवतियों के लिए छुट्टी, मस्ती और सैर सपाटे का। जगह जगह सार्वजनिक दुर्गा पूजा का आयोजन होता है। मेले लगते हैं। सजावट होती है। झूले, चाट-पकौड़े की धूम रहती है। पूरा बंगाल, विशेषकर कोलकाता दुल्हिन की तरह सज जाता है। युवक-युवती, बाल-वृद्ध क्षमतानुसार सारी सारी रात घूमते हैं। इन तीन दिनों के लिए (दुर्गा) माता अपने पीहर आती हैं जहां उनका बड़े धूम धाम से स्वागत होता है। चौथे यानि दशमी के दिन अश्रुपूर्ण आँखों से माँ की विदाई होती है, सिंदूर खेला होता है। दुर्गा पूजा की गूंज अब केवल बंगाल या भारत तक नहीं बल्कि सारे संसार में सुनी जा सकती है।

खाने का आनंद
ऐसे समय में  सिडनी अछूता कैसे रह सकता है।  सिडनी, ऑस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स राज्य की राजधानी है।  बंगाली एसोसिएशन ऑफ न्यू साउथ वेल्स यहाँ की लगभग 50 वर्ष पुरानी संस्था है। उस समय कई छोटी छोटी संस्थाओं को मिलाकर इसकी नींव पड़ी और तब से यह संस्था लगातार वृहद रूप में सिडनी में दुर्गा पूजा का आयोजन कर रही है। इसके अलावा और भी 4-5 सस्थाएं हैं जो सिडनी के इर्द गिर्द पूजा का आयोजन करती 
खिलाने का आनंद

हैं। विधिवत माता की प्रतिष्ठा, पूजा, अर्चना तो होती ही है साथ ही खाना-पीना, गाना-बजाना भी होता है।

इस संस्था में तकरीबन 500 परिवार सदस्य हैं। पूजा की व्यवस्था सराहनीय है। सदस्यों का सेवा भाव और समर्पण काबिले तारीफ है। भोग पकाने का कार्य सदस्य ही करते हैं। भोग क्या होता है, पूरा खाना ही होता है। मेज-कुर्सी लगी होती है। अतिथि भोजन लेकर आराम से बैठ कर भोग ग्रहण करते हैं। संस्था के 
पान, चाय, चाट , कैंडी और आइस क्रीम

सदस्य ही टेबल पर खड़े रहकर लोगों की सहायता करते रहते हैं। वरिष्ठ नागरिकों के लिए अलग से व्यवस्था होती है, उन्हे पूरे आदर और सम्मान के साथ टेबल कुर्सी पर बैठा कर भोग दिया जाता है। संस्था के सदस्य, पुरुष-महिला-बच्चे, ही खुद घूम घूम कर पूरा कार्य करते हैं। लगभग 1400-1500 लोग जमा होते हैं और भोग लेते हैं। किसी को खाने में आनंद आता है, किसी को खिलाने में तो किसी को पकाने में। कोई पूजा में व्यस्त है, कोई गाने बजाने में। ऐसे आयोजन में अगर चाट – पकोड़ा न हो, चाय और कलकत्ते का पान न हो तो पूरा आयोजन ही फीका हो जाता है। महिलाओं के लिए शॉपिंग स्टॉल तो बच्चों के लिए कैंडी और आइस क्रीम भी रहती है। देश के नियमों और कानून को ध्यान में रखते हुए ज़ोर 
शॉपिंग
का ढोल-धमाका नहीं किया जाता है। लघु रूप में आरती और हल्के से दीया जलाया जाता है। मुझे जिज्ञासा हुई कि यहाँ विसर्जन कहाँ और कैसे किया जाता है। जानकारी मिली कि भारत की  तरह विसर्जन न कर, पूजा के बाद,  प्रतिमा को बड़े हिफाजत से रखा जाता है। उसी प्रतिमा को फिर कई वर्षों तक प्रयोग में लेते हैं तत्पश्चात पूरे आदर और सम्मान के साथ  उसे विघटित कर देते हैं।

ऐसे आयोजनों में भारतीय मूल के लोग अपनी पारम्परिक वेश भूषा में ही आते हैं और खाना-पीना, गाना-बजाना भी भारतीय होता है। ऐसा नहीं है कि केवल बंगाली ही भाग लेते हों। हिस्सेदारी सब प्रांत के लोगों की होती है। हाँ, बहुतायत में बंगाली ही होते हैं। ऐसे आयोजन अपनी मिट्टी से दूर उसकी खुशबू बनाए रखती हैं। 

इतने लोगों की उपस्थिती और भोजन के बावजूद कहीं भी कोई शोर-शराबा नहीं। कहीं जरा सा भी कचरा नहीं। कहीं कोई अनुशासनहीनता नहीं। सब अपनी प्लेट खुद उठा कर यथास्थान टब में डालते हैं। टब की भी निगरानी रखी जाती है। समयानुसार उसे लगातार खाली किया जाता है। कोई यह नहीं मानता कि इसकी सफाई का उत्तरदायित्व सरकार, निगम या आयोजक का है। सार्वजनिक स्थान को साफ रखना उतना ही हमारा कर्तव्य है जितना अपने घर को साफ और सुंदर रखने का। खुद अनुशासन बनाए रखते हैं। बुजुर्गों के स्थान पर युवा नहीं जाते। पंक्ति तोड़ कर बीच में घुसने का प्रयत्न नहीं करते। इसके लिए न हमें किसी कार्यकर्ता की आवश्यकता है न ही पुलिस की। विदेश को हम अपना घर समझते हैं, सभ्य लोगों के रहने की जगह। अपने देश को कूड़े का टब और बदमाशों का अड्डा। विदेश में स्वच्छता बनाए रखना हमारी ज़िम्मेदारी है और अनुशासन बनाए रखना सभ्यता की निशानी। लेकिन वही हम अपने देश में गंदगी करना अपना कर्तव्य और स्वच्छता रखना सरकार की ज़िम्मेदारी मानते हैं। अनुशासन तोड़ना हमें विशिष्ट व्यक्ति बनाता है और उसे मानना आम आदमी। जब तक हम नहीं बदलेंगे, देश नहीं बदलेगा।


सिडनी की पाक्षिक पत्रिका इंडियन लिंक की रिपोर्ट


कोई टिप्पणी नहीं: