ऑस्ट्रेलिया
– वेस्टमीड से मार्सडेनपार्क
बंगाल झारखंड
की सीमा पर एक छोटा सा गाँव है - दुबड़ा। यही है वह जगह, जहां हमारे पूर्वज राजस्थान छोड़ कर आ बसे। मेरा यहाँ रहना कभी नहीं हुआ।
लेकिन बचपन में लंबे समय के लिए हम यहाँ आते थे। बचपन के वे दिन, जो हमने यहाँ बिताए, मानस पटल पर खुद गए हैं। वे
सुहावने दिन बार बार याद आते हैं। सुबह उठना और बगीचे में सैर के लिए जाना, वहीं
जंगल में शौच से निपटना, दतुवन करना, कुएं पर बैठ कर स्नान
करना। झूला झूलना, धमा चौकड़ी मचाना, मंदिर
जाना, पूजा करना, आरती के दर्शन करना। पिकनिक पर जाना। यहीं हमने जाना कि पिकनिक
में बाजार का बना ही नहीं बल्कि घर का पका सामान भी लेकर नहीं जाते। केवल कच्चे
सामान ले जाते हैं और वहीं पकाते हैं। बड़े बुजुर्गों के साथ घर के बाहर निवार या
नारियल रस्सी की बनी खाट या फिर लकड़ी के तख्त पर बैठ कर हवा खाना, मालिश करवाना या धूप सेंकना। तास-चौपड़
खेलना या फिर देखना। सूर्योदय, सूर्यास्त और रात को तारों से भरा आसमान देखना तो
साधारण सी बात थी, क्योंकि खुली छत पर जो सोते थे। नल नहीं थी, लोटा और बाल्टी का प्रयोग होता था। मिट्टी की भट्टी में लकड़ी का ईंधन, धान की खमार, कूटने की धौंकनी जिसे पैर से ठोंकना
पड़ता था। पिछवाड़े में गौशाला। सुबह शाम
बगीचे जाते समय मवेशियों के गले में बजती घंटी की टुनटुन। कच्ची सड़क पर टनटन कर
चलती बैल गाड़ी या फट फट की आवाज करती मोटर साइकल। कभी कभार किसी गाड़ी के दर्शन हो
जाते थे। त्यौहार पर लगता था कि पूरा गाँव
ही अपना परिवार है। सब मिलकर एक साथ मनाते थे। रोज़मर्रा की हर वस्तु आसपास मिल जाती
थी। नहीं है, तो पड़ोसी से ले-लीजिये या फिर वो ला देगा। पहला
कस्बा रघुनाथपुर लगभग 12 किमी और शहर पुरुलिया 40 किमी की दूरी पर। दिन में कई बार
सरकारी बस की सवारी मिल जाती थी, बस क्या खटारा। गाँव में कामचलाऊ डॉक्टर थे, दवाखाना भी। लेकिन अस्पताल नहीं था। छोटा सा विद्यालय भी था और एक
धर्मशाला भी, शादी-व्याह या अन्य किसी प्रकार के अनुष्ठान के
लिए। पैसे का बोलबाला नहीं था। आपसी प्रेम, संबंध और सौहार्द के सीमेंट से जुड़े थे हम।
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घर के दरवाजे से सूर्यास्त |
सिडनी से वेस्टमीड
बड़े शहर से छोटे शहर में और फिर वेस्टमीड से मार्सडेन पार्क जाना ऐसा ही है जैसे
छोटे शहर से गाँव में आ गए। वेस्टमीड से 30 किमी और सिडनी से लगभग 50-55 किमी दूर।
ऐसी शांति कि अपनी सांस लेने की आवाज तक सुन पड़े। छोटे छोटे एक या दो-मंज़िले बंगलानुमा
मकान। हर मकान के साथ एक छोटा सा बगीचा। साफ शुभ्र आकाश। घर के दरवाजे से सूर्योदय
और सूर्यास्त के दर्शन। सूर्योदय पूरब से, आसमान लाल पश्चिम
का। घर से बाहर निकलो और सैर शुरू, वैसे कई छोटे बड़े मैदान
भी हैं। बड़ों के खेलने, दौड़ने और टहलने के लिए। बच्चों के
खेल के लिए भी उनके लायक उपकरणों से भरा पूरा। बड़ों का मैदान भले ही खाली नजर आ
जाए, बच्चे तो भरपूर फायदा उठाते हैं। दूर जंगल के पेड़ और उसके
पार पर्वत शृंखला घर बैठे दिखती है। धूल कहीं नहीं। कहीं कोई जानवर नहीं दिखाई
देता सवाय किसी के पालतू कुत्ते
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सैंत ल्यूक स्कूल |
या आसमान में कांव कांव करते कौवे के। कभी कभार
दूसरे पंक्षी और बगल के जंगल से भटक कर आए जानवर भी दिख जाते हैं। कहीं कोई कच्ची
सड़क नहीं। सब पक्की साफ सुथरी चौड़ी सड़क और उस पर तेजी से दौड़ती गाडियाँ, ट्रक, डंपर और ट्रेलर। नये निर्माण पूरे ज़ोर शोर से
जारी है। इतने लोग रहते हैं लेकिन फिर भी सब अलग अलग। इस पूरे क्षेत्र में कहीं भी
किसी भी प्रकार की कोई दुकान नहीं। न चाय-कॉफी, न साग-सब्जी, न मिर्च-मसाले। इसके लिए कम से कम 7-8 किमी की दौड़ लगानी पड़ेगी। पास पड़ोस
से भी लेने का रिवाज नहीं है। अपने सामानों पर नजर रखिए और समाप्त होने के पहले ही
ले आइए। अपने रेफ्रीजरेटर का पूरा इस्तेमाल कीजिये और हर समय भर कर रखिए। बिजली
जाने का कोई भय नहीं। रसोई में गैस की सीधी सप्लाइ होने के कारण सिलिंडर का कोई
झंझट ही नहीं। न कोई डॉक्टर, न दवाखाना। अस्पताल का तो सवाल
ही पैदा नहीं होता। हाँ, एक स्कूल है। पूरे क्षेत्र में एक
सरकरी बस की व्यवस्था है। बसें नियमत समय सारिणी से चलती ट्रेन की तरह। उनके समय
के अनुसार ही कार्यक्रम बनाना पड़ता है या फिर अपनी गाड़ी के भरोसे। सुरक्षा के लिए हर
घर में अपने अपने कैमरे- साइरन लगे हैं, वैसे कुछ भी
दुर्घटना होने की उम्मीद कम ही रहती है। पड़ोसी से इतनी तो उम्मीद रख सकते हैं कि
किसी भी प्रकार का साइरन बजा तो पुलिस में खबर कर देगा और शायद पुलिस आ भी जाएगी। अभी अभी बसा है यह गाँव,
या यह कहना बेहतर होगा कि अभी भी बस ही रहा है। लोग आ रहे हैं। नए निर्माण हो रहे हैं।
शायद कुछ समय बाद दैनिक जीवन की सुविधाएं आस-पास मिल जाएँ। एक उन्नत देश का एक
आधुनिक गाँव। सुख सुविधाओं से भरा पूरा, जहां आदमी
तो रहते हैं इंसान का पता नहीं।
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मार्सडेन पार्क का एक दृश्य |
हर समय मन
में बना रहता है क्या पुराने दिन वापस आएंगे? क्या कभी वापस अपने गाँव में जा कर कुछ
समय बिता सकेंगे? अपना गाँव भी अब अपना
जैसा रहा नहीं, विदेश का गाँव अपना जैसा हो नहीं सकता। दरअसल दोनों में अपनी खूबियाँ हैं, अपनी कमियाँ हैं और ये व्यक्ति और समय सापेक्षिक हैं। सब खूबियाँ एक साथ हो नहीं सकतीं, सब कमियाँ भी एक साथ नहीं हो सकती। यह मनुष्य को तय करना होता है
कि उसे क्या चाहिए और उसका क्या मुल्य चुकाने के लिए तैयार है। कौनसी खूबियों और कमियों
के बदले कौन सी कमी और खूबी का विनिमय करना है। यहाँ भुगतान पैसों में नहीं, बल्कि, सुख त्याग कर या दुख अंगीकार कर के ही किया
जाता है। यही जीवन का मूल मंत्र है। जो इतनी से बात
समझ लिया वही सुखी है। एक के रहते हुए दूसरे के लिए दुखी होने वाला, तो वही बात हुई कि पानी में रहते हुए पानी को तरसे। लेकिन कमल पानी में
रहते हुए भी पानी से असंपृक्त। जाहे विधि रखे राम, ताही विधि
रहिए।
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मार्सडेन पार्क में खेलते बच्चे और बड़े
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सूर्योदय के समय पश्चिम क्षैतिज पर लालिमा
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