शुक्रवार, 22 मार्च 2024

रूपान्तरण


                     

आश्रम में आये अभी कुछ ही दिन हुए थे। लेकिन धीरे-धीरे पूरा शरीर विशेष कर दोनों पैर और कमर साथ नहीं दे रहे थे, पूरे बदन में दिन भर दर्द रहता था। चलना-फिरना, उठना-बैठना दूभर हो रखा था। किसी भी कार्य में एकाग्रता नहीं हो रही थी। पीड़ा के कारण आत्म-विश्वास की भी कमी हो गई थी। कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हुआ, क्यों हुआ, कैसे हुआ और क्या करूँ? केवल बिस्तर पर पड़े रहने से ही आराम मिल रहा था। आश्रम का कोई भी कार्य दिया जा रहा था तो बिना सोचे और लज्जा का अनुभाव किये तुरंत मना कर रहा था। क्या करता शारीरिक और मानसिक दोनों रूप से लाचार था। कमरे में पड़े-पड़े निबंधों को जाँचने का काम, कुछ नया लिखने- पढ़ने का काम भी नहीं कर पा रहा था। आश्रम में इस प्रकार पड़े रहने में शर्म भी महसूस हो रही थी। अंग-प्रत्यंग ही नहीं बल्कि आवाज में भी पीड़ा की झलक थी, चेहरे पर तो सब लिखा हुआ ही था। ज्योति दीदी ने भाँप लिया था शायद इसीलिये कई बार पूछ चुकी थीं, भैया, आप ठीक तो हैं न। क्या कहता, झिझक में सही बता भी नहीं पा रहा था।  हाँ, हाँ ठीक ही हूँ। यही कहता रहा।

          हर दिन की तरह आज भी मुंह-अंधेरे नींद खुल गई। आज तो बिस्तर से उठा ही नहीं जा रहा था। आज सुबह की सैर पर नहीं जा सकूँगा, यह निश्चय कर मुंह ढक कर वापस सो गया। लेकिन तभी चेतना उठ खड़ी हुई। कल की कक्षा में क्या पढ़ा-सुना? आवाज आई, उठ, आज अभी इसे आजमा कर देख ले कैसा रहता है।       

          कौन-सी कक्षा और क्या पढ़ाई? संकल्प, अभीप्सा और अध्यवसाय। श्री अरविंद और श्री माँ की कृतियों से चयनित अंशों पर आधारित पुस्तक ‘Living Within’ का हिन्दी रूपान्तरण आंतरिक रूप से जीना हमारी मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य और प्रगति के लिये सहायक पुस्तक है। इस पुस्तक की चल रही कक्षा में कल का यही विषय था – संकल्प, सच्चाई या अभीप्सा और अध्यवसाय से हम कैसे रूपांतरित हो सकते हैं, कैसे? कल इस अनुच्छेद को हमने पढ़ा था –

“पहला पग है : संकल्प। दूसरा है सच्चाई और अभीप्सा। परन्तु संकल्प और अभीप्सा लगभग एक ही चीज है, एक-दूसरे के अनुगामी हैं। फिर है, अध्यवसाय। हां, किसी भी प्रक्रिया में अध्यवसाय आवश्यक है, और यह प्रक्रिया क्या है?... प्रथम, निरीक्षण और  विवेक करने की योग्यता अवश्य होनी चाहिये, अपने अन्दर प्राण को खोज निकालने की योग्यता अवश्य होनी चाहिये, नहीं तो तुम्हारे लिये यह कहना कठिन हो जायेगा कि, "यह प्राण से आता है, या मन से आता है, यह शरीर से आता है।" प्रत्येक चीज तुम्हें मिली-जुली और अस्पष्ट प्रतीत होगी। बहुत दीर्घकालिक निरीक्षण के बाद, तुम विभिन्न भागों के बीच विभेद करने तथा क्रिया का मूल समझने में समर्थ हो सकोगे। इसमें अत्यंत लंबे समय की आवश्यकता होती है, परंतु मनुष्य तेज भी जा सकता है। ( पृ 92)

          इस पर चर्चा करते हुए ज्योति दीदी ने बताया कि मन केवल चंचल ही नहीं बहुत हठी भी है और समझदार भी, एक छोटे बच्चे की तरह। अपनी जिद नहीं छोड़ता और अपना कार्य करवाने के सब गुर जानता है। उसे डांट कर या मार कर नहीं समझाया जा सकता है। जैसे छोटे बच्चे को समझा-बुझा कर ही मनाया जा सकता है वैसे ही उसे समझाना होता है।

          इसे ही आजमाने का निश्चय किया, और मैंने एक छोटे बच्चे की तरह उसे समझाना शुरू किया – चल उठ खड़ा हो, नीचे चल।

 ऊँह, नहीं जाना, बहुत दर्द है, ठंड भी है और अभी तो दिन भी नहीं हुआ है। उसने तीन-तीन कारण गिना दिये। लगा स्थिति जटिल है, लेकिन आज मैं भी हारने के लिये तैयार नहीं था। धीरे-धीरे प्यार से समझाना शुरू किया, दर्द मिटाना है न, बिस्तर में पड़े रहने से दर्द कम नहीं ज्यादा हो जायेगा। तब चल-फिर और बैठ भी नहीं पाओगे। उठ गरम जैकेट पहन ले ठंड नहीं लगेगी और तैयार होते-होते दिन भी निकल आयेगा।

नहीं, आज नहीं कल’, उसने बहाना बनाया।   

आज नहीं जाओगे तो कल भी नहीं जाने सकोगे। दर्द बढ़ जायेगा, थोड़ा चलोगे तो दर्द कम हो जायेगा।

          लेकिन, शरीर किसी भी तरह उठने को तैयार नहीं हो रहा था। लेकिन आज मैं भी जिद पर था। तरह-तरह से समझाता रहा, अंत में उसके पसंदीदा रेस्टुरेंट में ले जाने का प्रलोभन दिया, तब शरीर कुछ हिला, तुम बहुत लंबा घुमाते हो, उतना नहीं घूम सकूँगा। इतने चक्कर नहीं लगाऊँगा।

अच्छा ठीक है आधा चक्कर ही लगाएंगे।

पक्का?’

हाँ पक्का’, मैंने वचन दे दिया।

आखिर शरीर मान ही गया। और हम घूमने उतर गये। लेकिन आधी दूरी पूरी हुई ही नहीं थी कि वह फिर से उठ खड़ा हुआ, आधा हो गया, अब वापस चलो।

नहीं’, मैंने अंगुली से दिखाया, वहाँ पहुंचने पर आधा होगा न।

चलो, अब लौटो, आधा हो गया। कुछ ही देर बाद उसने फिर से कहा।

हमलोग गोल-गोल घूम रहे हैं, आधी दूर आ गये, अब वापस जाएँ या आगे चलें बात तो एक ही है, तब आगे ही चलें’, मैंने समझाया।

उसे बात पसंद तो नहीं आई, षड्यंत्र की गंध आई  लेकिन मान गया। पूरा होने पर मैंने जैसे ही कदम आगे बढ़ाया, ये क्या! हो गया अब आगे नहीं।

अरे घूमने नहीं जा रहे हैं सामने श्री अरविंद को प्रणाम करके लौटेंगे। और इस प्रकार समाधि, फूल, तुलसी, मोर और सूर्योदय का लालच देकर मैंने दो चक्कर लगवा ही लिये।

          मन बहुत प्रसन्न था। अच्छा भी लग रहा था – शरीर और मन दोनों को। कल की पढ़ाई आज ही काम आ गई। संकल्प लिया मुझे आज ही ठीक होना है, सोच-विचार कर सुबह-सुबह दो-तीन उपचार किया और बात बन गई। सारी पीड़ा रफू-चक्कर हो चुकी थी और पूर्ण स्वस्थ्य महसूस करने लगा। दोपहर में भोजन-कक्ष में दीदी से मुलाक़ात हुई, मैंने चहकते हुए पूछा, दीदी, आज कैसा लग रहा हूँ।

अभी तो आप ठीक लग रहे हैं भैया।

अपने ही तो ठीक किया है

‘…….’ दीदी मुझे देखने लगी, मैंने पूरा वाकिया सुनाया।

मैंने नहीं, माँ ने ठीक किया है।

हाँ, लेकिन वे आईं तो आपके ही रूप में न।

मेरा रूपान्तरण हो चुका था।

         पढ़ने से, सुनने से, सोचने से कुछ नहीं होता। संकल्प लेकर पूरी सच्चाई और अभीप्सा से अध्यवसाय करने से ही फल की प्राप्ति होती है।

यह प्रत्यक्ष अनुभव था।

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शुक्रवार, 15 मार्च 2024

‘न’ से ‘स’

 


           ‘न’ से ‘स’ तक की यात्रा बड़ी अहम है। अगर इन्हें जोड़ दिया जाए तो बनता है नस। यानी पूरे शरीर में फैली और दौड़ती नलिकायें, कोशिकाएं जिसका कार्य शरीर के हर छोर पर, हर अवयव तक रक्त पहुँचाने तक सीमित नहीं है बल्कि इससे कहीं ज्यादा है। जहां ये अच्छे रक्त को प्रवाहित करती हैं वहीं दूषित रक्त को निकालने का काम भी वही करती हैं। (न)कारात्मक से (स)कारात्मक तक की यात्रा भी यही है। बुरे को निकालना और अच्छे को सँजोना।

          श्री अरविंद सोसाइटी के अध्यक्ष श्री प्रदीप नारंग से मुलाक़ात हुई। उनसे बातचीत करते हुए मैंने कहा कभी-कभी जीवन में जड़ता आ जाती है, ठहराव आ जाता है, अंग शिथिल होने लगते  हैं, मानस कमजोर हो जाता है, संगी-साथी बिछड़ जाते हैं, जीने का कोई लक्ष्य नहीं रह जाता है, मृत्यु की प्रतीक्षा शुरू हो जाती है, लगता है जैसे........।

          उन्होंने बीच में ही टोकते हुआ कहा - क्यों, ऐसे विचार कभी मन में आने ही नहीं चाहिये, जैसे ही ये आयें इन्हें खारिज कर दें, किसी भी प्रकार के नकारात्मक विचार को प्रवेश न करने दें, उसे तुरंत नकार दें। माँ से कहें नहीं माँ मुझे यह नहीं चाहिए इसे हटाएँ। उम्र से जड़ता का क्या लेना-देना है? जड़ता शरीर से नहीं मन से आती है, मन को हर समय तरोताजा, सजग और चुस्त रखें। नकारात्मकता शत्रु है, इसके पहले की वह अपनी जड़ जमाये उसे उखाड़ फेंकिए। अगर एक बार उसने अपनी जड़ें जमा लीं तब उसे उखाड़ना कष्टसाध्य हो जाता है।  माँ से मांगना है तो जीवन मांगें, मृत्यु नहीं। माँ से सकारात्मक रहें, काम मांगे।  यह न  कहें  कि मैं कार्य लायक नहीं रहा, कहें कि मुझे कार्य दें और उसे करने योग्य बनाएँ। वैसे उस कार्य के योग्य बनाने के लिए भी कहने की आवश्यकता नहीं है। माँ खुद उसके योग्य बनायेगी। राम का उदाहरण लें, उन्होंने योग्य लोग नहीं खोजे, जो मिला उसे ही उस कार्य के योग्य बनाया। ईश्वर योग्य लोगों को अपने पास नहीं बुलाते, बल्कि जिन्हें बुलाना होता है उन्हें योग्य बना लेते हैं। हाँ यह कह सकते हैं कि अगर माँ को लगे कि इस जन्म का मेरा काम हो गया है तो इस प्रकार प्रस्थान करूँ कि किसी का सहारा न लेना पड़े, किसी का मोहताज न बनूँ, किसी के आश्रित न रहूँ।

          एक बार शत्रु किले में घुस जाए तो फिर उसे हराना और भगाना आसान नहीं होता। अंग्रेज़ यहाँ आए। धीरे-धीरे वे अपने पैर फैलाने लगे और अपनी सत्ता जमाई। अगर उसी समय उन्हें उखाड़ दिया जाता, जमने नहीं दिया जाता तो उन्हें बाहर निकालने का कार्य सहजता से हो जाता। लेकिन जब एक बार उन्होंने अपनी सत्ता जमा ली, जड़ें जमा लीं, तब फिर उन्हें उखाड़ने में सदियाँ लगीं, लाखों को अपनी कुर्बानी देनी पड़ी, देश के दो टुकड़े हुए तब जा कर उन्हें बाहर निकाल पाये। यह साधारण सी बात एक अनपढ़ किसान भी अच्छी तरह से समझता है। खेतों में जहां अपनी फसल को  सहेजता रहता है वहीं निरंतर स्वयं उगने वाले पौधों, घास-फूस, जंगल को भी निरंतर उखाड़ता रहता है। उसे मालूम है कि अगर एक बार ये फैल गए तो वे उसकी फसल का रस चूस लेंगे और उन्हें काटना कठिन हो जाएगा।

          रस्किन बॉन्ड का नाम हम सभी ने सुना है, जीवन के 90 वसंत देख चुके हैं। जब उनसे पूछा गया कि क्या आप फिर से 29 वर्ष के बनने का सपना देखते हैं? उन्होंने छूटते ही कहा – ‘29 का सपना क्यों, मैं अनुभव करता हूँ कि मैं 29, 19 या 9 का हूँ। हाँ यह सही है कि कुछ एक दांत अब खो गए हैं और गाल थोड़े लटक गए हैं लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है! मैं आध्यात्मिक भी नहीं हूँ उस अर्थ में जिसे प्रायः अध्यात्मिक होना कहा या समझा जाता है। लेकिन मैं धार्मिक हूँ इस अर्थ में कि मैं अपने आप को प्रकृति से जुड़ा हुआ पाता हूँ। पक्षी, पेड़, पौधे, फूल, नदी, तालाब, पहाड़ की पवित्रता मुझे स्पर्श करती है। यह तो प्रकृति ही है  जिसने हमें बनाया है। 

          हाँ, प्रकृति से जुड़ें, प्रकृति से जुड़ना आध्यात्मिकता ही है। बढ़ती उम्र के साथ कुछ-एक बातें ध्यान में रखनी चाहिए, मसलन अकेलापन। यह मत सोचिए कि आपके अनेक दोस्त हैं, परिचित हैं और वे अभी लंबे समय तक आपके साथ रहेंगे।  उनका कोई भरोसा नहीं वे कब आपको अकेला छोड़ कर चल दें। जरा विचार कीजिये जैसे आप सोच रहे हैं वैसे वे भी सोच रहे हैं। भरोसा दोनों में से किसी का भी नहीं है। अकेलापन वैश्विक तौर पर संक्रामक माना गया है। यह हमारी जिंदगी में एकदम अचानक अप्रत्याशित रूप से उस समय आता है जब हमें इसकी जरा भी आवश्यकता नहीं होती है। अकेलापन और एकांत एक नहीं हैं। एकांत वह अवस्था है जिसे हम कई बार खोजते रहते हैं विशेषकर तब जब इस भाग-दौड़ की जिंदगी से हम कुछ समय के लिए दूर जाना चाहते हैं, उससे बचना चाहते हैं, उससे ऊब होने लगती है। और तब अपनी कर्म स्थली से बाहर जाकर, कुछ समय रह कर पुनः तरो-ताजा होकर वापस आते हैं।  बड़े शहरों में यह अकेलेपन की अनुभूति ज्यादा होती है जहां किसी के पास किसी दूसरे के लिए समय ही नहीं होता है, सही अर्थों में अपने खुद के लिए भी समय नहीं होता।   एक दूसरे को और अपने आप को जानने की फुर्सत नहीं होती। हर कोई हर दूसरे को संदिग्ध दृष्टि से देखता है। झुंड में रहने वाले, अनेक दोस्तों और परिचितों से घिरे रहने वाले लोग भी भीड़ में अकेले होते हैं। बड़े-बड़े कॉम्प्लेक्स में रहने वाले भी अकेलापन महसूस करते हैं।

          इसकी तैयारी आपको पहले से करनी है। कोई-न-कोई शौक पाल लें, जिस में आप अपने आप को झोंक सकें – दिन दहाड़े या मध्य रात्रि की नीरवता में भी। अकेले रहने से भी अकेलापन अनुभव होता है। इसका सबसे आसान और बेहतरीन उपाय है – दोस्त, पुस्तकें और  अध्यात्म। दोस्तों का पता नहीं कौन पहले जाएगा, सुबह मिल कर आए शाम को छोड़ कर चला गया। पुस्तकों को अपना साथी बनाएँ। अलग-अलग विषय और भाषा में। इनमें बच्चों के कॉमिक्स,  जासूसी कहानियाँ, हंसी-व्यंग, कविता-गजल, कहानी-उपन्यास, आध्यात्मिक-साहित्य, इतिहास-भूगोल, विज्ञान-वाणिज्य, काल्पनिक-यथार्थ, पत्र-पत्रिकाएँ। कहने का मतलब यह कि कोई भी हो, कैसी भी हो, जैसा मूड हो वैसी ही सही।  पढ़ने के साथ लिखने का मन हो तो लिखिए भी।  आपका समय तो निकल जाएगा लेकिन हो सकता है रहें अकेले ही।

          पढ़ने के अलावा जहां आप अपने को व्यस्त कर सकते हैं वे हैं,  अध्यात्म, सेवा। अगर इनमें अपना मन रमा लें तो ये छोड़ कर भी जाने वाले नहीं। बहुतों से सेवा नहीं होती। धन तो दूर की बात है, एक मुस्कुराहट, दो मीठे शब्द, अपना समय भी नहीं दे पाते। लेकिन सही मायने में अपने को सकारात्मकता के साथ व्यस्त रखने का सबसे अच्छा उपाय सेवा भाव ही है। इसमें आप अकेले भी नहीं होते।  लेकिन इसकी भी अपनी शर्तें हैं – अहम से बचना। धन, मान, सम्मान, पद, प्रतिष्ठा से ज्यादा खतरनाक अहम है सेवा भाव का। किसी की सहायता करते समय यह मत सोचिये कि भविष्य में वह आपके काम आएगा। यह भी आशा मत रखिए कि आपने दान दिया है या निष्काम भाव से सेवा की है तो आपको फूलों की माला मिलेगी, काँटों का ताज भी मिल सकता है, इसके लिए निर्विकार रूप से तैयार रहिए। बस सहायता करके, भूल जाइए। क्योंकि यह आशा का भाव ही भविष्य में आपके दुख का कारण बनता है । आप जो भी कर रहे हैं वह परमात्मा देख रहा है.. उससे छिपा नहीं है। दूसरे जो कर रहे हैं उसे भी वह देख रहा है। ना किसी को जताइये, ना ही बताइये। बस इतना विश्वास रखिये कि जब ईश्वर ने उसकी सहायता के लिए आपको भेजा है तो निश्चित है कि जब आपको आवश्यकता होगी वह किसी न किसी को भेजेगा।

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शुक्रवार, 8 मार्च 2024

सूतांजली मार्च 2024

 


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शुक्रवार, 16 फ़रवरी 2024

श्रद्धा और विश्वास


          

विज्ञान के आविष्कार और खोज वर्षों के सतत प्रयास का फल है। आज वह जिस मुकाम पर है वहाँ तक पहुंचने में उसे शताब्दियाँ लगीं और अभी भी वह बच्चा ही है। एक ऐसा समय भी था जब उष्णता को नापने का न कोई यंत्र था न ही कोई मापदंड। लेकिन फिर विज्ञान को इसका ज्ञान हुआ और ताप को नापने के यंत्र भी बने और उनके यूनिट मसलन सेंटीग्रेड – फ़ौरेनहाइट आदि ईजाद हुए। उसी प्रकार एक समय था जब दिन, समय, वजन, लंबाई, चौड़ाई, कोण, गति, दबाव, ध्वनि आदि किसी को भी नापने के यंत्र नहीं थे लेकिन विज्ञान ने प्रगति की और उसने नये-नये यंत्रों का आविष्कार किया और उनकी यूनिट भी ईज़ाद होती चली गईं। ऐसा नहीं था कि जब तक इनकी खोज नहीं हुई, इनका आविष्कार नहीं हुआ, ये नहीं थीं। ये थीं लेकिन हमें उनका ज्ञान नहीं था। आज भी विज्ञान इतना सक्षम नहीं हुआ कि अच्छाई-बुराई, नीला-हरा, सत्य-झूठ आदि को नाप सके और उनकी गणना कर सके। शायद एक समय ऐसा आयेगा कि विज्ञान इनकी तह तक पहुँच जाएगा और इनके हल भी खोज निकालेगा। श्रद्धा और विश्वास की भी विज्ञान के दृष्टिकोण से यही स्थिति है। अगर विज्ञान अभी वहाँ तक नहीं पहुँच सका है तो इसका यह अर्थ नहीं है कि इनका न कोई महत्व है, न अस्तित्व। और ऐसा भी नहीं है कि ये हमें स्पर्श नहीं करते या हमें प्रभावित नहीं करते। विज्ञान बजाय यह मानने के कि हम अभी नादान हैं इनके प्रभाव और अस्तित्व को कमतर आँकता है या नकार देता है। श्रद्धा और विश्वास हमारे चरित्र के वे विशेष गुण हैं जिनका हमारे जीवन को निखारने में विशेष सहयोग है। 

          प्रसिद्ध व्यवसायी जगदीश एक व्यापारी के साथ सौदा करने, अपने सहायक विजय  के साथ मथुरा की यात्रा पर थे। वे नाव से अपने शहर लौट रहे थे। घाट पर विजय और कूली ने उसका सामान नाव पर रख दिया। वर्मा उसमें चढ़ने ही वाले थे कि उन्हें कुछ याद आया, "मैं कुछ भूल गया। एक मिनट रुको," उसने विजय को निर्देश दिया और नहर की ओर चल दिये। वे कुछ मिनटों के बाद वापस आ गये, उनके हाथ में एक थैली सी कोई चीज़ थी।

          घर पहुंचकर वर्मा ने विजय से कहा, "यह छोटा सा पार्सल चंपावती आंटी के पास ले जाना। बस उन्हें बताना कि मैं यह उनके लिए मथुरा से लाया हूं। वे समझ जाएंगी।" विजय अपने मालिक के प्रति वफादार था। उन्होंने पार्सल चंपावती देवी तक पहुंचाया। उसमें एक रुमाल में मुट्ठी भर रेत थी।

          चंपावती देवी एक विधवा थीं, जो एक कुलीन परिवार से थीं और सभी उनका सम्मान करते थे। वे वर्मा को अपने बेटे की तरह प्यार करती थीं। "मेरा बच्चा जगदीश वापस आ गया है क्या?" छोटा पार्सल प्राप्त करते समय बुढ़िया ने खुश होकर कहा, "वह कितना कर्तव्यनिष्ठ है कि अपने सारे कामकाज के बीच मेरी छोटी सी मांग को याद रखता है! जब मैंने उनकी मथुरा यात्रा के बारे में सुना, तो मैंने उनसे यमुना नदी की एक मुट्ठी मिट्टी लाने के लिए कहा था, पवित्र नदी यमुना से। उन्होंने मेरी बात मानने में कोई कोताही नहीं बरती। मेरे लिए यमुना की मिट्टी से अधिक कीमती और क्या हो सकता है!” महिला ने मिट्टी को एक चांदी के बक्से में रख दिया। खुशी और श्रद्धा में उनके आँखों से आंसू की एक बूंद मिट्टी पर गिरी।

          विजय शर्मिंदगी और अपराध बोध से कांप उठा। वे ही जानते थे कि वर्मा मथुरा से मिट्टी लाना भूल गये हैं। गाड़ी पर चढ़ते समय ही वर्मा जी को इसकी याद आई थी और वे तेजी से वापस जाकर नहर के किनारे से कुछ मिट्टी उठाकर अपने रूमाल में डाल ली थी।

          विजय को पता था कि वर्मा जी  नास्तिक हैं। वे लोगों की ईश्वर में आस्था और उनके द्वारा किये जाने वाले अनुष्ठानों पर हँसते हैं। लेकिन जहां तक ​​एक व्यवसायी के रूप में उनके कैरियर का सवाल है, वह एक ईमानदार और अनुभवी व्यक्ति थे। उन्होंने महिला के अनुरोध को बचकाना माना था। वह मिट्टी चंपावती देवी को संतुष्ट करने के लिए पर्याप्त थी। उनका मानना ​​था कि यमुना की मिट्टी में न कुछ खास बात है या न यह सचमुच उस महिला का भला कर सकती है।

          विजय ने यह सोचकर खुद को सांत्वना दी कि आख़िर उसने चंपावती देवी से झूठ नहीं बोला था। उसने केवल एक कार्य किया था। समय बीतता गया। चंपावती देवी की मौत हो गयी। वर्मा ने अपने व्यवसाय से संन्यास ले लिया। विजय भी सेवानिवृत्त हो गए थे, लेकिन वे वर्मा के विश्वासपात्र बने रहे।

          चंपावती देवी के पोते की शादी वर्मा की बेटी से हुई थी। एक बार वर्मा बीमार पड़ गये। उनकी हालत खराब हो गई। उनके दामाद, चंपावती देवी के पोते, एक प्रतिभाशाली चिकित्सक थे। उन्होंने और विजय ने वर्मा को उनकी शारीरिक दुर्दशा से बाहर निकालने की पूरी कोशिश की, लेकिन एक दिन डॉक्टर ने विजय से कहा, "अंकल, मैंने उम्मीद छोड़ दी है। कुछ भी काम नहीं कर रहा है। वर्माजी डूब रहे हैं।"

          अचानक चिकित्सक को कुछ याद आया। "अंकल, कृपया यहीं रहें। मैं जल्द ही वापस आऊंगा।" चिकित्सक एक छोटी बोतल लेकर लौटा और उसने उसकी सारी सामग्री वर्मा जी  के मुंह में डाल दी। वर्मा में सुधार के लक्षण दिखे और कुछ ही दिनों में वह पूरी तरह ठीक हो गए।

          एक दिन, जब विजय और चिकित्सक एक दोस्त के घर जा रहे थे, चिकित्सक ने कहा, "अंकल! अजीब चीजें होती हैं, आखिरकार! क्या आप जानते हैं कि मेरे ससुर को किसने बचाया? मेरी दादी ने मुझे एक चाँदी का डिब्बा दिया था, इस संदेश के साथ कि इसमें कुछ पवित्र मिट्टी है। उसने एक चुटकी मिलाकर कई बीमार लोगों को ठीक किया था। पानी के साथ मिट्टी का मिश्रण और उन्हें पानी पिलाना! जब मुझे यकीन हो गया कि मेरी दवा मेरे ससुर को नहीं बचा पाएगी, तो मैंने दादी के नुस्खे को आजमाने का फैसला किया - और यह काम कर गया!"

          विजय ने शुरुआत की। वह उस मिट्टी की प्रकृति को जानता था। लेकिन उन्हें यह भी एहसास हुआ कि चंपावती देवी द्वारा इस पर गिराए गए आंसू की बूंद से जल वास्तव में एक पवित्र चीज़ में बदल गई थी, गहरी आस्था, प्रेम, श्रद्धा और कृतज्ञता के आंसू।

          क्या अखंड विश्वास किसी सामान्य चीज़ को विशेष शक्ति से भर सकता है? कहानी बताती है कि बूढ़ी महिला के विश्वास ने, अपने आँसुओं के माध्यम से, एक सामान्य चीज़ को गुणात्मक उन्नति प्रदान की, अंततः - और विडंबना यह है - उस आदमी को भी लाभ पहुँचाया जिसने इसके बारे में न कभी कुछ भी सोचा था और न ही इस पर विश्वास था।

          श्रद्धा और विश्वास का न तो कोई वैज्ञानिक आधार है न ही यह पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि इसका असर होता है। लेकिन इसे अ-वैज्ञानिक, अंधविश्वास मान कर पूरी तरह खारिज भी नहीं किया जा सकता। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें न कोई धन लगता है न ही समय बस मन में एक दृढ़ता आती है, और यही दृढ़ता अपना असर दिखती है। अंत में  करते तो हम ही हैं लेकिन करवाता कोई और ही है।

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शुक्रवार, 9 फ़रवरी 2024

क्या आप रिटायर्ड हैं? (मेरे विचार)


 

जिस क्षण मनुष्य आगे बढ़ना बन्द कर देता है, वह पीछे जाता है। जिस क्षण वह सन्तुष्ट होकर बैठ जाता है तथा और आगे अभीप्सा नहीं करता वह मरना शुरू कर देता है। जीवन है गति, जीवन है प्रयास, जीवन है आगे की ओर बढ़ना, एक पहाड़ी चढ़ाई चढ़ना, नये-नये ज्योति-शिखरों को पार करना और भविष्य की चरितार्थता की ओर अग्रसर होना। विश्राम करने की इच्छा से बढ़ कर खतरनाक कोई वस्तु नहीं है। हमें विश्राम की खोज करनी चाहिये कर्म में, प्रयास में, आगे की ओर बढ़ने में उस सच्चे विश्राम की जो भागवत कृपा में पूर्ण भरोसा रखने से, इच्छाओं के अभाव से, अहं पर विजय प्राप्त करने से मिलती है।

          मैं अपनी मेज पर बैठा कार्य में व्यस्त भी था और साथ ही खिड़की (काउंटर) के बाहर सोफ़े पर बैठे बुजुर्ग सज्जन से वार्तालाप भी कर रहा था। अचानक उन्होंने पूछा, क्या आप सेवानिवृत्त (रिटायर्ड) हैं?”

“नहीं”, मैंने कहा।

“लेकिन अभी अपने बताया कि आप पुणे में रहते है? तब फिर आप यहाँ आश्रम में इतने लंबे समय के लिए कैसे रहते हैं?”

मैं उनका प्रश्न समझ रहा था लेकिन सोच समझ कर पूछ लिया, “क्यों, पुणे में रहने, आश्रम में लंबा समय गुजारने और सेवानिवृत्त होने का आपस में क्या संबंध है?

“नहीं, वो...”, उनकी उलझन सुलझने के बजाय और उलझ गई।

आगे क्या प्रश्न करें और कैसे करें यह उन्हें नहीं सूझ रहा था। मैंने उनकी सहायता करनी शुरू की, “सेवानिवृत्त होने से आपका क्या अर्थ है?”

खिड़की के उस ओर बैठे वे बुजुर्ग साफ देख रहे थे कि मैं भी वृद्धावस्था में ही हूँ लेकिन शायद उनकी उम्र मुझ से ज्यादा ही रही होगी। गला साफ कर उन्होंने धीरे से पूछा, “आप नौकरी करते थे?” यह स्पष्ट था कि सेवानिवृत्त होने से उनका तात्पर्य था नौकरी, व्यवसाय या पेशे से निवृत्ति।

 

“नहीं मेरा अपना व्यवसाय था।”

वे थोड़ा आश्वस्त हुए और थोड़ा विस्तार से बताने लगे कि वे जैविक खेती करते हैं, बीच-बीच में आश्रम में आ जाते हैं।

मुझे अपनी बात कहने का सूत्र मिल गया, क्यों, आश्रम क्यों आते हैं?”

“मुझे अच्छा लगता है। बड़ी शांति मिलती है। यहाँ का जीवन बड़ा सरल, आडंबर विहीन और सीधा-सदा है, सुकून मिलता है, जीवन का सुख अनुभव होता है और मिलता है भाग-दौड़ की जिंदगी से थोड़ा विश्राम”, उन्होंने मुसकुराते हुए कहा।

मैंने पूछा, “आपके परिवार में और कौन-कौन  है?”

उन्होंने बताया कि उन्होंने अपनी सारी जिम्मेदारियों का निर्वाह कर लिया है, बच्चों की शादी कर दी, सब अपनी-अपनी नौकरी में लगे हैं और पत्नी आध्यात्मिक प्रवृत्ति की हैं.....

मैंने उन्हें बीच में ही टोका, “जब आपको यहाँ अच्छा लगता है तब आप भी लंबे समय के लिए यहाँ क्यों नहीं आ जाते हैं?”

उनके चेहरे पर फिर एक उलझन लटक आई। मेरे प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उन्होंने प्रश्न किया, “आप यहाँ क्या करते हैं? मैं देखता हूँ यहाँ न पूजा-पाठ होता है, न ही कीर्तन-प्रवचन?”

मैंने बताया कि प्रातः उठने से लेकर रात्रि सोने तक फुरसत नहीं मिलती, कुछ-न-कुछ चलता ही रहता है।  संक्षेप में  अपनी दिनचर्या बताई और पूछा, “आपको क्या लगता है, खिड़की के इस ओर बैठा मैं कुछ काम कर रहा हूँ या विश्राम कर रहा हूँ?”

“नहीं-नहीं भाई साहब आप तो बड़ी अच्छी सेवा का काम कर रहे हैं।”

“आप भी बड़े अजीब हैं, आपने अभी बताया कि आपको यहाँ का जीवन बड़ा अच्छा लगता है, आप के विचार से मैं यहाँ अच्छा काम कर रहा हूँ और तब आप भी यहाँ लंबे समय के लिए क्यों नहीं आते?”

वे सोफ़े पर से उठ कर मेरे समीप आ गए और फुसफुसा कर धीरे से पूछा, “क्या यह आश्रम आपको अच्छी तनख़ाह भी देता है?”, और इसके साथ-साथ जोड़ा, “मैं जब रिटायर्ड हो जाऊंगा तब आऊँगा।” मैं हंस पड़ा, “अब आपके रिटायर्ड होना में क्या बाकी है, अब तो ईश्वर ही आपको दुनिया से रिटायर्ड करेंगे। जहां तक आश्रम के कुछ देने के बात है, हाँ आश्रम मुझे बहुत कुछ देता है, मसलन बड़ी शांति देता है, सरल और सीधा-सदा जीवन देता है, सुकून देता है, जीवन का सुख देता है और इसके साथ ही देता है एक विश्वास और आत्म संतोष कि जीवन में  आखिर कुछ तो करने का मौका मिला। अब आप ही बताइये, जो इतना कुछ देता है जिसने जीवन को सार्थक बना दिया उससे कुछ लूँ की दूँ।”

“आप ठीक ही कह रहे हैं, जिसके पीछे पूरा जीवन दौड़ते रहे वह इतनी सहजता से आपने हासिल कर लिया। समाज से लिया ऋण भी चुका रहे हैं और एक सुकून की जिंदगी जी रहे हैं।”

“भाई साहब! आप भी एक बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं, जैविक खेती। आप अपने कार्य को अपने लिए न कर समाज के लिए करना प्रारम्भ कर दीजिये। जो कुछ भी पैदा करते हैं उसे समाज और माँ को अर्पित कर दें। लोगों को जैविक उत्पाद सिखाएँ, इसका महत्व समझाएँ। और सबसे बड़ी बात इसके उत्पाद को कैसे सस्ता और कम मूल्यों पर जनता तक पहुंचाया जाय इस पर विचार कीजिये। अगर यह न कर सकें तो आश्रम आ जाएँ, यहाँ कई एकड़ जमीन है, यहाँ आश्रम के लिए कीजिये। जीवन बदल जायेगा।

          सेवानिवृत्ति का अर्थ क्या है? विश्राम का समय, एक ऐसा समय जिसमें आरोहण है अवरोहण नहीं। कहाँ से विश्राम? नौकरी से, व्यवसाय से, भौतिकता से, पैसे कमाने की जिद्दो-जहद से। जो करते रहें हैं उससे आगे की सोचना और उस पर कार्य करना। यह जीवन से विश्राम नहीं है। विश्राम ऐसा नहीं होना चाहिये जो जीवन को निश्चेतना और तमस् में धकेल दे। रिटायरमेंट तो एक आरोहण होना चाहिये, 'प्रकाश' में, पूर्ण 'शान्ति' में, पूर्ण 'नीरवता' में आरोहण, ऐसा विश्राम जो अन्धकार से निकल ऊपर उठता है। कइयों को अंधकार से निकाल कर प्रकाश में लाता है। तब वह सच्चा विश्राम होता है, ऐसा विश्राम जो आरोहण है।

          जीवन में कितनी ही बार हमें ऐसे लोग मिलते हैं जो शान्तिप्रिय इसलिए होते हैं कि वे लड़ाई से डरते हैं, जो संग्राम जीतने से पहले ही आराम के लिए लालायित होते हैं, जो अपनी जरा-सी प्रगति से सन्तुष्ट हो जाते हैं और अपनी कल्पना तथा कामनाओं में उसे ऐसी अद्भुत प्राप्ति समझ लेते हैं जो उनके आधे रास्ते में रुक जाने को न्याय संगत ठहराती है। ऐसे शांतिप्रिय लोग पाप और अत्याचार को बढ़ावा देते हैं, ये डरपोक लोग आलसी होते हैं।  

          सामान्य जीवन में, निःसन्देह, ऐसा बहुत होता है। वस्तुतः इसने मानवजाति को एक तरह से मुर्दा बना दिया है और मनुष्य को वैसा बना डाला है जैसा वह आज है : "जब तक युवा हो काम करो, धन, सम्मान, पद का अर्जन करो, थोड़ी दूर दृष्टि रखो, कुछ बचाओ और एक पूंजी जमा कर लो, पदाधिकारी बनो, ताकि जब तुम चालीस के होओ तो 'आराम कर सको', अपनी आमदनी का और बाद में पेन्शन का उपभोग कर सको, जैसा कि लोग कहते हैं, सु-अर्जित विश्राम का आनन्द लो। " - बैठ जाना, रास्ते में रुक जाना, आगे न बढ़ना, सो जाना, समय से पहले कब्र की ओर चल देना, जीवन के उद्देश्य और प्रयोजन के लिए जीना ही बन्द कर देना-बैठ जाना! यह रिटायरमेंट नहीं मौत है।

          सच्चा विश्राम चेतना को विस्तृत करने से, विश्वभावापन्न बनने से मिलता है। संसार जितने विशाल बन जाओ और तुम सदा आराम में रहोगे। कर्म की अतिशयता में, रणस्थली के बीचोंबीच, विविध प्रयासों के पूर्ण प्रवेग में तुम अनन्तता और शाश्वतता की विश्रान्ति को अनुभव करोगे। यह है सच्चा रिटायरमेंट।  

 (आंतरिक रूप से जीना – पृ-12)

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