गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

मैक्स मुलर और स्वर्णिम भारत

क्यों हम जब अपने देश के इतिहास का स्मरण करते हैं तो हमारी स्मरण शक्ति एवं साधारण जानकारी हमें मुग़लकालीन भारत तक ही ले जाती है?
क्यों हमें यह ध्यान नहीं रहता कि मुग़ल भारत भी ब्रिटिश भारत की तरह दासता  व गुलामी के भारत का ही इतिहास है जो लगभग सिर्फ ५०० वर्ष पुराना है?
क्यों हम यह नहीं समझते कि अंग्रेजों ने, भारत का शोषण कर, अपने देश, ब्रिटेन को समृद्ध किया?
क्या हमें यह मालूम नहीं कि अंग्रेजों ने दोनों हाथों से जी भर कर हमारे देश को नोचा, लूटा और खसोटा?
क्या तथ्य इस बात के साक्षी नहीं कि ब्रिटिश शासन अत्याचार, आतंक और दमन का शासन था?
क्या हम यह भी नहीं जानते हैं कि  मुग़ल भी थे तो आक्रान्ता ही, लेकिन यहाँ की सुजला, सुफला भूमि, यहाँ की संपन्नता व वैभव, कला व साहित्य, नैतिक एवं चारित्रिक सबलता देख कर दंग रह गए और यहीं रहने-बसने का इरादा कर लिया? मुग़लों ने हर प्रकार की नीतियाँ अपना कर हमसे पारिवारिक संबंध स्थापित किये। इन सम्बन्धों का असर ऐसा हुआ कि आक्रांता मुगलों के पक्ष में भारतीय शासक और सैनिक ही दूसरे भारतीय शासक के विरुद्ध युद्ध में शरीक हुए। महारणा प्रताप और शिवाजी जैसे उदाहरण बहुत कम मिलते हैं। इन देश प्रेमियों के विरुद्ध लड़ने वाले राजपूत और मराठे ही थे और उन्ही के कारण प्रताप और शिवा को पराजय का मुंह देखना पड़ा।
कब तक विद्यालयों में भारत के इतिहास का प्रमुख पाठ मुग़ल भारत की चर्चा, उनका गुणगान और उनके विजय की गाथा से भरा रहेगा?
क्यों हमारे विद्यालयों में हमारे पराभव, पराजय, अपमान और गद्दारी का इतिहास पढ़ाया जाता है?
क्या कारण है कि हमारे इतिहास के जिन पन्नों को हमें समेट देना चाहिए था उसकी तो विस्तृत चर्चा करते हैं और जिनकी विस्तृत चर्चा करनी थी उनको आधे-एक पन्ने में समेट देते है?
क्या हम यह नहीं जानते कि यह पूरा पाठ्यक्रम ब्रिटिश शासकों का बनाया हुआ है और इसी पाठ्यक्रम को कमोबेश हम चला रहे हैं?
क्या हमारी इतनी समझ नहीं है कि इस पाठ्यक्रम से अंग्रेजों का उद्देश्य हमें हीन भावना से ग्रस्त करना था?
लेकिन अब स्वतन्त्रता प्राप्ति के ७० वर्ष बाद भी क्यों हमें साधारणतया अपने “स्वर्ण-युग” कि जानकारी नहीं है जो हमारी असली पहचान है। क्यों हमसे हमारा परिचय नहीं है?  

हम जिस गौरवशाली भारत, महान आर्यावर्त, “सोने की चिड़िया” की बात करते हैं क्या वे केवल कपोल कल्पनाएं हैं? क्या इनका कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है? क्या हम कहानियों के आधार पर ही अपनी महानता का झूठा दंभ दिखाते फिरते हैं? दर असल हम प्राय: जहां से भारत के इतिहास की चर्चा करते हैं वहाँ से इसका प्रारम्भ नहीं समापन है। उसके बाद तो केवल हमारी दासता की कहानी है जो समाप्त होती है १९४७ में, अंग्रेजों के जाने के बाद। यह हजार वर्षों का काल खंड भारत की नहीं गुलाम भारत की दास्तां है। उज्ज्वल भारत, स्वर्णिम भारत, हमारी पहचान तो उसके पहले का स्वतंत्र भारत है।

भारत को समझने के लिए हमें हजारों वर्ष पहले जाना होगा, गुलामी के पहले, स्वतंत्र भारत की तरफ। मौर्य वंश (३२२-१८५ बीसी) और गुप्त वंश (३२०-५५०) के  साम्राज्य का इतिहास भारत का परिचय है। यही वह समय था जब ग्रीक यात्री मेगास्थनीज (३२०-२९० बीसी),  चीनी यात्री फ़ाहियन (३३७-४२२) एवं हुवेनसांग (६०२-६४४) भारत आए थे और अपनी यात्रा तथा तत्कालीन भारत के बारे में लिखा। इस समय के इतिहास को ठीक से खँगालने, शोध एवं खोज करने की  आवश्यकता है, क्योंकि बहुत कुछ है जिसकी हमें जानकारी नहीं है। कहते हैं इतिहास को सुख और शांति का काल पसंद नहीं। उसे तो क्रांति और युद्ध का ही समय चाहिए। संभव है, गुप्त काल सुख और शांति का समय होने के कारण उसके बारे में इतिहास में विशेष कुछ लिखा न गया हो। खोज-बीन कर पुनर्वालोकन करने की आवश्यकता है।

यह हमें खुद सोचना और विचार करना चाहिए कि क्या कारण था कि अपने देश को छोड़ कर मुग़ल भारत में बस गए? क्यों अंग्रेज़ भी इतनी दूर आकर भारत में इतना निवेश किया? क्या कोई भी व्यापारी, समाज, मुल्क किसी भी गरीब – दीन – हीन से व्यापार करता है? क्या चोरों, लुटेरों, बेईमानों, डाकुओं से व्यापार संभव है? क्या ऐसे लोगों के मध्य बसता है? क्या कोई अनपढ़, गंवार, असभ्य के बीच रहना पसंद करता है? हम इन प्रश्नों के तह तक जाएँ तो हमें खुद अपना स्वरूप दिखाई पड़ जाएगा कि हम किसकी संतान हैं? हमारा हम से साक्षात्कार  होगा।

अंग्रेजों को इस बात का इल्म था कि अगर हमें अपनी महानता का परिचय हुआ तो बगावत हो सकती है जिसे अंग्रेज़ किसी भी अवस्था में सँभाल नहीं पाएंगे। अत: हमारे गौरवशाली और स्वर्ण युग को नजरंदाज करके दासता, पराभव, पराजय, हीनता, अपमान की ही चर्चा की। जिससे हम मानसिक रूप से यह मान बैठे कि हम निरीह, अज्ञानी और अपमानजनक व्यवहार के योज्ञ हैं।

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने “Discovery of India” में भारत का इतिहास लिखा है। यह लगभग ६०० पृष्ठों का ग्रंथ है। इसमें आदिकाल, वेद-पुराण-रामायण-महाभारत काल से अंग्रेजों के शासन तक का इतिहास लिपिबद्ध है। इस पुस्तक में भी उन्होने इस स्वर्ण युग का बहुत कम जिक्र किया है। इसके तीन ही कारण हो सकते हैं -
१। नेहरू जी को इसकी विस्तृत जानकारी नहीं थी,
२। नहरुजी ने इस काल खंड को नजर अंदाज किया, और
३। इस इतिहास की ज्यादा जानकारी उपलब्ध ही नहीं है।
पहले दो कारण सही नहीं हो सकते। और अगर तीसरा कारण सही है तो इसके लिए अथक परिश्रम की आवश्यकता है। स्वतंत्र भारत की सरकार ने जो भी जानकारी उपलब्ध है उसे विस्तृत रूप में विदद्यालयों तक पहुँचने में विशेष दिलचस्पी नहीं दिखाई, यह हमारा दुर्भाग्य है। 

जर्मन विद्वान मैक्स मुलर ने भारत का गहन अध्ययन किया और भारत की सही तस्वीर दुनिया के सामने रखी। उसने भारत और हिंदुओं के बारे में जो लिखा उस पर हमें खुद को सहसा विश्वास नहीं होता। लगता है कि कोई भ्रम है, अतिशयोक्ति है। हम अपनी ही नजरों में इतने गिर चुके हैं कि हम उस पर विश्वास करने से कतराते हैं। सही बात तो यह है कि उस समय भी अनेक  विदेशी विद्वान मैक्स मुलर से सहमत नहीं थे और इसका विरोध और आलोचना की थी। आलोचना थी लेखक कि इस घोषणा पर जिसमें उसने भारत और हिंदुओं को “सर्वश्रेष्ठ” कहा था। जिस देश को अंग्रेजों ने पूरे विश्व में दीन-हीन, गंवार-अशिक्षित, गरीब-भूखा-नंगा, चोर-डाकू-ठग, साँप-जंगल-जानवर के प्रदेश के रूप में चित्रित कर रखा था उस देश के लिए ऐसी घोषणा पर प्रश्न चिन्ह लगाना स्वाभाविक है।

भारत मेँ प्रशासन हेतु भेजे जाने वाले ICS अधिकारियों को भारत से परिचत करवाने के लिए कैंब्रिज विश्वविद्यालय ने मैक्स मुलर के एक व्यख्यानमाला  का १८८२ में आयोजन किया था। यह पूरी व्याख्यानमाला एक पुस्तक (India:What Can it teach us) के रूप मेँ उपलब्ध है। उस पुस्तक के केवल एक अध्याय, जिस पर सबसे ज्यादा उंगली उठाई गई, के कुछ अंश को मैं पाठकों कि जानकरी के लिए उद्धृत कर रहा हूँ। विश्लेषण आप खुद करें।

1.  If we were to look over the whole world to find out the country most richly endowed with all the wealth, power and beauty that nature can bestow – in some parts a very paradise on earthI should point to India. 

2.     If I were asked under what sky the human mind has most fully developed some of its choicest gifts, has most deeply pondered on the greatest problems of life, and has found solutions of some of them which will deserve the attention even of those who have studied Pluto and Kant – I should point to India.

3.     And if I were to ask myself from what literature we, here in Europe, we who have been nurtured almost exclusively on the thoughts of Greeks and Romans, and one Semitic race the Jewish, may draw that corrective which is most wanted in order to make our inner life more perfect, more comprehensive, more universal, in fact more truly human, a life, not for this life only, but for transfigured and eternal life – again I should point to India.

4.     A very common characteristic of these men (Hindu) and of the Hindus especially, was simplicity truly childish, and a total un-acquaintance with the business and manners of life. Where that features was lost? It was chiefly by those who had been long familiar with Europeans.

5.     Polished manners, clearness and comprehensions of understanding, liberty of feeling and independence of principle that would have stamped them (Hindu) gentlemen in any country in the world.

6.     Let me add that I have been repeatedly told by English merchants that commercial honour stands higher in India than in any other country and that a dishonoured bill is hardly known there (India).

इसके अलावा इसी अध्याय में मैक्स मुलर ने कई अधिकारियों, शासकों, विदेशी यात्रियों एवं इतिहासकारों की उक्तियाँ भी उद्धृत की हैं। ये भी पढ़ने एवं मनन करने योग्य हैं:-

1.  कर्नल स्लीमैन भारत में कई वर्षों तक “Commissioner for the suppression of thuggee” रहे और इस सिलसिले में उन्हे भारत में  भ्रमण करते रहे और उन्हे आम जनता के निरंतर संपर्क में रहना पड़ा। मैक्स मुलर ने लिखा कि वे लिखते हैं - “In their panchayats,  men adhere habitually, and religiously to the truth and I had before me hundreds of cases, in which a man’s property, liberty and life has depended upon his telling a lie, and he has refused to tell it.”
2.  हुवेंनसंग कि पंक्तियां भी उन्होने उद्धृत कि हैं,Though the Indians are of light temperament, they are distinguished by the straightforwardness and honesty of their character. With regard to riches, they never take anything unjustly: with regard to justice they even make excessive concessions ....... Straightforwardness is the distinguished features of their administration.
3.  ११वीं सदी के स्पेन के इतिहासकर मोहम्मद इद्रीसी की पुस्तक से मैक्स मुलर ने उद्धृत की है ये पंक्तियाँ “The Indians are naturally inclined to justice, and never depart from it in their actions. Their good faith, honesty and fidelity to their engagements are well known they are so famous for these qualities that people flock to their country from every side.
4.  अकबर के मंत्री आबु फजल की “आईने अकबरी” से ये पंक्तियाँ,The Hindus are religious, affable, cheerful, lovers of justice, given to retirement, able in business, admirers of truth, grateful and of unbounded fidelity: and their soldiers know not what it is to fly from the field of battle.”
5.  वारेन हेस्टिंगस से हम सब परिचित हैं। वे लिखते हैं, “They (Indian) are gentle and benevolent, more susceptible of gratitude for kindness shown them, and less prompted to vengeance for wrongs inflicted than any people on the face of the earth: faithful, affectionate, submissive to legal authority.”
6.  कलकत्ता के बिशप हेबर का उद्धरण, “The Hindus are brave, courteous, intelligent, most eager for knowledge and improvement: sober, industrious, dutiful to parents, affectionate to their children, uniformly gentle and patient, and more easily effected by kindness and attention to their wants and feelings than any other people I ever met.”
7.  मौन्स्तुयार्ट एल्फिन्स्तोन, जो ब्रिटिश भारत में मुंबई के राज्यपाल थे ने लिखा है, Including the Thugs and Dacoits, the mass of crime is less in India than in England”.
8.  सर थॉमस मुनरो, जो भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना के अधिकारी थे, ने तो यहाँ तक लिखा है कि, “if civilisation is to become an article of trade between England and India, I am convinced that England will gain by the import cargo.”

मैक्स मुलर ने इसी अध्याय में स्लीमन कि पुस्तक के आधार पर यह बताया है कि भारत में न्यायालयों में कुरान शरीफ एवं गंगा की शपथ दिलाई जाती है। अगर इसे बदल कर “ईश्वर” की शपथ दिलाई जाए तो उसका क्या असर होगा? सर्वे से पता चला कि निवासियों को प्रमुखत: तीन विभागों में विभाजित किया जा सकता है :
१। ऐसे लोग जो बिना शपथ के भी सत्य ही कहेंगे,
२। अगर शपथ नहीं दिलाई जाए तो स्वार्थवश सत्य से विमुख हो सकते हैं। लेकिन शपथ कुरान शरीफ या गंगा कि ही होनी चाहिए,
३।  शपथ से कोई फर्क नहीं पड़ता, स्वार्थ वश झूठ कहने में नहीं हिचकिचाएँगे।

जोड़-घटाव करने से यह चौंकाने वाला आंकड़ा  सामने आया कि संख्या के आधार पर २रे प्रकार के लोग सबसे ज्यादा हैं जो प्राय: गांवों में रहते हैं। १ले प्रकार के लोगों की संख्या उनसे कम है और वे भी गांवो में रहने वाले है। ३रे प्रकार के लोग सबसे कम हैं और प्राय: शहर के निवासी हैं। यह अवस्था सिर्फ २००-२५० वर्षों पुरानी है जिसकी नींव पड़ी थी १५००  वर्ष पूर्व। महात्मा गांधी के सचिव प्यारेलाल कि पुस्तक से भी सत्य के प्रति हमारी वचन बद्धता सिद्ध होती है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पूर्व बिहार में फैले दंगो को नियंत्रण में लेने के लिए नेहरुजी ने बिहार का दौरा किया था। प्यारेलाल ने “गांधी पूर्णाहुति” खंड २ पृ ३७८ में इस यात्रा का जिक्र करते हुए लिखा, “पीड़ित क्षेत्रों में हुई इन सभाओं में चारों ओर के गांवों से बहुत बड़ी संख्या में किसान उपस्थित हुए। प्रत्येक सभा के अंत में पंडित नेहरू ने हाथ उठवा कर श्रोताओं से प्रतिज्ञा कराई कि इस प्रकार का दुराचरण फिर कभी नहीं करेंगे। बाद के समाचारों से पता चला कि इस प्रकार प्रतिज्ञा लेने वाले इन किसानों ने अपने वचन का महत्व समझा और सचमुच दूसरों से उन्होने ने कहा कि जब हम वचन दे चुके हैं तो उसका पालन करना होगा।“

यह है हमारी वंश परंपरा और हमारा इतिहास। हम वंशज हैं ऐसी महान कौम के जो सत्य पर कायम रहते हैं भले ही सर्वस्व लुट जाए। इसे बार बार दोहरने और नई पीढ़ी को बताने कि आवश्यकता है। हम वो नहीं हैं जो अंग्रेजों ने सबको दिखाया और दुनिया तथा हमने माना। हमें अपने इस अतीत के गौरव को, अपने स्वर्णिम युग को जानना, समझना और बताना है। इससे हमारी हीन भावना समाप्त होगी और हम पूरे आत्मविश्वास के साथ सर उठा कर कह सकेंगे कि हम भारत के वासी हैं। आत्म विश्वास प्रगति और उत्थान के नए आयामों तक पहुंचाने की क्षमता रखता है।  


शनिवार, 19 नवंबर 2016

       परम्परा

परम्परा को अंधी लाठी से मत पीटो।
उस में बहुत कुछ
                    जो जीवित है,
                  जीवन-दायक है।
जैसा भी हो,
ध्वंस से बचा रखने लायक है।

पानी का छिछला होकर
                      समतल में दौड़ना,
                  यह क्रांति का नाम है।
            लेकिन घाट बांधकर
            पानी को गहरा बनाना,
            यह परम्परा का काम है।

परम्परा और क्रांति में
                  संघर्ष चलने दो।
आग लगी है, तो
            सूखी टहनियों को जलने दो।
मगर जो टहनियाँ
                 आज भी कच्ची और हरी हैं,
                     उन पर तो तरस खाओ।
            मेरी एक बात तो तुम मान जाओ।

परम्परा जब लुप्त होती है,
लोगों के आस्था के आधार
                        टूट जाते हैं।
उखड़े हुए पेड़ों के समान
वे अपनी जड़ों से छूट जाते हैं।
परम्परा जब लुप्त होती है,
                  लोगों को नींद नहीं आती,
न नशा किये बिना
            चैन या कल पड़ती है।
परम्परा जब लुप्त होती है,
सभ्यता अकेलेपन के
                  दर्द से मरती है।

क़लमें लगाना जानते हो,
                  तो जरूर लगाओ,
मगर ऐसे कि फलों में
                  अपनी मिट्टी का स्वाद रहे।
और यह बात याद रहे
कि परम्परा चीनी नहीं           
                  मधु है।

परम्परा को अंधी लाठी से मत पीटो।
उस में बहुत कुछ
जो जीवित है,       जीवन-दायक है।
जैसा भी हो,
ध्वंस से बचा रखने लायक है।

शनिवार, 12 नवंबर 2016

आजादी या गुलामी : ब्रिटिश इंडिया या हमारा भारत

१५ अगस्त १९४७ की रात भारत आजाद हो गया। अंग्रेजों ने देश की बागडोर भारतीयों के हाथों में सौंप दी। पूरे भारत में यूनियन जैक का स्थान भारतीय तिरंगे ने ले लिया। लेकिन जनता गुलाम ही रही। तब फिर कौन आजाद हुआ? क्या भारतीय आजाद हुआ? किससे आजाद हुआ? जनता आजाद हुई? क्या आजादी की हमारी परिभाषा यही थी?

हाँ, यह ठीक है कि सबसे पहले आजादी। लेकिन गांधी ने इससे आगे सोचने के लिए कहा। गांधीजी पहले ऐसे विश्व  नेता थे जिनका यह मानना था कि आजादी के पूर्व इस पर विचार करने की जरूरत है कि किसकी आजादी, किससे आजादी और कैसी आजादी? अगर हमारे पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं तो हम केवल व्यक्तियों की अदला-बदली ही कर पाएंगे।  आजादी हासिल नहीं कर पाएंगे। बाघ बदल जाएंगे उनका स्वभाव तो वैसा ही रहेगा। १९७१ में मुजीब के नेतृत्व में बंगला देश ने पश्चिमी पाकिस्तान से आजादी हासिल कर ली। लेकिन परिणाम? खुद मुजीब की हत्या कर दी गई। बंगला देश में अराजकता फैल गई। स्टालिन के नेतृत्व में रूस “जार” से आजाद हुआ लेकिन स्टालिन  खुद “जार” बन बैठा। १९७७ के चुनाव में, आपतकाल के बाद, देश की सब राजनीतिक पार्टियों ने मिलकर इन्दिरा गांधी को मात दे दी, लेकिन नई सरकार अपना कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाई और इन्दिरा वापस सत्ता में आ गई।

ऐसा क्यों हुआ? इन सबका लक्ष्य आजादी” ही थी और आजादी मिल भी गई। लेकिन वह आजादी अपनी आजादी के लक्ष्य को हासिल नहीं कर पाई। क्योंकि इस आजादी को कार्य का “समापन” समझा गया। न आजादी की व्याख्या की गई, न उसपर विचार किया गया, न कोई रूप रेखा तैयार थी। अत: गुलामी ही वेश बदल कर वापस आ गई। सच्चाई यह है कि आजादी तो केवल अपनी सोच, समझ और विचार के अनुरूप कार्य करने का अधिकार मात्र था। जिस खंडित राष्ट्र को हासिल किया गया है उसका नव निर्माण करने का अधिकार मात्र था। उसकी पूरी योजना होनी चाहिए थी और उस पर पूरी ईमानदारी से कार्य होना चाहिए था। लेकिन, न तो उसकी कोई योजना बनाई गई और न ही उसपर विचार किया गया। गांधी ने आजादी के पश्चात के कार्यक्रमों पर विचार करने के लिए कहा और उनके पास स्वतंत्र भारत की छवि, रूप रेखा, स्वरूप स्पष्ट भी थी। लेकिन कांग्रेस ने भारत को स्वतंत्र करने के अंग्रेजों के निर्णय के बाद गांधी को हटा दिया। गांधी की निगाह राष्ट्र एवं जनता पर थी लेकिन काँग्रेस की नजर सत्ता पर थी। गांधी के भारत से वे सहमत नहीं थे और उनके पास अपनी कोई योजना नहीं थी, कोई स्वरूप नहीं था। विदेशों से लाये गए उधार के विचारों को तोड़-मरोड़ कर भारतीयता का जामा पहना कर अपना लिया। गांधी के सपनों के भारत को तो वे पहले ही खारिज कर चुके थे। भारत देसी रहा नहीं, विदेसी हो नहीं सकता था।   

गांधी को दर किनार करने का अर्थ नैतिकता, राष्ट्रियता, अहिंसा को किनारे करना था। इस एक कदम ने केवल गांधी को नहीं छोड़ा बल्कि गांधीवादी पूरी कौम को उपेक्षित कर दिया। इस पूरे घटक की साख समाप्त हो गई, ये उपेक्षित हो गए।  “मजबूरी का नाम गांधी” की घोषणा कर इनका मखौल उड़ाया गया। नैतिकता नष्ट हो गई, राष्ट्रियता समाप्त हो गई, हिंसा मान्य हो गई। गांधी जनता के उपासक थे लेकिन अन्य नेता सत्ता के पुजारी थे। इसी कारण आजादी का लक्ष्य प्राप्त कर लेने के बाद गांधी की काँग्रेस को भंग  करने की सलाह कांग्रेसियों ने ठुकरा दी। उन नेताओं का उद्देश्य जनता की सेवा करना नहीं बल्कि उन पर शासन करना था। ब्रिटिश राज से देखा समझा हुआ आतंक का शासन ही उनके ख़यालों में था। । वे पीढ़ी दर पीढ़ी उसी अंग्रेजों के दिखाये-सिखाये रास्ते पर चलते जा रहे हैं। विधायक और प्रशासक खुल्लम खुल्ला  नियम, कायदे और कानून का मखौल उड़ाते हैं और उनकी अवहेलना करना अपना विशेषाधिकार मानते हैं। अपने आचरणों से यह साबित करते हैं कि कानून जनता के लिए है उनके लिए नहीं। यथा राजा तथा प्रजा। हर कोई अपने बल-बूते के अनुसार नियम, कायदे और कानून का उल्लंघन करता है, आतंकी बना हुआ है और उसे ही अपना बड़प्पन समझता है।

मैं वापस अपने उपरोक्त प्रश्न पर आता हूँ - क्या सचमुच आजाद हुआ? कौन आजाद हुआ? किससे आजाद हुआ? जनता आजाद हुई? क्या हमारी आजादी की परिभाषा यही थी? हमें मिला क्या? पहनने के लिए चिथड़े, रहने के लिए खुला आसमान, खाने के लिए .....? अंग्रेजों की ही तरह सत्ता का विरोध अपराध हो गया, विधायकों और प्रशसकों को अपरिमित विशेषधिकर प्राप्त हुवे, गली के गुंडो के बजाय थाने की पुलिस से ज्यादा भय लगने लगा। २५० वर्षों से दमित दासता और उसके पहले कि १००० वर्षों कि गुलामी के बाद हमारी मानसिकता ही गुलाम की हो गई। हमें शासक की ही खोज थी और वे हमें मिल गए। वेश बदल कर देशी गुलामी वापस आ गई। जनता तो जहां, जैसी थी वैसी ही रही केवल दमनकारियों कि चमड़ी का रंग बदल गया। 

स्वतन्त्रता संग्राम में बनाए गए बंदियों को जेलों से रिहाई मिली। संग्राम में भाग लेने वालों को स्वतन्त्रता सेनानी का खिताब मिला, पेंशन भी मिली। संग्राम में मारे जाने वाले वीरों को “शहीद” कह कर उनका सम्मान किया गया और उनके आश्रित परिवारों को भी तमगे और पेंशन मिले। इसके विपरीत वे भारतीय जिन्होंने अंग्रेजों की जी हजूरी की, भारतीयों पर जुल्म ढाये, रायबहादुर और सर की उपाधि शान से ली, को कोई पेंशन नहीं मिली, सेनानी भी नहीं कहा गया, शहीद वे हुए नहीं। उन्हे केवल उच्च प्रशासनिक और वैधानिक पद मिला। उन्हे जनता की सेवा करने का उत्तरदायित्व दिया गया। उन्हे जनता पर शासन करने का अनुभव जो था। आजादी के तुरंत बाद भारत के प्रधानमंत्री ने तो प्रथम सेनाध्यक्ष भी किसी अनुभवी अंग्रेज़ को ही बनाने का प्रस्ताव रखा था। उनके विचारों के अनुसार किसी भी भारतीय को इस कार्य का अनुभाव नहीं था। उन्हे यह ध्यान नहीं आया कि उन्हे भी किसी देश को चलाने का अनुभव नहीं था। भारतीय भाषा के बदले अँग्रेजी भाषा का पक्ष लेते हुवे भी प्रधान मंत्री ने कहा कि हमारी भाषा में न तो वैसी पुस्तके हैं, न वैसे लेखक और न ही शब्द। अंग्रेजों का तो लक्ष्य ही यही था। भारतीय भाषा  नष्ट कर उसके स्थान पर अँग्रेजी को बैठना। उस विदेशी भाषा को हटा कर भारतीय भाषा के विकास का उत्तरदायित्व किस का था? अंग्रेजों का? फिर आजादी किस लिए, कैसे और क्यों? अनपढ़, गंवार, शक्तिहीन जनता को लताड़ना, उन पुर जुल्म करना, उनसे जी हजूरी करवाने का इन नए लोगों को बहुत अच्छा अनुभव था और इस अनुभव के बल पर आम जनता को भयाक्रांत, भूखा और नंगा रखा। बेचारी जनता दो जून रोटी और एक जोड़ी कपड़े के आगे सोच ही नहीं सकी। जनता इस आशा में जुल्म सहती जा रही है कि आज नहीं तो कल आजादी कि रोशनी उन पर भी पड़ेगी। उन्हे सताने वाले बाहरी नहीं अपने ही घर वाले हैं। कभी तो रहम खाएँगे।

प्रशासकों, विधायकों, बड़े उदद्योगपतियों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने जनता की आंखो पर तेज सर्च लाइट डाल कर उसे चौंधिया दिया है। बेदम जनता पर्दे पर चल रही कम्प्युटर, रोजगार, गगनचुंबी स्मार्ट शहर, महंगी गाडियाँ, तेज रेल, ५ सितारा अस्पताल, विकास, रोजगार  की निरंतर चल रही फिल्म को चौंधियाई हुई आंखो से देख रही है। लेकिन इनके पीछे अंधेरे में खड़े चंद किरदारों और निर्देशकों को बेचारी भोली भली जनता न देख पा रही है और न समझ पा रही है। जनता को एक के बाद दूसरे सम्मोहन में डालते हुवे ये चंद लोग मनमानी कर रहे हैं। अंग्रेज़ शासकों के सब गुण इन में मिल जाएंगे, जो समय के साथ फलते फूलते भी रहे हैं। यह तो बुरा हो इस संविधान का जिसके कारण ५ सालों में उन्हे इस भिखमंगी जनता के सामने हाथ पसारना पड़ता है। और हमारा दुर्भाग्य आज ७० वर्षों के बाद भी हम में  उन पसारे हुवे गंदे हाथों को काटने की कुव्वत नहीं आई। 

ऐसे में कौन स्थापित करेगा “हम भारत के लोग” को? यह तो तभी हो सकता है जब इस उद्देश्य को सम्मुख रखते हुवे छोटे छोटे कदम उठाने शुरू करें। माना कि मंजिल तक पहुँचने के लिए बहुत कदम उठाने होंगे, लेकिन एक बार में केवल एक कदम। पूरे रास्ते का ध्यान करने से कभी कभी यात्रा ही प्रारम्भ नहीं होती।

   नियमों का पालन करें                       अन्याय  सहन न करें
   पड़ोसियों से संवाद करें                      अपनी ही दुनिया में न रहें
   बुजुर्गों का सम्मान करें                      परिवार के दायरे को बढ़ाएँ
   अपनी भाषा और संस्कृति को अपनाएं          विदेशी सीखें लेकिन अपनाएं नहीं


अगर हमारी नैतिकता और चरित्र मजबूत होती है तो हमारे अंदर साहस का संचार होता है। साहस हमें संगठित करेगा और यह संगठन इस कोढ़ को निकाल फेंकेगा। 

गुरुवार, 27 अक्टूबर 2016

शिक्षा : हमारा भारत या ब्रिटिश इंडिया

“हिन्द स्वराज” में महात्मा गांधी ने शिक्षा पर एक पूरा अध्याय लिखा है। इसके अलावा भी कई स्थानों पर भारत में शिक्षा के उद्देश्य और स्वरूप की चर्चा  की है और अपना मत जाहिर किया है। गांधी ने कभी भी शिक्षा का अर्थ “अक्षर ज्ञान” तक सीमित नहीं रखा। उन्होने शिक्षा को एक बहुत बड़े परिप्रेक्ष्य में देखा। गांधीजी लिखते हैं कि एक किसान ईमानदारी से खेती-किसानी करके अपनी रोजी-रोटी कमाता है। उसे दुनिया का सामान्य ज्ञान है। अपने माँ-बाप, स्त्री, बच्चों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए, जो लोग उसके गाँव में बसते हैं उनके साथ कैसी रीति-रस्म रखे, इसका उसको पूरा ज्ञान है। सदाचार के नियमों को वह समझता है और उसका पालन करता है। पर उसे हस्ताक्षर करना नहीं आता। अब उसे साक्षर बना कर उसके सुख में क्या वृद्धि कि जा सकती है? इससे तो उसे अपनी दशा के प्रति असन्तोष ही उत्पन्न होगा? इसके विपरीत शहर का एक युवक उच्च शिक्षा प्राप्त कर अपने आस पास के लोगों कि कौन सी भलाई करेगा? वह तो केवल चालाक, होशियार और खुदगर्ज ही बनेगा। गांधीजी ने आगे लिखा कि अंग्रेज़ विद्वान हक्सले शिक्षा के बारे में कहते हैं, “जिसका मन प्रकृति के नियमों के ज्ञान से भरपूर है, जो बुरे कामों से नफरत करता है, सबों को अपने समान समझता है, ऐसे ही व्यक्ति के लिए कहा जा सकता है कि उसे उच्च शिक्षा मिली हुई है। वह प्रकृति के नियमों के अनुसार चलता है. इन सब पैमानों पर गाँव का गंवार शहर के बाबू की तुलना में ज्यादा शिक्षित है।


लाओत्से का भी यही मानना है कि शिक्षित व्यक्ति को बेईमानी से बचाना मुश्किल है, क्योंकि शिक्षा होशियारी देती है। यही होशियारी चालाकी का स्वरूप लेती है। शिक्षा समझ तो देती है लेकिन हृदय परिवर्तन नहीं करती है। जो हृदय कल कर सकता था अशिक्षित हो कर, आज वही दुगने वेग से कर सकता है शिक्षित हो कर। जो हाथ तलवार से एक को मार सकता था अब वही एक बम से सैंकड़ों को मारता है। 

कैसी शिक्षा?
धन के बदले “खुशी” को देश की तरक्की का पैमाना मानने वाले देश भूटान में मानवीय मूल्यों पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन था। वहीं रॉयल यूनिवर्सिटी के उप कुलपति से  पूछा गया कि आपके देश के निवासियों की खुशहाली का राज क्या है? बिना कोई समय लिए उन्होने कहा, “शिक्षा। हम अपना धन शिक्षा पर खर्च करते हैं। शिक्षा से मेरा अभिप्राय इंजीनियर, डॉक्टर, शिक्षक आदि बनाने वाले कल-कारखाने से नहीं है। बल्कि “मानवीय मूल्यों” की शिक्षा से है।”

साक्षरता हमें केवल पढ़ना और लिखना सिखाती है जबकि शिक्षा हमें सही निर्णय लेना सिखाती है। गांधीजी से पूछा गया कि आजाद भारत के बच्चों की शिक्षा कैसी होनी चाहिए तो उन्होने कहा अगर मैं किसी भी कक्षा में जाकर बच्चों से पूछूं कि अगर मैंने एक सेव ४ आने में खरीदी और १ रुपये में बेच दी तो मुझे क्या मिला? अगर इसके उत्तर में सब बच्चे कहें “जेल मिलेगी” तो मैं समझूँगा कि यह आजाद भारत के बच्चों के सोच की शिक्षा है। मुझे किसी भी हालत में इतनी कमाई का अधिकार नहीं है। 

शिक्षा का उद्देश्य अगर पैसे कमाना है तो वह प्रतिस्पर्द्धा पैदा करेगी लेकिन अगर उद्देश्य व्यक्तित्व निर्माण है तो खुशहाली लाएगी।

प्राचीन शिक्षा पद्धति
अगर हम भारत कि पौराणिक शिक्षा पद्धति पर दृष्टि डालें तो पाएंगे कि उस समय शिक्षा “गुरुकुल” में दी जाती थी। इन गुरुकुलों में मानवता का पाठ पहले दिन से दिया जाता था। राजा-रंक साथ साथ रहते और पढ़ते थे। इस वातावरण में विद्यार्थी को “वसुधैव कुटुम्बकम” की तालीम मिल जाती थी।  इस शिक्षा पद्धति कि कुछ विशेष बाते थीं:
१.      विद्यार्थी गुरुकुल में ही रह कर शिक्षा प्राप्त करता था। परिचितों और सम्बन्धियों से कोई संपर्क नहीं रहता था।
२.      विद्या बिना मूल्य के दी जाती थी। शिक्षा प्राप्ति के बाद विध्यार्थी गुरुकुल छोड़ते समय अपनी क्षमता और श्रद्धा के अनुसार शिक्षक को गुरुदक्षिणा दिया करते थे॰
३.      गुरुकुल में अपना सब कार्य विद्यार्थी खुद अपने हाथों से करते थे। साथ ही गुरुकुल के रख रखाव का उत्तरदायित्व भी विद्यार्थियों का था।
४.      इन गुरुकुलों को स्थानीय राजा का संरक्षण प्राप्त था। राज परिवार के अलावा सेठ, साहूकार समय समय पर इन गुरुकुलों को स्वत: अनुदान दिया करते थे। इन अनुदानों के बदले में गुरुकुल कि शिक्षा और कार्य प्रणाली में उनका कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ करता था।
५.      विद्यार्थी कि योग्यता और पारिवारिक संस्कार के अनुरूप शिक्षक विद्यार्थी को शिक्षित करता था।
६.      अन्य विशेष ज्ञान एवं शिक्षा के अलावा सामान्य ज्ञान, नीति, अध्यात्म एवं  मानवता का पाठ पढ़ाया जाता था।
७.      युद्ध के समय ये गुरुकुल अछूते रहते थे, राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं था।
८.      शिक्षा का उद्देश्य पैसे कमाने कि मशीन बनाना नहीं बल्कि व्यक्तित्व निर्माण व आध्यात्मिक मूल्यों का बोध कराना था।

ब्रिटिश प्रभाव
उपलब्ध दस्तावेजों के अनुसार १८वीं सदी के उत्तरार्ध में भारत में शिक्षित लोगों कि संख्या का प्रतिशत किसी भी यूरोपियन  देश कि तुलना में ज्यादा था। भारत में शिक्षा कि प्रमुखत: चार पद्धतियां थीं:
१.      ब्राह्मण परिवार अपने घरों में संस्कृत की शिक्षा देते थे।
२.      सभी प्रमुख शहरों में संस्कृत में शिक्षा देने के लिए विद्यापीठ थे।
३.      पूरे देश में हिन्दू और मुस्लिम शिक्षण संस्थाएं थीं  जो संस्कृत, उर्दू और पर्सियन कि शिक्षा देती थीं।
४.      प्रत्येक गाँव में कम से कम एक पाठशाला होती थी।  इन पाठशालाओं कि देख रेख गाँव कि पंचायत पूरी ईमानदारी से करती थी।

इन चार पद्धतियों से पूरे देश में आरम्भिक से उच्च शिक्षा तक का प्रावधान था। सहज उपलब्धता के चलते देशवासी पढ़े-लिखे एवं शिक्षित थे। केर हेर्डी, ब्रिटिश संसद के सदस्य, ने अपनी पुस्तक “इंडिया” में लिखा है,“मैक्स मुलर ने सरकारी दस्तावेजों और मिशनरी रिपोर्टों के आधार पर यह दृढ़ता पूर्वक लिखा है कि अंग्रेजों के आने के पहले बंगाल में  ८०००० यानि प्रत्येक ४०० व्यक्ति पर एक विद्यालय हुआ करता था।” लुडलो ने अपनी पुस्तक “ब्रिटिश भारत का इतिहास” में लिखा है,“प्रत्येक गाँव में प्राचीन प्रचलित शिक्षा कि पद्धति विद्यमान है। प्राय: हर बच्चा लिखना, पढ़ना और गणित जानता है। लेकिन हमने गांवों, विद्यालयों और इस व्यवस्था को नष्ट कर दिया है।”

भारत में शिक्षा का स्तर उच्च कोटी का था। शिक्षा का क्षेत्र व्यापक था। जैसे जैसे अंग्रेजों की सत्ता स्थापित होती गई और उनका प्रभाव बढ़ने लगा, शिक्षा व्यवस्था छिन्न भिन्न हो गई। भारत में अंग्रेजों की शिक्षा नीति का दो आधार था:
१.      अंग्रेजों को इस बात का अंदेशा था कि भारत में  उनके पतन का कारण ये शिक्षित लोग ही होंगे। अमेरिका का उदाहरण उनके सामने था। वहाँ के शिक्षित लोगों ने स्थानीय जनता में अभूतपूर्व जागृति पैदा की। थॉमस पाइन की लिखी कॉमन सेंस ने पूरे अमेरिका में नागरिकों का खून खौला दिया था। उन्होने ब्रिटिश साम्राज्य को अमेरिका से अपना लंगर उठाने के लिए मजबूर कर दिया। इस कारण ब्रिटिश इस बात के लिए सजग थे की आम भारतीय को शिक्षा न मिले तथा शिक्षा का रूप ऐसा हो जो भारत में अंग्रेजों के शासन कि जड़ मजबूत करने में सहायक हो।     
२.      अपने हुकूमत को सुचारु रूप से चलाने के  लिए अंग्रेजों को अँग्रेजी जानने वाले स्थानीय लोगों की बड़ी संख्या में आवश्यकता थी, जो आम जनता और अंग्रेजों के मध्य दुभाषिए का कार्य कर सके
इन दोनों उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुवे अँग्रेजी कि शिक्षा हमारे ऊपर लाद दी गई। सोची समझी नीति के अंतर्गत देश के उच्च और उच्च मध्यवर्गीय समुदाय को निशाना बनाते हुवे उनमें अँग्रेजी शिक्षा का प्रलोभन एवं प्रचार प्रसार प्रारम्भ किया गया। इससे ये भारतीय ही अँग्रेजी शिक्षा का महत्व प्रतिपादित करें और समाज में उनका उदाहरण स्थापित हो। आम जनता उन अंग्रेज़ भारतीयों से डरे और उन्ही जैसा बनने की स्वत: कोशिश में स्वदेशी को हेय और विदेशी को उत्कृष्ट समझें।

कई दशकों तक ब्रिटिश शिक्षाविद व प्रसाशकों में भारत में शिक्षा पद्धति को ले कर खींचा तानी चलती रही थी। मतांतर पूर्वी तथा पश्चिमी शिक्षा पद्धति को लेकर थी। १८३५ में मैकाले ने पश्चिमी पद्धति कि तरफ निर्णायक फैसला कर के इस विवाद को सदा के लिए समाप्त कर दिया। उसने साफ शब्दों में कहा,“हमें एक ऐसा वर्ग  चाहिए जो हमारे एवं हमारी रियाया के बीच दुभाषिए का काम करे। हमें ऐसे भारतीय चाहिए जो रंग और खून से तो भारतीय हों लेकिन व्यवहार, विचार, ज्ञान और अभिरुचि में पूरी तरह अंग्रेज़ हों। वे यह बात पूरी शिद्दत से मानते हों कि पूर्वी और भारतीय सब कुछ गलत, असभ्य और हीन है तथा पश्चिमी और अँग्रेजी ही ठीक, सभ्य और प्रतिष्ठित है।”

शिक्षा के स्थापित उद्देश्य को ही बदल दिया गया। व्यक्तित्व निर्माण के बजाय अर्थोपार्जन शिक्षा का उद्देश्य हो गया। यह कार्य शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों स्तर पर हुवा। इस उद्देश्य ने सद्भावना के बजाय प्रतिस्पर्द्धा को जन्म दिया।

हमने अपनी सभ्यता छोड़ दी, विदेशी सभ्यता में हम रंगे सियार से दिखने लगे।  हमने सोचने, समझने और विचार करने की शक्ति गंवा दी। आज परिस्थिति यह है कि हम सोचते कुछ हैं, चाहते कुछ हैं, कहते कुछ हैं लेकिन करते कुछ और हैं। पूरी तरह दिग्भ्रमित हैं।

४७ के बाद की गुलामी
१५ अगस्त १९४७ तक तो हम उनकी नीति मानने और अपनाने के लिए बाध्य थे। लेकिन उसके बाद? उस समय शिक्षा का उद्देश्य दुभाषिए और क्लर्क तैयार करना था। आज की शिक्षा भी वैसी ही है। हमें पढ़ना तो सिखाती है लेकिन क्या पढ़ना है इसका ज्ञान नहीं देती। शिक्षण संस्थाएं ज्ञान देने के बजाय पैसे बनाने की मशीन बनाने में लगे हैं। देश के  शिरषर्थ  विध्यालय और महाविद्यालय बड़े शान से इस बात की घोषणा करते हैं की उनके यहाँ से  शिक्षित विध्यार्थी को कितने की नौकरी मिली।  बड़े बड़े इस्तिहार निकलवाते हैं कि उनके यहाँ पढ़े कितने विद्यार्थियों को कहाँ और कितने की नौकरी मिली?

१९४७ में इन भारतीय अंग्रेजों ने हर प्रशासनिक और वैधानिक कुर्सी हड़प ली। इन भारतीयों  का फायदा और उनकी सुरक्षा इसी में थी कि जो जैसा है वैसा ही चलता रहे। बदलाव लाने में उन का अहित था और आम जनता का हित था। बदलाव के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती। उदाहरण के लिए स्वाधीनता के बाद शिक्षा और सरकारी कार्यालयों में कार्य के माध्यम को स्थानीय भाषा में परिवर्तित करने पर उन सबों को स्थानीय भाषा सीखनी पड़ती।  शिक्षकों और प्राध्यापकों को अपने बने बनाए अँग्रेजी  नोट्स को स्थानीय भाषा में अनुवाद करने की अहमियत भी उठानी पड़ती। अँग्रेजी ज्ञान के कारण जो उनका प्रभुत्व था वह भी समाप्त हो जाता। विशिष्ट साहब से देसी बाबू के समकक्ष बन जाते। जिन पदों पर वे अपना एकछत्र अधिकार समझते थे उन पर देसी बाबुओं की भी नियुक्ति होने लग जाती। अत: ऐसे हर  भारतीय अंग्रेज ने “भारत” का प्राण पन से विरोध किया। परिणाम, ब्रिटिश अंग्रेज़ चले गए, भारतीय अंग्रेज़ रह गए। हुकूमत देशी अंग्रेजों के हाथों में चली गई। फलस्वरूप आजादी उन चंद भारतीय अंग्रेजों तक ही सीमित रह गई। आम आदमी तक नहीं पहुँच पाई।  

आम जनता तक आजादी को पहुंचाने का कार्य आसान नहीं, दुष्कर है। चीनी अधिग्रहण के बाद, दलाई लामा ने तिब्बत से लुकते छिपते, दुर्गम बर्फ की शिलाओं को पार करते हुवे, चीनी सैनिक और अधिकारियों की नजरों से बचते हुवे, पूरा रास्ता अकेले पैदल ही पार करते हुवे किसी तरह भारत में प्रवेश किया। बाद में किसी पत्रकार ने उनसे पूछा,“आपने इतना दुर्गम और जोखिम भरा रास्ता कैसे तय किया?” दलाई लामा ने कहा, “बहुत आसान था। एक बार में एक कदम”।

हमें वही, एक बार में केवल “एक कदम” चलना है। चलना होगा  “हम, भारत के लोग” को। हमारे शैक्षणिक संस्थानो से निकलने वाले विद्यार्थी भारतीय होने चाहिए, अंग्रेज़ नहीं। हमें स्वदेशी को अपनाना होगा, उसे श्रद्धा प्रदान करनी होगी। साथ ही अपनी कमियों को भी पूरा करना होगा। अपने घर कि सफाई करने के लिए दूसरों का मुख न देख खुद कर्त्ता बनना होगा। छोटे छोटे संकल्प लेते हुवे कार्य आगे बढ़ाते रहें तो महत कार्य स्वत: सिद्ध हो जाएगा।


तो उठाएँ पहला एक कदम।

गुरुवार, 13 अक्टूबर 2016

उजागर

हर चीज बिकती है यहाँ,
रहना जरा सँभल के।
बेचने वाले हवा भी बेच देते हैं,
गुब्बारे में डाल के।
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सच बिकता है,
झूठ बिकता है,
बिकती है हर कहानी,
तीनों लोकों में फैला है,
फिर भी बिकता है
बोतल में पानी।
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गंगा में डुबकी लगा, तीरथ किए हजार
उससे क्या होगा अगर,  बदले नहीं विचार।
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मौत से इतनी दहशत, जान क्यों इतनी अजीज?
मौत आने के लिए है,
जान जाने के लिए।
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दुनिया में जिसे “मैं” की हवा लगी,
उसे फिर न दुआ लगी न दवा लगी।
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लगता है बारिश को कब्ज़ हो गई है
मौसम बनता है लेकिन आती नहीं।
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जो झुकते हैं जिंदगी में,
वे सब
बुज़दिल नहीं होते,
ये हुनर होता है उनका,
हर रिश्ता निभाने का।
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बहस कभी ऐसी मत करो कि
बहस तो जीत जाओ
मगर रिश्ता हर जाओ।
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जिंदगी के इम्तिहान में नंबर नहीं मिलते साहब,
लोग अपने  दिल में जगह दे दें
तो समझ लो
कि आप पास हो गए।
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पहले मैं हुशियार था, दुनिया बदलने चला था।
अब मैं समझदार हूँ, खुद को बदल रहा हूँ।
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भूलना भी ईश्वर का वरदान है,
वरना,
यादें तो इंसान को पागल बना देतीं।
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उम्र भर यही भूल करते रहे,
धूल थी आईने पर
चेहरा साफ करते रहे।
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खुदा पर जो यकीन है,
तो जो तकदीर में है,
वही पाओगे।
और खुद पर यकीन है,
तो खुदा वही लिखेगा,
जो आप चाहोगे।
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अपनी जबान से किसी के ऐब बयान मत करना,
क्योंकि
ऐब तुम में भी है
और जबान दूसरे के भी।

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