शुक्रवार, 24 दिसंबर 2021

साध्य से ज्यादा साधन का महत्व

 गुरु के द्वारा निर्दिष्ट साधन ही परिपक्व और फलप्रद हो सकता है। पाँच-छ: मनुष्य हैं। उन सब को एक ही रोग है, उसके लिये जुलाब लेना आवश्यक है। वे पंसारी की दुकान पर जाकर पूछते हैं कि 'भाई! जुलाब के लिये क्या लेना चाहिये?' वह कहता है कि नमकीन आँवला बहुत अच्छा रहेगा। दूसरी दुकान पर जाकर पूछते हैं तो वह कहता है कि हर्रे  अच्छी रहेगी। तीसरा दुकानदार कहता है कि नौसादर अच्छा रहेगा। चौथा कहता है कि विलायती नमक अच्छा रहेगा । झण्डू की दुकान पर पूछने से वह कहता है कि अश्वगन्धा ले लो, वायु कुपित हो गया है।

          ऐसी अवस्था में वे निश्चय नहीं कर पाते कि कौन-सा जुलाब लें और उनको निराशा हो जाती है। इतने में एक चतुर मनुष्य कहता है, 'भाई! उदास क्यों होते हो? चतुरलाल वैद्य के यहाँ चलो और वे जैसा कहें, वैसा करो।' वैद्यराज प्रत्येक की प्रकृति की जाँच करके किसी को हर्रे, किसी को नौसादर तथा किसी को नमकीन आँवला, किसी को विलायती नमक का नुस्खा बताते हैं और उससे प्रत्येक को लाभ होता है।


          

इसी प्रकार हम सब लोग एक ही रोग से पीड़ित हैं। व्याधि महाभयंकर है, उसका नाम है भव-रोग। निदान तो ठीक है, परंतु चिकित्सा में भूल होने से मृत्यु निश्चित है। यहाँ मृत्यु का अर्थ एक बार मरना नहीं है, बल्कि अनन्त मृत्यु के चक्कर में भटकना है। 'मृत्योः स मृत्युमाप्नोति।' अतएव सद्गुरुरूपी सद्वैद्य के पास जाना चाहिये और उनकी बतलायी हुई औषधि का सेवन तब तक करना चाहिये, जबतक व्याधि निर्मूल न हो जाये। इसमें असावधानी करने से रोग दूर नहीं हो सकता।

          भारत और पाकिस्तान एक साथ आजाद हुए। लेकिन आज इतने वर्षों बाद भारतीय गूगल्स माइक्रोसॉफ़्ट, पेप्सिको, जैगुआर, लैंड रोवर आदि अनेक अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के प्रमुख हैं जबकि पाकिस्तान तालिबन, अल-केदा, जम्मात उ दावा, हिजबल मुजाहिदीन आदि का जन्मदाता और पनाहगार है। भारत चाँद और मंगल तक पहुँच रहा है जबकि पाकिस्तान भारत में प्रवेश करने की कोशिश में लगा है। दोनों के उद्देश्य एक ही हैं, लेकिन दोनों ने अलग-अलग साधन अपनाए, स्वतन्त्रता प्राप्ति के भी और उन्नति के भी, और दोनों का परिणाम भी अलग-अलग है।

          विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, "उच्च आय वाले देश में गहन देखभाल इकाइयों में लगभग 30% रोगी कम से कम एक स्वास्थ्य देखभाल से जुड़े संक्रमण से प्रभावित होते हैं"। ये संक्रमण अक्सर एंटीबायोटिक दवाओं के अनुचित या अधिक उपयोग के कारण होते हैं। 20वीं सदी में शोधकर्ताओं ने एंटीबायोटिक्स की खोज की थी।

          हमें कभी-कभी यह सोचने की आवश्यकता होती है कि क्या हमें एक विशेष किस्म की अनुसंधान पद्धति को विकसित करना चाहिए।  (द वीक , 30 जून 2019)

            क्या कारण है कि नए-नए अनुसन्धानों, खोजों, दावों के बावजूद प्रायः हर रोग अविरल गति से बढ़ रहे हैं? यही नहीं बल्कि नए-नए रोग भी ईजाद हो रहे हैं? कहीं हमारे साधन में बड़ी त्रुटि तो नहीं? हमें अपने तरीकों को बदलने की आवश्यकता तो नहीं?

          केवल लक्ष्य का महान या पवित्र होना यथेष्ट नहीं होता, लक्ष्य को पाने का साधन भी सटीक होना आवश्यक है। सटीक साधन के अभाव में लक्ष्य प्राप्त होने पर भी उसका फल तिरोहित हो जाता है। अतः जितना महत्व लक्ष्य का है उतना ही उसे पाने के साधन का, मार्ग का भी है। अल्पज्ञानी का ध्यान केवल लक्ष्य पर ही केन्द्रित रहता है लेकिन विद्वजन लक्ष्य के साथ साधन की सटीकता का भी पूरा ध्यान रखते हैं।  

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https://youtu.be/etTjpu0fiMA

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2021

मुजिका और शास्त्रीजी की सरलता और सादगी

 (उरुग्वे के राष्ट्रपति मुजिका को पूरा विश्व जानता है लेकिन अपने प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री से, जो केंद्रीय मंत्री और फिर प्रधान मंत्री रहे, कितने लोग परिचित हैं? उन्होंने एक सादगी पूर्ण सरल जीवन ही व्यतीत  किया। अब दशकों बाद उनके अनेक किस्से एक-एक कर सामने आ रहे हैं। यह विचारणीय है कि देश, क्यों उनकी सादगी और सरलता की चर्चा नहीं करता?  क्यों हम अपने देश में ही उन्हें प्रतिष्ठित नहीं कर पाये? क्यों हमारे राजनेता, विधायक, प्रशासक उनके आदर्श को, उनकी सरलता को, सादगी को पसंद नहीं करते अतः नहीं अपनाते हैं और इस कारण उनकी चर्चा नहीं करते हैं? अगर हम ही इनकी चर्चा नहीं करेंगे तो फिर कौन करेगा? सं.)

इंसान को मुश्किल बनाती स्थितियां हैं, तो वह हौसला भी है जो इंसान को सरल-सहज बने रहने के लिए प्रेरित करता है। भले ही असल जीवन में यह क़िस्से आटे में नमक के बराबर हों, लेकिन समाज को सरलता का स्वाद तो चखा ही देती हैं। ऐसा ही एक नाम एलबर्टो मुजिका का है। मुजिका उरुग्वे के राष्ट्रपति थे। दुनिया उन्हें सबसे ग़रीब राष्ट्रपति के नाम से जानती है।



          मुजिका अपने वेतन यानी 12 हज़ार डॉलर का 90 प्रतिशत हिस्सा ग़रीबों की मदद के लिए ख़र्च कर दिया करते थे। लोग उन्हें भले ही दुनिया का सबसे ग़रीब राष्ट्रपति कहती हो, लेकिन दरअसल वे दुनिया के सबसे अमीर राष्ट्रपति थे। राष्ट्रपति बनने के बाद उन्हें यूं तो राष्ट्रपति भवन में रहना था, लेकिन उन्होंने अपना पुराना घर चुना। वे वहाँ अपनी पत्नी और कुत्ते के साथ रहा करते थे। उनके पास अपनी वॉक्सवेगन बीटल गाड़ी थी, जो उन्होंने 1987 में खरीदी थी, लेकिन 2010 में राष्ट्रपति बनने के बाद भी उसे नहीं छोड़ा। वे  मिसाल थे कि हमें अपनी जिंदगी कैसे जीनी चाहिए। दुनिया के सबसे गरीब राष्ट्रपति मुजिका कहते थे, गरीब वह है जो जीना नहीं जानता। जिसे जीने के लिए अपने अगल-बगल कबाड़ इकट्ठा करने की जरूरत पड़ती है। मुजिका ने बता दिया कि राजनीति इतनी भी मुश्किल नहीं होती है, सरल आदमी दूसरों की जिंदगी को आसान बनाता है। उसके लिए उसे साधु बनने की जरूरत नहीं है।

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बात उन दिनों की है, जब लालबहादुर शास्त्री केन्द्रीय मन्त्री थे। सादगी और ईमानदारी  में शास्त्रीजी बेजोड़ थे। एक बार की बात है, प्रधानमन्त्री पण्डित जवाहरलाल नेहरू  ने उन्हें एक जरूरी काम से कश्मीर जाने के लिये कहा। शास्त्रीजी ने निवेदन किया कि किसी और को उनकी जगह भेज दिया जाये। नेहरूजी ने जब इसका कारण पूछा तो शास्त्री जी बोले – कश्मीर में इस समय बेहद ठण्ड पड़ रही है और मेरे पास गर्म कोट नहीं है।' यह सुनकर बहुत इनकार करने के बावजूद नेहरूजी ने अपना एक कोट शास्त्रीजी को दे दिया। शास्त्रीजी ने पण्डितजी का कोट पहनकर देखा। वह बहुत लम्बा था और बहुत नीचे तक लटक रहा था। शास्त्री जी अपने एक मित्र को साथ लेकर एक नया कोट खरीदने बाजार पहुँचे। बाजार में काफी कोट देखे गये, पर मन पसन्द कोट नहीं मिला। वह या तो इतना महँगा होता कि शास्त्रीजी दाम चुकाने में असमर्थ होते या फिर उसका साइज ऐसा होता कि उनको ठीक नहीं आता। एक दुकानदार ने उन्हें एक ऐसे दर्जी का पता दिया, जो सस्ता और अच्छा कोट सिलकर दे सकता था। शास्त्रीजी अपने मित्र के साथ उस दर्जी के पास पहुँचे और एक सस्ता कोट सिलने को दे दिया। शास्त्रीजी के मित्र बोले- 'आप केन्द्रीय मन्त्री हैं। आप चाहें तो सैकड़ों कीमती कोट आपके पास हो सकते हैं, लेकिन आप एक मामूली कोट के लिये बाजार में मारे-मारे घूम रहे हैं।' शास्त्रीजी ने मुसकुराकर जवाब दिया—'भाई! मुझे इतनी तनख्वाह नहीं मिलती कि मैं कीमती कपड़े खरीद सकूँ और फिर मेरे लिये तो देश-सेवा ही सबसे बढ़कर है, जो मैं मामूली कपड़ों में भी कर सकता हूँ।'

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यह घटना उन दिनों की है, जब लालबहादुर शास्त्री भारत के गृहमन्त्री थे। शास्त्रीजी की सादगी सर्वविदित है। वे स्वयं पर अथवा अपने परिवार पर तनिक भी अनावश्यक खर्च नहीं करते थे। उनका रहन-सहन आम लोगों जैसा ही था। राष्ट्र के अति महत्त्वपूर्ण पद पर आसीन होने के बावजूद भी उन्होंने कभी अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं किया। एक बार इलाहाबाद स्थित निवास के मकान मालिक ने उनसे मकान खाली करने का अनुरोध किया, जिसे शास्त्रीजी ने तत्काल मान लिया। वास्तव में मकान मालिक को उस निवास स्थान की अति आवश्यकता थी और शास्त्रीजी स्वयं से अधिक दूसरों की जरूरतों का ख्याल रखते थे। अतः उन्होंने मकान खाली कर दिया और किराये  पर दूसरा मकान लेने के लिये आवेदन-पत्र भरा। काफी समय बाद भी शास्त्रीजी को मकान नहीं मिल सका, तो उनके किसी मित्र  ने अधिकारियों से पूछताछ की। अधिकारियों ने बताया कि शास्त्रीजी का कड़ा आदेश है कि जिस क्रम में उनका आवेदन-पत्र दर्ज है, उसी क्रम  के अनुसार मकान दिया जाये। कोई पक्षपात न किया जाये। और सच तो यह था कि १७६ आवेदकों के नाम शास्त्रीजी के पहले दर्ज थे, इसलिए देश का गृह मंत्री मकान के लिए लंबे समय तक प्रतीक्षारत रहा।  इस घटना  का सार यह है कि नियम-कानून का पालन यदि साधारण लोगों के साथ विशिष्टजन भी पूरी ईमानदारी से करें तो समाज से भ्रष्टाचार जड़ से समाप्त हो जाये।

तुम मन की जेल में क्यों रहते हो...

जबकि दरवाज़ा तो पूरी तरह से खुला है।

                                                            रूमी

(आप एक बड़ी साँस लेकर सोच रहे हैं क्या स्थिति है, लेकिन मैं कर ही क्या सकता हूँ! क्या आप मुझे बताएँगे अगर आप नहीं कर सकते तो कौन कर सकता है? दर असल यह केवल और केवल आप यानी हम ही कर सकते हैं – आम जन। इस आम-जन में ताकत तो बहुत बड़ी है लेकिन हनुमान की तरह अपनी ताकत को भुला कर बैठा है। उत्तिष्ठ भारत उठो भारतीय जागो, अपनी ताकत को पहचानो।  

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https://youtu.be/oUpsHrqmwBM


शुक्रवार, 10 दिसंबर 2021

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो

बच्चों के छोटे हाथों को चाँद सितारे छूने दो,

चार- किताबें पढ़ कर वे भी हम जैसे हो जाएंगे

                                                                                                        निदा फाजली



वक्त बचपन को बहा ले जाता है। बचपन का जाना, जीवन से सरलता का चले जाना होता है। हम बड़े हो जाते हैं। सरल बनने की कोशिशें करते हैं, तमाम स्वांग करते हैं, आवरण ओढ़ते हैं, हजारों रुपए देकर जिंदगी जीने की कला सीखने भी जाते हैं, लेकिन नहीं बदलते। साल 2011 में लिटिल चैंप्स रियलिटी शो में एक बच्चा आया था। रूहानी आवाज के मालिक नन्हे से अजमत से जब पूछा गया कि अगर वह जीत जाएगा तो पैसों का क्या करेगा तो उसने शो में ही अपने एक और प्रतिभागी साथी का नाम लेकर कहा था, उसका मकान कच्चा है। उसके मकान को बनवाऊँगा इतनी सरलता से कोई बच्चा ही कह सकता है।

          यहाँ ईरानी डायरेक्टर अब्बास किआरोस्तामी की फिल्म 'वेयर इज दि फ्रेंड्स होम' याद आती है। फिल्म विद्यालय की कक्षा के दृश्य के साथ आगे बढ़ती है, जहाँ शिक्षक होमवर्क पूरा न करके लाने वाले छात्र को छड़ी से मारता है। अहमद को याद आता है कि उसके दोस्त की नोटबुक उसके पास रह गई है, वह उस दिन क्लास में नहीं आया, लेकिन अगले दिन आएगा होमवर्क नहीं किया होगा, तो क्या होगा। अहमद के इस दोस्त का गाँव उसके घर से दूर है, वह नोटबुक लेकर निकल पड़ता है उसे लौटाने के लिए। वह लड़के के गाँव पहुँचता है, तो पता चलता है वह कहीं और है। वह पता लेकर उसे ढूँढ़ने निकल पड़ता है, रात हो जाती है, लेकिन वह उसे ढूँढ लेता है। हम बड़े हो जाते हैं और दोस्तों के घर का पता होते हुए भी, हाथ में गूगल मैप होते हुआ भी, गाड़ी या मोटर साइकिल होते हुआ भी, नहीं पहुँच पाते। हम इतने बड़े क्यों हो जाते हैं?

         माजिद माजीदी की फिल्म 'चिल्ड्रन ऑफ हेवन।' अपनी बहन का जूता खो देने वाला अली विद्यालय की ओर से आयोजित दौड़ प्रतियोगिता  में हिस्सा लेने का फैसला करता है, क्योंकि उसे बस इतना पता है कि इनाम में उसे जूते मिलेंगे। जूते के लिए दरअसल उसे सेकेंड आना था, लेकिन वह दौड़ते हुए यह भूल जाता है और पहले नंबर पर आ जाता है। वह पहले नंबर पर आकर भी खूब रोता है, क्योंकि उसका लक्ष्य सिर्फ जूते हैं। आदमी ठीक इससे उलट करता है, वह लक्ष्य बना लेता है, पूरा करता है, वह उस लक्ष्य को पूरा करने का आनंद लेना भूल जाता है। उसका आनंद लेने की बजाय उसे फिर कुछ और चाहिए। ये कुछ और क्या है, उसे खुद को पता नहीं। वह ता-उम्र उस तक नहीं पहुँच पाता। सरलता सीखनी है तो बच्चों से सीखें, लेकिन बतौर समाज हम बच्चों से सबसे पहले जो छीनते हैं वह है उनकी सरलता।

गुलजार साहब की एक कविता याद आ रही है

 

"जिन्दगी की दौड़ में,

तजुर्बा कच्चा ही रह गया...।"

         " हम सीख न पाये 'फरेब'

         और दिल बच्चा ही रह गया...।"

                    "बचपन में जहाँ चाहा हँस लेते थे,

                    जहाँ चाहा रो लेते थे...।"

                              "पर अब मुस्कान को तमीज़ चाहिए,

                              और आँसुओं को तन्हाई..।"

                                        "हम भी मुसकुराते थे कभी बेपरवाह, अन्दाज़ से..."

                                        देखा है आज खुद को कुछ पुरानी तस्वीरों में ..।

                                           "चलो मुस्कुराने की वजह ढूँढते हैं...

                                                   तुम हमें ढूँढो...हम तुम्हें ढूँढते हैं .....!!"

 

सरल होना, अपनी तरफ़ से अच्छे से अच्छा, और जहाँ तक हो सके श्रेष्ठ रूप से करना कितना अच्छा है; केवल प्रगति प्रकाश, सद्भावनापूर्ण , शान्ति के लिए अभीप्सा करना। तब कोई चिन्ता नहीं रहती और पूर्ण रूप से सुखी होते हैं!

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आपने भी कहीं कुछ पढ़ा है और आप उसे दूसरों से बाँटना चाहते / चाहती हैं तो हमें भेजें। स्कैन या फोटो भी भेज सकते / सकती हैं। हम उसे यहाँ प्रकाशित करेंगे।

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यू ट्यूब लिंक --->

https://youtu.be/1lpe2cYQH3U




शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

सूतांजली दिसंबर 2021

 सूतांजली के दिसम्बर अंक के ब्लॉग और यू ट्यूब का  संपर्क सूत्र नीचे है:-

इस अंक में तीन विषय, एक लघु कहानी और धारावाहिक कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी की बारहवीं किश्त है।

१। यह या वह - मेरे विचार

कौन-सा मार्ग चुनें, तपस्या का या समर्पण का? बहुधा यह प्रश्न हमारे सामने खड़ा होता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने इस शंका का समाधान बहुत ही सरल भाषा में एक उदाहरण के माध्यम से समझाया है।  श्रीरामकृष्ण कहा करते थे, तुम बन्दर के बच्चे और बिल्ली के बच्चे, इन दोनों में से किसी एक के मार्ग का अनुसरण कर सकते हो। ……..

२। ऐ सुख तू कहाँ मिलता है ? - मेरे विचार

सुख तो हम सब चाहते हैं, लेकिन वह है कहाँ? कहाँ ढूँढे उसे? है तो हमारे अगल-बगल ही, लेकिन हमें दिखता क्यों नहीं, हमें मिलता क्यों नहीं? कैसे दिखेगा-किसे मिलेगा?

३। वाह हिंदुस्तान!  - मैंने पढ़ा

हम उन लोगों में जिन्हें अपना मुल्क, अपना धर्म, अपने संस्कार, अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति, अपना साहित्य सब घटिया लगता है। विदेशी जब इसकी आलोचना करते हैं तब हम उनसे सहमत होते हैं लेकिन जब प्रशंसा करते हैं तब संदेह ही दृष्टि देखते हैं। जब तक हम खुद अपने को इज्जत नहीं देंगे, हमें इस बात की आशा नहीं रखनी चाहिए कि दूसरे इसे इज्जत देंगे। मार्क ट्वेन की भारत की यात्रा-विवरण से कुछ अंश। 

४। हौसला                                          लघु कहानी - जो सिखाती है जीना

हमारे मुँह से निकले हर शब्द का अर्थ होता है, सुनने वाले को प्रभावित करता है। उसे प्रोत्साहित या हतोत्साहित करता है। जब भी मुँह खोलें, समझ कर खोलें।

५। कारावास की कहानी – श्री अरविंद की जुबानी – धारावाहिक

धारावाहिक की बारहवीं किश्त

 ब्लॉग  का संपर्क सूत्र (लिंक): à  

https://sootanjali.blogspot.com/2021/12/2021.html

 यू ट्यूब का संपर्क सूत्र (लिंक) : à

https://youtu.be/GtMdjaqo4Ng


शुक्रवार, 26 नवंबर 2021

कोलकाता से विशाखापत्तनम – सड़क मार्ग से

                     आदमी चाहे तो तकदीर बदल सकता है,

                              पूरी दुनिया की तस्वीर बदल सकता है,

                                        आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है?

जब-जब हमने इरादे मजबूत किये, हमने दुनिया को बदलते देखा है। इरादे मजबूत हों तो  आदमी दुनिया बदल सकता है, धरती को स्वर्ग बना सकता है। बस इरादे की ही तो कमी है।

          सड़क मार्ग पर यात्रा करना किसी के लिए भयावह है तो किसी के लिए रोमांचकारी। ऐसी यात्रा में नई कठिनाइयाँ हैं, बड़े खर्च हैं तो इसमें नये अनुभव हैं बड़े आनंद हैं। बचपन से ही मुझे सड़क मार्ग से यात्रा करने की आदत रही है। पिता के साथ ऐसी अनेक यात्राएँ की हैं। लेकिन उन सब यात्राओं में ड्राइवर भी रहा करता था। ये यात्राएँ छोटी – देवघर, रांची, धनबाद- और लंबी – इलाहाबाद, काठमाण्डू तक, दोनों प्रकार की हुई।

          फिर, कई दशकों तक, नून-तेल-लकड़ी, के भंवर में फंस कर  ऐसी यात्राएँ स्थगित हो गई थी। लेकिन पिछले दो-अढ़ाई दशकों से मेरी ये यात्राएँ फिर से प्रारम्भ हो गईं। ये यात्राएँ बिना किसी ड्राइवर के हुईं लेकिन प्रायः कम दूरी की यात्राएँ रहीं – पूरी, जसीडिह, दीघा, रांची, सिमलीपाल या फिर गोपालपुर आदि की। बड़ी दूरियाँ तय करने की मन में तमन्ना रहती थी, मंसूबे बाँधता था  लेकिन साहस नहीं होता था – न ड्राइवर है, न ही कोई संगी साथी, अनजान सड़क, अनजान जगह, ढलती उम्र। बुद्धि तर्क पर तर्क देती और हिम्मत टूट जाती। छोटी-छोटी यात्राएं तो कीं लेकिन लंबी यात्राओं के केवल सपने देखता रहता और मन-मसोस कर रह जाता। एक दिन अचानक पता चला कि मेरी डॉक्टर गाड़ी से लम्बी-लम्बी यात्राएँ करती हैं, कई वर्षों से और वर्ष भर में कई बार। तुरंत उनसे संपर्क किया। उन्होंने प्रोत्साहित करते हुए कहा कि मैं शारीरिक और मानसिक रूप से लम्बी  यात्रा करने में सक्षम हूँ। मैं अनावश्यक ही डर रहा हूँ। मेरे सभी नकारात्मक सोच को नकारते हुए उसने बताया कि वे दो ड्राइवर होते हैं और मैं एक अकेला, इससे क्या फर्क पड़ता है? सिर्फ इतना कि वे प्रतिदिन कुछ घंटे और कुछ किलोमीटर ज्यादा चल लेते हैं और मुझे कुछ कम जाना होगा, बस। उनके प्रोत्साहित करने पर मैंने तुरंत, 2018 में, 2500 कि.मी. का कार्यक्रम बनाया, छत्तीसगढ़ घूमने का। दुर्भाग्यवश परिवार में एक दुर्घटना के कारण फिर यह कार्यक्रम केवल कागजों पर ही रह गया। आखिर 2021 में यह फिर से मुहूर्त बना और कोलकाता से विशाखापत्तनम और फिर वहाँ से दिल्ली तक का कार्यक्रम बना कर हम, मैं और मीनू, शुक्रवार, 13 नवंबर 2021 प्रातः 5 बजे अपनी यात्रा के प्रथम चरण पर निकल पड़े – कोलकाता से विशाखापत्तनम।



          घर से  निकले तब अंधकार था, धूलागड़ तक पहुँचते-पहुँचते पौ फट चुकी थी, आसमान में बादल छाए हुए थे, हलका कोहरा छाया हुआ था, बिजली के तारों पर पक्षियों का झुंड बैठा कलरव कर रहा था। हरियाली आँखों को सुख प्रदान कर रही थी। मौसम सुहावना, आनन्द-दायक और उत्साहवर्द्धक  था। इस चरण की पूरी यात्रा राष्ट्रीय मार्ग (नेशनल हाईवे) पर ही होनी थी अतः  किस रास्ते से जाएँ, कौन-सा विकल्प चुनें, इसका  प्रश्न नहीं था – राह पकड़ तू एक चला-चल पा जाएगा तू ......भुवनेश्वर । कोलकाता से राष्ट्रीय मार्ग लेने के लिए हर समय कोना एक्सप्रेस पकड़ा करता था। लेकिन इस बार उसे छोड़ अंदुल रोड से निकला। निर्णय सही रहा। बिना रुके, न ट्रैफिक  न सिगनल। कोना एक्सप्रेस पर संतरागाछी के नजदीक रोज सुबह लंबा जाम लगा करता है। इसमें फंसा हुआ हूँ और यही जानकारी मिली अत: उसे छोड़ नए मार्ग को अपनाया।  आदतन पुरातन से चिपके रहना उचित नहीं, आवश्यकतानुसार पुरातन को छोड़ नूतन को अपनाना चाहिए। यही विकास,  उन्नति का मार्ग है, यही सनातन है।

          राह में होटल खुशी पर नाश्ते के लिए रुके। वैसे तो हमारे पास खाने का सब था फिर भी थोड़ा आराम करने और हाथ-पैर को खोलने हम रुक ही गए। पता चला कि बिना प्याज-लहसुन के सिर्फ पनीर की ही सब्जी है, मन दाल लेने का था, लेकिन विकल्प नहीं था और वहाँ से अब उठने का मन भी नहीं हो रहा था। होटल वाले ने हमारे मन की बात ताड़ ली और कहा, मैं  झूठ नहीं बोलूँगा, मेरे पास तो बिना प्याज-लहसुन की सब्जी में केवल यही है। उसकी सरलता ने मन मोह लिया और हम उसके तख्त पर पसर गए। पनीर की सब्जी वाकई लाजवाब थी। रंग अजीब सा था, लेकिन स्वाद में गजब था।

          पहला पड़ाव भुवनेश्वर के आसपास करना था। मन निश्चित नहीं था। ऊहापोह में था – पहला दिन है, अगर समय से पहुँच गए और ऊर्जा रही तो भुवनेश्वर से आगे जाने का विकल्प मन में था। लेकिन फिर विशाखापत्तनम से संदीप का फोन आया, उसने सुझाव दिया और यह भ्रम दूर हो गया। मुझे विशाखापत्तनम तक ही जाना है, एक दिन में जा नहीं सकते, भुवनेश्वर मध्य में है और यहाँ ठहरने-खाने के अनेक विकल्प हैं, अतः वहीं ठहरना उचित है। बात सही थी। संदेह मिटा, निर्णय हुआ, उत्साह और हिम्मत आ गई, चिंता मिटी। स्पष्ट निर्णय, लक्ष्य को साधता है, अस्पष्टता बुद्धि को भ्रमित करती है। बालासोर के बाद वर्षा मिलने के कारण हम कहीं रुक नहीं सके, बढ़ते चले गए।

          3 ही बज थे अतः शहर के अंदर, लिंगराज मंदिर के समीप ओड़ीसा सरकार के पंथनिवास में ठहरने का मन बनाया। पहुँच कर निराशा हुई। बात यह हुई कि कुछ समय पहले ही उन्होंने बड़ा बदलाव करते हुए अपने सब कमरों को सुपर डीलक्स में परिवर्तित कर दिया था। सिर्फ एक रात के लिए इतने पैसे देने का मन नहीं बना। वहाँ से निकल कर राष्ट्रीय मार्ग के नजदीक ही होटल साई जग्गनाथ में ठहर गए। जगह साफ-सुथरी थी और थकावट भी आने लगी थी। मन कम होने पर भी यहीं रुक गए। यहाँ खाने की व्यवस्था नहीं है। बाहर से व्यवस्था कर देते हैं। खाना अच्छा देते हैं लेकिन समय का पर कोई नियंत्रण नहीं। दूरी और प्रातः  मंदिर के खुलने का समय न मालूम पड़ने के कारण लिंगराज के दर्शन नहीं हो सके। जगह बहुत पसंद नहीं आई, लेकिन बुरी भी नहीं है। ओड़ीसा तक का रास्ता ठीक-ठाक है। राष्ट्रीय मार्ग के स्तर का कहीं भी नहीं है। बालासोर के बाद रास्ता रख-रखाव, नए निर्माण आदि के कारण जगह-जगह परिवर्तन (diversion) किए गए हैं, दुःख की बात यह है कि ये परिवर्तित मार्ग, संकड़े हैं बम्प्स से भरे हुए हैं – दो या तीन एक साथ – और खराब अवस्था में हैं। हमारे देश में,  हर जगह दशकों से यही प्रथा है, इसे ठीक से क्यों नहीं बनाया जा सकता? इस पर क्यों ध्यान नहीं दिया जाता, आश्चर्य है? इस मार्ग पर खाने की अच्छी सुविधा / विकल्प भी नहीं मिली। लेकिन गुजारा हो गया।

          दूसरे दिन सुबह 7 बजे निकले। होटल वाले कोई व्यवस्था नहीं कर सके अतः  बिना चाय पीये ही निकले। प्रथम दो घंटे परेशान रहे। वर्षा, टूट-फूट, मरम्मत ने बड़ा तंग किया। लेकिन उसके बाद, आंध्रा में सड़क सिल्की मिली। न चाहने पर भी गाड़ी की रफ्तार बार-बार 100 किमी तक पहुँच रही थी और पता ही नहीं चल रहा था। परेशानी यह थी कि कहीं खाने की सही जगह नहीं मिल रही थी। हर जगह दक्षिण भारतीय भोजन, चावल-सब्जी। विशाखापत्तनम में बैठा संदीप भी गूगल देख कर बता रहा था लेकिन शायद कोरोना के समय वे स्थान  बंद हो चुके थे। उनका अस्तित्व नहीं मिला। फ़ेस बूक के एक दल ने बताया था कि खुर्दा में आस-पास अनेक अच्छी मिठाइयों की दुकानें हैं। कटक के पास तो हैं, हमें मिली भी, लेकिन इधर ऐसा कुछ नहीं था। एक-दो जगह रुक कर ताका-झांकी भी की लेकिन कहीं रुकने का मन नहीं बना। आखिर एक जगह गाड़ी लगाई, होटल वाले से गाड़ी में ही देने के लिए कहा, उसने चावल और दक्षिण भारतीय सब्जी दी। उसी से संतोष कर आगे बढ़े। हल्की-तेज वर्षा मिलती रही। इस कारण प्रकृति नहा-धो सज-संवार कर नृत्य करती मिली। वर्षा काल में सफर के अगर अपने कष्ट और डर हैं तो इसका अपना आनंद और सुख भी है। मैंने कहीं पढ़ा-सुना था – हम सुख, शांति, ऐश्वर्य और समृद्धि की चाह रखते हैं, लेकिन क्या ये चारों एक साथ रह सकते हैं? जैसे धूप और छाँह, अग्नि और जल, जीवन और मृत्यु एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही सुख, शांति, ऐश्वर्य और समृद्धि एक साथ नहीं रह सकते हैं। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। क्या लेना है और क्या छोड़ना, अगर यह स्पष्ट है तो फिर कष्ट नहीं, दुख नहीं। इस ज्ञान का अभाव ही हमें दुःख देता है। जीवन में यह अनिश्चितता ही दुर्घटना का कारण बनती है।

          वैसे तो भुवनेश्वर से विशाखापत्तनम तक  भी सीधा राज-मार्ग है। लेकिन मैंने पूरे रास्ते गूगल मैप खोल रखा था। कई जगह मैप ने विकल्प दिये। लेकिन देखने और चलाने वाला मैं अकेला ही अतः उस पर ध्यान नहीं दिया। लेकिन फिर दो बार अलग-अलग जगहों पर विकल्पों को रुक कर देखा – एक माना, एक नहीं। बाद में समझ आया कि दोनों ही मानना चाहिए था। पहले सुझाव में नए राष्ट्रीय मार्ग को छोड़ कर पुराने राष्ट्रीय मार्ग से जाने से 15 मिनट बचे। दशकों पहले की सड़क यात्राओं की याद ताजा हो आई, गाँवों-कस्बों के बीच से सड़क का गुजरना, बाजार-स्थानीय लोगों से रूबरू होना, संकड़ी कभी टूटी-भांगी  तो कभी रेशमी सड़क मिली। इस विकल्प की लंबाई ज्यादा भी नहीं थी, कोई परेशानी नहीं हुई। दूसरा विकल्प ग्रहणीय नहीं लगा, अतः उधर नहीं मुड़ा, लेकिन गूगल बाबा 25 मिनट बचाने की बात कर रहा था। बाद में समझ आया कि उस मार्ग से शहर के बाहर-बाहर ही चले आने के कारण समय तो बचता लेकिन शहर देखने-समझने का मौका नहीं मिलता।

          शहर को मुख्य मार्ग से पार किया, बहुत सुंदर, साफ सुथरा, हरी-भरी पहाड़ी के बीच से रास्ता निकाला गया था। शहर उसी पहाड़ी से सटा हुआ था। गाड़ियाँ बहुत थीं, सिगनल्स भी बहुत लेकिन, आश्चर्यजनक ढंग से मैंने अनुभव किया कि आवाज नहीं थी, पूरा वातावरण शांत और आनंदमय था। कहीं कोई हड़बड़ाहट नहीं, खीज नहीं, लोग शांत, वाहन शांति से प्रतीक्षा कर रहे थे। दूसरे दिन भी जब तेज वर्षा के बाद निकले, पानी के जमाव के कारण यातायात लगा हुआ था। हमारी गाड़ी हिल भी नहीं रही थी, लेकिन फिर भी कहीं-कोई आवाज नहीं, शोर-शराबा नहीं, आपा-धापी नहीं, सब धैर्य पूर्वक इंतजार कर रहे थे। विश्वास ही नहीं हुआ कि हम भारत में ही हैं। क्या भारत इसे समझ सकता है? ऐसा बन सकता है? क्या हम एक सभ्य इंसान बन सकते हैं? क्या यह बात समझ में आती है कि स्वर्ग यहीं है, यहीं है, यहीं है’, आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है।

यात्रा प्रारम्भ करने के पहले मन में बहुत ऊहापोह थी – करूँ या न करूँ। लेकिन जब ठान लिया, तब निकल पड़े और जब निकाल पड़े तब पहुँच गए।

यात्रा के कुछ विशेष आंकड़े इस प्रकार रहे :

गाड़ी          :      WagonR

व्यक्ति         :     दो – मैं और पत्नी

कुल दूरी      :     900 किमी (470 + 430)

समय          :     पहले दिन सुबह 5 से शाम 3 तथा दूसरे दिन सुबह 7 से शाम 4 बजे तक

टोल           :     पहले चरण में रुपये 590 तथा दूसरे दिन रुपये 400

पेट्रोल         :     कुल 41 लीटर (22 किमी प्रति लीटर)

अगर आपके मन में भी है, तो बस सामान बाँधिए और निकल पड़िए, मंजिल स्वतः आसान हो जाएगी। 

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शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

सितारे बहुत बड़े दिखाई नहीं देते लेकिन

वे चमकदार दिखाई देते हैं

कल्पना चावला! अखबारों की सुर्खियां बटोरती भारतीय मूल की इस अमेरिकन महिला की स्पेस  सूट में तस्वीर आपके चेहरे के सामने घूम गई होगी। कल्पना चावला वह पहली भारतीय महिला है जिसने  अंतरिक्ष की यात्रा की थी। लेकिन, दरअसल हम उनके निजी जीवन के बारे में ज्यादा नहीं जानते। एक बार कल्पना के पिता उनसे मिलने ह्यूस्टन, अमेरिका गए। कल्पना ने कहा, ‘आप बैठो मैं आपके लिए खाना लगाती हूँ। यह कहकर कल्पना बर्तन धोने लगीं। पिता ने कहा, ‘बर्तन क्यों धो रही हो? बाद में धो लेना। कल्पना ने कहा, ‘घर में हम दो लोग हैं और हमारे पास बर्तन भी बस दो लोगों के लिए है कल्पना के घर में सामान के नाम पर जरूरत की चीजें भर हुआ करती थीं। अमेरिका की सबसे सस्ती कारों में से एक, उनके पास थी



          एक बार कल्पना के पिता ह्यूस्टन में उसके साथ थे। वे कल्पना के घर वापस आने का इंतजार कर रहे थे। कल्पना देरी से आईं तो पिता ने देरी का कारण पूछा। कल्पना ने पिता को बताया कि वह ऑफिस से सीधा मोची की दुकान पर चली गई थी। उसे अपने जूते ठीक करवाने थे। पिता जानते थे कि अमेरिका में मोची मिलना आसान नहीं है और यहाँ चीजों की मरम्मत करवाने से सस्ता है नई चीजें खरीद लेना। अतः उन्होंने कल्पना से पूछा, मोची की दुकान कहाँ है?’ कल्पना ने बताया घर से क़रीब 30 किलोमीटर की दूरी पर है। कितने पैसे लिए?’ पूछने पर कल्पना ने बताया कि 12 डॉलर, जबकि नए जूते 10 डॉलर में आ जाते हैं। पिता हैरान थे, कल्पना ने पिता से कहा क नई जोड़ी जूते खरीदने का मतलब है पहला, और एक जानवर की हत्या और दूसरा अगर हम नई जोड़ी ख़रीद लेंगे, तो मोची को काम कौन देगा’?  पिता ने कहा कि अगर वाक़ई किसी की मदद करना चाहती हो तो कुछ पैसे दान में दे देती। तुम दोनों पति-पत्नी इतनी मुश्किल से पैसा कमाते हो। कल्पना ने बताया जितना कमाते हैं, उससे जिंदगी आसानी से चल रही है

          हालांकि एक अंतरिक्ष वैज्ञानिक के पास देखा जाए तो पैसों की कमी नहीं हो सकती, लेकिन उनके पास अकाउंट में पैसे बहुत कम रहते थे। ऐसा नहीं था कि उनके पास पैसे नहीं थे, बल्कि वे हर साल अपने खर्च पर गाँव के दो बच्चों को अमेरिका लाती थीं, उन्हें लाने-ले जाने से लेकर अपने घर ठहराने तक। दुनिया के बारे में उन्हें जागरूक करती थीं। बच्चों की यात्रा 15 दिन की होती थी और उन्हीं बच्चों का चुनाव होता था, जो विज्ञान (साइंस) में सबसे अच्छे होते और इस क्षेत्र (फील्ड) में आगे जाने की जिनकी दिलचस्पी होती। साल 2003 में 41 वर्ष की उम्र में अंतरिक्ष से लौटते हुए उनकी मौत तक उनके पिता भी कल्पना की इस जिंदगी और सोच के बारे में नहीं जानते थे। जाहिर है कि दुनिया भी नहीं जानती थी कि इतनी बड़ी वैज्ञानिक इतनी साधारण जिंदगी जीती हैं। वे  चाहतीं तो घर में सामान का ढेर लग सकता था, लेकिन घर में उन्होंने दो लोगों के बर्तनों से ज्यादा बर्तनों की जरूरत भी नहीं समझीं। वे चाहतीं तो एक नहीं 10 जोड़ी जूते ख़रीद सकती थीं, लेकिन उन्होंने मोची के पास जाना चुना। कल्पना चावला की यही सरलता उन्हें और भी ख़ूबसूरत बनाती है, उपलब्धियाँ हासिल करना बड़ी बात होती है, लेकिन उससे भी बड़ी बात है उन उपलब्धियों के साथ भी सरल बने रहना। होना तो यह था कि चीजें, सुविधाएं और पैसा हमारी जिंदगी को सरल बनाता, लेकिन हुआ यह कि हमने अपने जीवन की सरलता को खो दिया।

सैली राइड, अमेरिकन अन्तरिक्ष यात्री (एस्ट्रोनॉट)

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शुक्रवार, 12 नवंबर 2021

दोषी कौन?

बुधवार, 3 नवंबर 2021। रोज की तरह एक नई सुबह, फर्क केवल इतना है कि इस वर्ष आज छोटी दीवाली भी है। आज भी, माधुरी सुबह-सुबह फिर सैर पर निकली। सुबह बस हुई ही है। गर्मी जा रही है ठंड दस्तक दे रही है। मौसम सुहावना है, सुहाती ठंडी बयार चल रही है। हमारा कोलकाता जल्दी उठने वाले शहरों में है। उस पर भी श्यामनगर, बांगुड़ के इलाके में दिन जल्दी हो जाता है। लोग घूमते-फ़िरते दिखते हैं। इलाका सुनसान नहीं रहता।

          माधुरी के कई संगी-साथी हैं जो साथ-साथ घूमते हैं। लेकिन आज वह अकेली है, उसकी एक भी संगी-साथी उसके साथ नहीं है। लेकिन ऐसा कई बार होता है। माधुरी नि:शंक प्रसन्नचित्त सैर करती है, दशकों से। त्यौहार पर बहुत व्यस्तता है, दिन भर क्या-क्या करना है इस पर चिंतन चल रहा है। तभी, एक मोटर साइकिल उसके समीप आती है, उस पर सवार सिरफिरे युवा उसके हाथ से फोन छिन लेते हैं। जैसे ही वे भागने को उद्यत होते हैं, माधुरी उनसे हाथापाई करने लगती है। उनमें से एक माधुरी को ज़ोरों का धक्का देता है, वह गिर पड़ती है। लेकिन फिर तुरंत खड़ी होकर उनकी मोटर साइकिल का रास्ता रोक कर खड़ी हो जाती है। सवार तेजी से उसकी तरफ अपनी मोटर साइकिल बढ़ाता है। माधुरी रास्ता नहीं छोड़ती। मोटर साइकिल उसके नजदीक आती जा रही है और उसकी गति  (स्पीड) भी बढ़ती जा रही है। माधुरी समझ लेती है कि अगर वह नहीं हटी तो वे उसे मोटर साइकिल से कुचलते हुए भागेंगे। वह हट जाती है, पूरे ज़ोर से चिल्लाती भी है लेकिन किसी के भी कानों पर जूँ नहीं रेंगती। न कोई उसे उठाने आया, न किसी ने भी सहायता की, न किसी ने भागते मोटर साइकिल को रोकने की चेष्टा की। सब निर्विकार बुत बने खड़े रहे।

          माधुरी थाने पर पहुँचती है। अधिकारी उसे ज्ञान देते हैं - उनसे हाथापाई नहीं करनी चाहिए, वे जो मांगे दे देना चाहिए। ऐसी घटनाएँ बहुत हो रही हैं, फोन हाथ में नहीं रखना चाहिए, अकेले नहीं घूमना चाहिए……… । और अंत में FIR में खो जाने (लॉस्ट) की बात दर्ज करते है, छिनताई (स्नैचिंग) दर्ज से मना कर देते हैं। माधुरी मगजपच्ची कर, हल्ला मचाकर चली आती है, थाने वाले टस-से-मस नहीं होते। और इस प्रकार हुआ पटाक्षेप इस घटना का।

          लेकिन बात यहाँ समाप्त नहीं होती। सही बात तो यह है कि बात यहाँ से शुरू होती है। यह घटना तो सिर्फ उसके बाद का परिणाम मात्र है। केवल पत्तों, डालों, काँटों को काटने-उखाड़ने से कुछ हासिल नहीं होता। पेड़ को जड़ समेत उखाड़ना होगा। हमें पहुँचना होगा इसकी जड़ तक और उपचार वहाँ करना होगा। चेष्टा करें जड़ तक पहुँचने की। कहाँ और कौन है जड़:

मोटर साइकिल में सवार युवा? : नहीं, समाज ने उन्हें न सुरक्षा दी न सही शिक्षा

प्रशासन?                            : नहीं, जैसे विधायक हैं, समाज है वैसा ही प्रशासन

तब क्या विधायक?               : नहीं, उन्हें चुना तो समाज के लोगों ने ही

हम / समाज?                       : विचार करें, शायद ये ही हों  



घटना के बाद मित्र, परिचित, सम्बन्धी जिसको भी इसकी जानकारी मिली  सब ने एक ही बात कही  समय बहुत खराब, तकदीर अच्छा है केवल एक फोन पर संकट टला, वे लोग छुरा मार सकते थे, गोली चला सकते थे, हड्डी-वड्डी टूट सकती थी, ये अकेले-दुकेले नहीं होते, इनका पूरा गैंग होता है, प्रतिरोध तो करना ही नहीं चाहिए, जो मांगे चुपचाप देकर जान छूटा लेनी चाहिए.......। पूरे डरपोक और नपुंसक समाज ने मिल कर फिर एक बार:

राम, कृष्ण, अर्जुन का पक्ष त्याग दिया

रावण, कंस, दुर्योधन के पक्ष में खड़ा हो गया

भगत सिंह, चंद्र शेखर आजाद, नेताजी, गांधी को भुला दिया

हम जब डरपोक और निष्क्रिय हो जाते हैं, समाज में ऐसे लोग ही बहादुर और सक्रिय हो जाते हैं। भले ही हम करोड़ हों और वे लाख। 

यह प्रसन्नता की  बात है कि सिर्फ माधुरी के पति ने ऐसी कोई टिप्पणी नहीं की, बल्कि उसने कहा कि ऐसी अवस्था में उसकी आँखों पर हमला करना चाहिए, परिणाम चाहे जो हो। 

क्या ये लोग 47 के पहले के प्रशासकों-विधायकों से ज्यादा ताकतवर हैं?

या हम, उस समय के लोगों के जैसे ताकतवर नहीं रहे?

या हम कमजोर हो गए?

या फिर स्वार्थी हो गए हैं?

कहाँ है इसकी जड़?

कौन है दोषी?

क्या हम उपचार करना चाहते हैं?

(आइए अब एक सपना देखते हैं – “फोन छिन कर भागने पर माधुरी चिल्लाई उन्हें पकड़ो-पकड़ो। कोई नहीं हिला। एक अधेड़ – बुजुर्ग सब देख रहा था। किसी को कुछ भी न करते देख उसने तुरंत झुक कर हाथों में पत्थर उठा लिए और डट कर खड़ा हो गया। मोटर साइकिल सवारों को कोई फर्क नहीं पड़ा, बल्कि उन्होंने मोटर साइकिल की गति और तेज कर दी। अधेड़ ने अंदाज से पूरे ताकत से पत्थर उठा कर उन पर मारा, चालक को लगा, डगमगाया, पिछली सवारी गिर पड़ी। अधेड़ ने एक और पत्थर दे मारा। इस बार निशाना तो चूक गया लेकिन अब दर्शकों में जान आई और चालक भाग खड़ा हुआ, सवार भीड़ के हत्थे चढ़ गया। जनता ने पहले उसकी धुनाई की, फिर थाने पहुँचे, फोन मिल गया और छिनताई (स्नैचिंग) की कोशिश की FIR दर्ज कर ली गई। न विधायक आड़े आया न प्रशासन। कार्य किया जागरूक समाज ने। सपना यहाँ समाप्त नहीं हुआ, डरपोक लोगों ने पूछना शुरू किया इसके बाद क्या हुआ? उन्हें तो तभी संतोष होगा जब गुनहगार जीतेगा और निरपराधी भोगेगा। आप विरोध नहीं कर सकते हैं तो कम-से-कम पाप का विरोध करने वालों का साथ तो दीजिये! )

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