रविवार, 27 जनवरी 2019

चिन्मय की विभूति

वसंत। ऋतुराज वसंत। कवियों, लेखकों, गायकों, साहित्यकारों ने न जाने कितने पन्ने रंगे होंगे इस वसंत की महिमा के गायन में। हमने भी, चाहे जहां भी रहें हों वसंत का अनुभव किया है, देखा है।  लेकिन जब वसंत धीरे धीरे हमारे चारों तरह, दबे कदमों अवतरित होता है तो उसका शोर आँख से और नाक में सुनता है। उसके आगमन से हम अछूते नहीं रह पाते। वसंत को देखना और वसंत को आते हुए देखना दो अलग अलग 


चिन्मय विभूति में वसंत
 अनुभव हैं। पतझड़ के बाद श्री हीन हुई प्रकृति, आहिस्ते आहिस्ते अंगड़ाई लेते हुए रंग बदलने लगती है। चारों तरफ हरियाली छाने लगती है। घास, फूस, पत्तों को रंग बदलते देखना, कलियों को पनपते हुए निहारना और फिर उसका फूल बनना, पूरा वातावरण इंद्रधनुषी हो उठता है। पूरी प्रकृति मचलते हुए ऐसे उठ खड़ी होती है जैसे सोया बच्चा उठ कर माँ के सहलाने से अंगड़ाई लेते हुए आंखे खोल मुस्कुराता हुआ माँ से लिपट जाता है। प्रात: चिड़ियों की किल्लोल से आँखें खुलती हैं आर रात झींगुर की लोरियाँ सुला देती हैं। पूना से लगभग 45 किलोमीटर की दूरी पर, कोलवान के नजदीक, अध्यात्म, संस्कृति और अध्ययन के इस केंद्र चिन्मय विभूति  (चिन्मय आश्रम) में मैं इसी वसंत के आगमन को देख देख कर आह्लादित हो रहा हूँ।

85 एकड़ पर बने इस  केंद्र के प्रवेश द्वार पर मारुति मंदिर’’ से ही इस केंद्र का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। केंद्र सहयाद्रि पर्वत शृंखला की गोद में बसा हुआ है। तीन दिशाओं में  पर्वत शृंखला और चौथी खुली हुई दिशा जैसे कि प्रवेश स्थान हो। ऐसा लगता है जैसे सहयाद्रि ने चिन्मय विभूति को अपनी अंजुली में भर रख 
प्रणव गणेश मंदिर से सूर्योदय एवं सूर्यास्त 
हो। रोज प्रात: पूर्व दिशा से इसी सहयाद्रि के पीछे से धिरे से झाँकता हुआ सूर्य चिन्मय विभूति में प्रवेश करता है। और फिर हर संध्या पश्चिम में इसी सहयाद्रि के पीछे विलीन हो जाता है। केंद्र के अंतिम छोर की पहाड़ी पर विराजमान हैं विघ्नहर्ता प्रणव गणेश। दोनों मंदिरों के मध्य की दूरी है 1.5 कि.मी.। दोनों ही मंदिरों का प्रांगण विशाल है और यहाँ की पूजा, अर्चना, आराधना, आरती वैदिक तरीके सम्पन्न होती है। इस केंद्र में एक से दो हजार व्यक्ति तक एक साथ रह सकते हैं, विचार विमर्श कर सकते हैं, सभा और राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन कर सकते हैं। यह केंद्र मिशन के अन्य सभी केन्द्रों से भिन्न है। इसका उद्देश्य साथ रहना नहीं बल्कि नई दृष्टि से देखना, नए युवा-स्वामी तैयार करना और नई स्फूर्ति पैदा करना है।
मारुति एवं प्रणव गणेश मंदिर


अत्याधुनिक सुधर्मा (सभागार) में 1000 व्यक्ति बैठ सकते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम, कार्यशाला, सेमिनार आदि का आयोजन पूरी सुविधा और बिना किसी व्यवधान के सुचारु रूप से किया जा सकता है। ध्वनि प्रणाली (sound system) बोस का है। बिजली जाने की अवस्था में पूरा सुधर्मा जेनेरेटर से चलाया जाता है। मंच, मंच की बत्तियाँ, माइक एवं अन्य उपकरण के साथ यूपीएस (UPS) लगा होने के कारण किसी भी कार्यक्रम में कोई व्यवधान नहीं होता। इस बड़े सभागार के अलावा दो और छोटे सभागार विनय मंदिर 200 और विद्या मंदिर 80 व्यक्तियों के लिए हैं।


अत्याधुनिक यंत्रो से सुसज्जित सुधर्मा, सभागार
इस केंद्र में आयोजित शिविर में शिक्षा, ज्ञान तथा प्रशिक्षण के लिए आने वाले प्रतिनिधियों एवं मेहमानों के आवास की समुचित एवं सुंदर व्यवस्था है। कमरे हवादार हैं तथा भरपूर प्राकृतिक रौशनी है । कमरे बड़े बड़े हैं जिनमें 5 व्यक्तियों तक के एक साथ रह सकने की व्यवस्था है। कमरों की बनावट ऐसी है कि बिना एक 
आवास

दूसरे की प्रतीक्षा किए कई लोग एक साथ तैयार हो सकते हैं। गरम पानी की व्यवस्था सौर-ऊर्जा से है और उबलता हुआ मिलता है। सभी आवासीय घरों के नाम भारत की महान माताओं के नाम पर हैं यथा - अंजनी, कौसल्या, यशोदा, सुमित्रा, देवकी, वैदेही, सुमित्रा आदि। 


अन्नश्री
अन्नाश्री (भोजनालय)  में एक साथ 600 व्यक्ति बैठ कर भोजन कर सकते हैं। आवश्यकता पड़ने पर 1000 व्यक्तियों की व्यवस्था की जा सकती है। इतने लोगों का स्वादिष्ट सात्विक भोजन पकाने के लिए इसके साथ लगा है आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित रसोई घर। अन्नाश्री के चारों तरफ दीवारों की जगह शीशे लगे है जिनसे पर्याप्त मात्र में रोशनी तो आती ही है साथ ही भोजन के साथ प्रकृति का मनोहारी रूप भी देखने को
 मिलता है। सबसे बड़ी बात रसोई घर को पूरी ऊर्जा सूर्य से प्राप्त होती है, यानि सौर-ऊर्जा का प्रयोग होता है। पूरे केंद्र में कहीं से किसी प्रकार का तरल या ठोस कूड़े का निष्कासन नहीं होता है। पूरा परिसर आवास, भोजनालय, कार्यालय, रास्ते, खुली जगह सब साफ सुथरे और स्वच्छ हैं। कहीं कोई गंदगी नहीं दिखती।

इनके अलावा इस केंद्र में हैं :
1. चिन्मय जीवन दर्शन – जिसमें चिन्मय मिशन के प्रवर्तक, गुरुदेव स्वामी चिन्मयानंदजी का सम्पूर्ण  जीवन संवादात्मक (interactive) चित्रों एवं 10’X15’ के मुराल के जरिये दर्शाया गया है। स्वामीजी की मोम तथा क्रिस्टल की प्रतिमा भी है।
2. स्वानुभूति वाटिका  निश्चित रूप से वाटिका ही है लेकिन इस वाटिका के नाम में स्वानुभूति का विशेष महत्व है। यह कोई उद्यान मात्र नहीं है बल्कि खुद का खुद से परिचय कराने का प्रयत्न है। इस के बारे में बताया नहीं जा सकता अनुभव ही किया जा सकता है। आयें, देखें और अनुभव करें।
3। चिन्मय नाद बिन्दु – में भारतीय शास्त्रीय संगीत, नृत्य तथा गायन की शिक्षा दी जाती है। इसका उद्देश्य है – स्वर से ईश्वर और नर्तन से परमात्मनम

विहंगम दृश्य
इस पूरे केंद्र की कल्पना पूज्य स्वामी तेजोमयानंदजी की है। किसी भी संस्था को दीर्घ कालीन तक चलाने के लिए यह आवश्यक है कि नए नए लोग उस संस्था से नि:स्वार्थ भावना से जुड़ते चलें। साथ ही ये नए लोग प्रशिक्षित हों और संस्था के ध्येय से अच्छी तरह परिचित हों। इसी उद्देश्य से स्वामीजी ने स्वामियों के निवास के लिए नहीं बल्कि नए और वर्तमान स्वामियों को समुचित प्रशिक्षण देने हेतु इसका निर्माण करवाया। यहाँ निरंतर श्रद्धालुओं, बच्चों, युवा के अलावा स्वामी एवं स्वामिनियों के लिए आध्यात्मिक शिविर तथा अध्यापन का कार्य होता रहता है। नए इच्छुक व्यक्तियों को स्वामी की शिक्षा और सन्यास की दीक्षा दी जाती है।


एक अद्भुत केंद्र जहां मानसिक एवं आध्यात्मिक शांति का प्राप्त होना निश्चित है।


शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

यक्ष प्रश्न

महाभारत में एक प्रसंग है यक्ष प्रश्न का। यह प्रसंग उस समय का है जब पांडव जुए में हार कर वन में वास कर रहे थे। एक दिन पांडव चलते चलते थक जाते हैं और उन्हे बहुत प्यास लगती है। युधिष्ठिर के कहने पर भाई जलाशय की खोज करते हैं। एक एक कर चारों छोटे भाई उस जलाशय से पानी लाने जाते हैं लेकिन कोई भी लौट कर नहीं आता। अंत में युधिष्ठिर खुद जाते हैं। युधिष्ठिर को तब यह ज्ञात होता है कि उस जलाशय की रक्षा एक यक्ष कर रहा है, और उस यक्ष की चेतावनी और प्रश्नों  की अवहेलना करने के कारण चार पांडव मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं।  युधिष्ठिर यक्ष के प्रश्नों को सुनता है, उनके जवाब देता है और अपने सब भाइयों समेत सकुशल वापस लौट आता है। जीवन के कठिन प्रश्नों को ही तब से यक्ष प्रश्न कहा जाने लगा।

ऐसा ही एक कठिन या यक्ष प्रश्न मेरे सामने भी है। अपने भी शायद कई जगह पढ़ा या सुना होगा। लोग यह कहते हैं अगर गांधी होते तो वे -
ऐसा कहते?  ऐसा करते?    ऐसा लिखते?    ऐसा होता?
बड़े धड़ल्ले से इस कथन का प्रयोग करते हैं और फिर अपने मन की बात कह कर उसे गांधी समर्थित कार्य बताते हैं।  मुझे यह समझ नहीं आता कि उनके इस वक्तव्य का आधार क्या है? क्या गांधी सचमुच वैसा ही करते जैसा यह सज्जन बता रहे हैं?

लेकिन गांधी ने खुद लिखा और कहा है कि किस परिस्थिति में वे कब क्या करेंगे यह वे खुद नहीं जानते। यही नहीं ऊपर से एक सी दिखने वाली परिस्थिति में भी यह आवश्यक नहीं कि वे वही करेंगे जो उन्होने पहले लिया। शाम के धुंधलके में छिप कर, शुभचिंतकों की सलाह को दरकिनार कर, पुलिस की सहायता को ठुकरा कर सड़क पर निकल पड़ते हैं लेकिन उसी शाम पुलिस की  सहायता से छिप कर, वेश बदल कर भाग खड़े होते हैं। गांधी यह भी कहते हैं कि जिस बात पर आज वे कायम हैं कल भी उसी पर कायम रहेंगे, आज जिसे सत्य समझ रहे हैं कल भी उसे वैसा ही सत्य समझेंगे यह आवश्यक नहीं है। उनका तात्पर्य केवल इतनी ही था कि आज तक की  जानकारी और अनुभव के कारण वे वैसा कर, लिख या समझ रहे हैं। वे उसे पकड़ कर नहीं बैठेंगे। अपने ज्ञान और अनुभव के अनुसार उसे बदलने में संकोच नहीं करेंगे। एक पत्रकार के प्रश्न पर उन्होने यही कहा कि अगर उन्होने दो विरोधी बातें कही हैं तो जो बात  बाद में कही गई है उसे ही सही माना जाना चाहिए।  अब ऐसी परिस्थिति में ये लोग कैसे जान लेते हैं कि गांधी होते तो क्या करते? क्या गांधी उन्हे कह गए हैं? या ये गांधी के बराबर हो गए हैं?


इन सब गांधी क्या करते पर विचार करते हैं तब बड़ी हंसी आती हैं। गांधी के नाम पर सबने केवल अपने अपने मन की कही और नाम गांधी का दिया। गांधी ने, किसी को करने नहीं कहा – उन्होने खुद किया, और जब भी करने को कहा भी तो पहले खुद करके देखा और जब उन्हे लगा यह संभव है तभी करने के लिए कहा। लेकिन यहाँ सब दूसरे को करने के लिए कहने, दूसरे के कार्य में  मीन मेख निकालने या अपने कार्य को प्रमाणित करने के लिए ही कहते पाये जाते हैं। गांधी के नाम पर फैलाये जाने वाले भ्रम में न रहे हें। उसकी सत्यता को देखें, समझें, पढ़ें फिर माने।

शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

नेता बनने का आसान उपाय


कुछ समय पहले मैंने बताया था कि बतौर राजेंद्र लहरिया एक राजनीतिक कार्यकर्त्ता बनने के लिए यह आवश्यक है कि लोग आप से डरें। राजेन्द्र की कहानी के नायक को राजनीतिक कार्यकर्त्ता का कार्य केवल इसलिए नहीं मिला क्योंकि उसके मुहल्ले वाले भले ही उसकी इज्जत करते हों, उसे एक सज्जन-भला पुरुष  मानते हों लेकिन उससे कोई डरता नहीं था। यही नहीं उसे यह भी समझ नहीं आया कि इस कार्य के लिए जनता में उसका लोकप्रिय होने के बजाय जनता का उससे डरना ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों है?

बहरहाल हम राजेन्द्र को छोड़ कर मुड़ते हैं शिवानी की तरफ। हिन्दी की जानी मानी और बेहद लोकप्रिय  लेखिका। उन्होने अपनी कहानी करिए छिमा में  आनन फानन में नेता बनने का उपाय सुझाया है –
“विद्यार्थियों की हड़ताल हुई तो काला झण्डा लिए, उस (कहानी के नायक) के कुल-दीपक ने ही स्वयं पिता का पुतला जला, विद्यार्थी समाज में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था। जहां नेता का पद प्राप्त करने में पिता को सर्वस्व त्यागना पड़ा था, वहाँ पुत्र ने तीन दिन में सात बसें जला, असंख्य सरकारी इमारतों के बेंच तोड़, एक रेलगाड़ी उलट, नेता का सर्वोच्च पद अनायास ही प्राप्त कर लिया था”।

यह है हमारी आज की राजनीति का खेल, और इसके लिए जिम्मेदार हम हैं, दूसरा कोई नहीं। विधायकों और प्रशासकों ने समझ लिया है कि अंग्रेजों की गुलाम सहते सहते भारत की  जनता मानसिक गुलाम बन कर रह गई है। वह हर प्रकार का जुल्म सह लेती है। वह अन्याय बरदास्त करना सीख गई है। सरकार और प्रशासन ने समझ लिया है कि जनता न कुछ कहेगी न कुछ करेगी।  वह केवल एक मूक दर्शक बनी रहेगी। अपार शक्ति होने के बावजूद वह अपने आप को नि:सहाय ही समझती है। सब यही समझते हैं कि मैं अकेला 
क्या कर लूँगा? वह भूल गई है कि एक और एक ग्यारह होता है। प्रतिरोध करने के बजाय मुंह, आँख और कान बंद रखने में ही भलाई मानती है। और ऐसे दर्शकों में प्राण फूंकने वाले गांधी को मजबूरी का नाम महात्मा गांधी कहती है

अभी कुछ समय पहले अन्ना हज़ारे के रूप में एक मजबूर इंसान आया था। न लाठी उठाई, न बंदूक। न बम चलाया, न तोड़ फोड़ की। न आग लगाई न नारेबाजी की। न आरक्षण की बात की, न कर्ज माफी की। लेकिन पूरे देश के युवाओं को जोड़ दिया, इसी शक्तिशाली सरकार और प्रशासन को घुटने के बल बैठा दिया। अब आप ही बताएं वे मजबूर थे या मजबूत?

गांधी तो महान योद्धा था। हर समय, हर युद्ध में स्वयं सबसे आगे खड़ा मिला। गांधी केवल खुद ही नहीं लड़ा बल्कि एक ऐसी विशाल बहादुर योद्धाओं की सेना खड़ी की, एक ऐसी निहत्थी सेना, जैसी इतिहास में कोई नहीं कर पाया। बिना किसी हथियार के हथियारों से लदी सेना के सामने सीना तान कर खड़ी हो गई और उसे मजबूर कर दिया। मजबूर तो हम हैं, हर प्रकार का जुल्म देखते रहते हैं, अन्याय बरदास्त करते हैं, अपमान सहते हैं लेकिन चूँ तक नहीं करते, और दोष दूसरों को देते हैं। अगर गांधी मजबूर था तो देश की इतनी विशाल जनता में एक तो मजबूर बन कर दिखाये? देश बदल जाएगा।



शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

संस्कृति से प्यार


यह बात आजादी के पहले की है। अँग्रेजों के शासन के समय एक प्रख्यात विद्यालय था। इसमें प्राय:  विद्यार्थी अमीर घरों से आते थे। उनमें ज़्यादातर विद्यार्थी फैशन परस्त एवं अंग्रेजों का ही लिबास पहने दिखते थे। उस विद्यालय में एक नए विद्यार्थी ने प्रवेश लिया।  प्रवेश के समय उसकी पोशाक धोती-कुर्ता व साधारण जैकेट थी। विद्यालय के छात्रों ने उस नवांगतुक छात्र को देख कर उसका खूब मज़ाक उड़ाया। उस पर कटाक्ष भी किया। इसे सुन छात्र अप्रभावित रहा और बोला, “यदि पोशाक पहनने से ही व्यक्तित्व ऊपर उठ जाता है तो कोट पेंट पहनने वाला हर अंग्रेज़ ऋषितुल्य होता। मुझे तो उनमें ऐसी कोई विशेषता दिखाई नहीं पड़ती। इस गरम प्रदेश में आने वाले अंग्रेज़ अपनी संस्कृति की प्रतीक पोशाक को यहाँ के अनुरूप नहीं बदल सकते तो मैं ही उनकी देखा देखी अपनी संस्कृति को क्यों हेय होने दूँ?  मुझे अपने इस झूठे सम्मान से अधिक अपनी संस्कृति प्यारी है। जिसे जो कहना है कहे, पर मैं अपनी संस्कृति का परित्याग नहीं कर सकता। भारतीय पोशाक त्यागना मेरे लिए मरणतुल्य है

वह विद्यार्थी और कोई नहीं, वरन प्रसिद्ध विचारक व क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी  थे, जिन्हे अपनी संस्कृति से गहरा लगाव रहा।
 
गणेश शंकर विद्यार्थी
पढ़ और सुन कर तो हम नहीं समझते लेकिन यह बड़े आश्चर्य की बात है कि हम यह देख कर भी नहीं समझ सके कि ठंडे प्रदेश से गरम प्रदेश में  आने पर भी गोरों ने अपनी पोशाक नहीं छोड़ी और हम गरम प्रदेश में  रहते हुए भी अपने प्रदेश की पोशाक छोड़ कर उनकी नकल में ठंडे प्रदेश की पोशाक को अपना लिया।  अब तो हमें  आजाद हुए सात से ज्यादा दशक हो चुके हैं, हम कब नकल करना छोड़ अकल से काम लेना सीखेंगे।


शुक्रवार, 21 दिसंबर 2018

ब्रेकिंग न्यूज़


निशाना साधा (बंदूक से नहीं)
वार किया (चाकू से नहीं)
पलट वार (लाठी से नहीं)
आक्रमण (अस्त्र-शस्त्र से नहीं)
धमाका (बम का नहीं)

यह कोई युद्ध या आक्रमण या लड़ाई के समाचार के शब्द नहीं हैं। ये वे हिंसात्मक शब्द हैं जिनका  प्रयोग आजकल मीडिया रोजमर्रा के जीवन में किए जाने वाले शब्दों की तरह करती है – खेल, राजनीति, धर्म, व्यापार या किसी भी जगत के समाचार को देने के लिए। खिलाड़ी से खिलाड़ी पर, खेल के एक टीम से  दूसरे टीम पर, राजनीतिक दलों - मंत्रियों - पक्ष विपक्ष के बयानों पर इन शब्दों के लिए जगह बनाई जाती है। साधारण से साधारण खबर को भी ब्रेकिंग न्यूज़ की संज्ञा देना, चिल्ला चिल्ला कर और उत्तेजित होकर उसे सुनाना, जैसे कि उनका उद्देश्य समाचार पढ़ना नहीं बल्कि श्रोता को उत्तेजित करना ही है।

एक खबर पर दूसरी खबर को चिपकाना या दिन भर सब चैनलों पर बार बार एक ही खबर और एक ही विडियो को दिखाना खबरों की अहिमीयत, उसका अर्थ और संवेदनशीलता को बुरी तरह प्रभावित करती है। इसका असर यह हुआ है कि हम किसी भी खबर को गंभीरता से नहीं लेते और उसके सत्यापन पर संदेह करते हैं। आतंकवादी को मारने की खबर हो या जवान के मौत की। सीमा पर जवानों की कार्यवाही की हो या आतंकी हमले की। आरोपी सही या गुनहगार।  सरकारी हो या विपक्ष के आंकड़े हों, कौन सही कौन गलत – कुछ पता नहीं। हमने पढ़ा है – सत्य मौन रहता है झूठ गला फाड़ फाड़ कर चिल्लाता है। लेकिन अब हर कुछ संदेहों के कटघरे में खड़े हैं। सत्य आदतन मौन है या वही दोषी है? समझ पाना मुश्किल हो गया है। सबों को हम एक ही नजर से देखते हैं, एक ही कान से सुनते हैं, एक ही दिमाग से समझते हैं। या इसका उलट भी कह सकते हैं – न देखते हैं, न सुनते हैं, न समझते हैं। ये सब हमें एक ही बॉलीवुड की फिल्म सी लगती है और उस पर टिप्पणी भी ठीक उसी प्रकार करते हैं। यथा, निर्माता (चैनल) कौन है, नायक-नायिका (पक्ष-विपक्ष) कौन है, फिल्मांकन (धुंधली) कैसा है, आवाज (स्पष्टता) कैसी है वगैरह वगैरह। क्या कहा  या क्या दिखाया गौण हो गया, हम पूछते हैं – किसने कहा, कब कहा, कौनसी पार्टी ने कहा, किस चैनल ने दिखाया, किस पेपर में छपा और पूरा विश्लेषण का आधार भी यही हो गया है। सही-गलत नहीं। ठीक वैसे ही जैसे अपनी अपनी पसंद – नापसंद के नायक-नायिका-निर्माता-गायक-संगीतकार के अनुसार हम अपना मत बनाते हैं – अच्छा है या खराब  है। यही कारण है कि अपराध होते देख जनता उसे रोकने के बजाय उसका विडियो लेने में और फिर उसे हाथों हाथ सोशल साइट पर अपलोड करने में और घड़ी घड़ी  लाइक को काउंट करने में मशगूल है ।

आज के न्यूज़ चैनल समाचार नहीं देते, सब अपना अपना मत प्रकट करते हैं और पूरे समाचार को तोड़ मरोड़ कर इस प्रकर रखते हैं कि उनका मत ही सही लगता है। और-तो-और किसी भी प्रकार तोड़ना-मरोड़ना संभव नहीं हुआ और अपने मत के विरोधी हैं तो  उस खबर को एकदम नजर अंदाज कर देना, जैसे की वैसा कुछ हुआ ही नहीं। ऐसे गायब जैसे गधे के सिर से सींग।  

संवेदनशीलता और विश्वास की इतिश्री करने में जितना हाथ राजनीतिज्ञों का है उससे ज्यादा मीडिया का ही है। अब याद आते हैं वे दिन जब आकाशवाणी – औल इंडिया रेडियो – से समाचार प्रसारित हुआ करते थे। एकदम सपाट, कोई उत्तेजना नहीं, कोई भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं, अपना मत नहीं। जस-का-तस। सुन कर यह अंदाज़ नहीं लगाया जा सकता था कि समाचार पढ़ने वाले या चैनल वाले, या उनके मालिक किस मत के पक्षधर है। आवाज में न कोई कंपन, न उत्तेजना। न किसी भी प्रकार के हिंसात्म्क शब्दों का प्रयोग। समाचार सुन कर आप दुखी हो सकते हैं, प्रसन्न हो सकते हैं, विचारमग्न हो सकते हैं लेकिन उत्तेजित नहीं। अब, वह समाचार भी कोई समाचार है जो दर्शक-पाठक को उत्तेजित न करे?

क्या इसके लिए हम और आप कम दोषी हैं? हम ही मसाले वाले अखबार पढ़ते हैं, अत: वही ज्यादा बिकते हैं। मसाले वाले चैनल देखते हैं अत: उनकी टीआरपी (TRP) बढ़ती है। आप इसे बदल सकते हैं। हाँ, आप अकेले ही काफी हैं। क्योंकि हर कोई यही सोचता है कि मेरे अकेले के करने से क्या होगा? इसके विपरीत अगर यह सोचे कि और कोई करे या नहीं मैं तो करूँ? पता चलेगा कि सबने कर लिया। इंतजार मत कीजिये, शुरुआत कीजिये अपने आप से।

शुक्रवार, 14 दिसंबर 2018

प्रगति का अर्थ

हिमाचल प्रदेश के कुमायूँ अंचल से हैं हिन्दी लेखिका शिवानी। उन्होने कुमायूँ देखा नहीं, जीया है। उन्नति, प्रगति, आधुनिकीकरण क्या होता है उनसे ज्यादा कौन समझ सकता है। इसकी क्या कीमत चुकनी पड़ती है? इसका अंदाज और उससे ज्यादा अहसास शिवानी की लेखनी में पढ़ा नहीं महसूस किया जा सकता है। उनकी कहानी पुष्पहार के अंश-
“.... ग्राम को डिजनीलैंड ही बनाकर छोड़ेगा, देखते ही देखते कच्ची सड़क ने केंचुली उतार दी। फक-फक करता बुलडोजर, निरीह पहाड़ी-घाटियों का कलेजा रौंदने लगा। पीपे के पीपे कोलतार की मोटी  तहों ने पीली धूप-भरी सड़कों पर शहरी व्याधि की स्याही फेर दी। डाइनामाइट की दिल दहलाने वाली गर्जना से आए दिन त्रस्त गिरि-कन्दरायें गूंजने लगीं। फिर नई बनी क्षीण कलेवर की सड़क पर अफसरों की जीप-गाडियाँ आईं, मंत्री की झण्डा लगी बनी-ठनी वेश्या सी इठलाती चमकती गाड़ी और फिर आईं देश-विदेश से पर्यटकों से  लदी लग्ज़री बसें।

देखते ही देखते वह ग्राम हवाई द्वीप सा ही प्रसिद्ध हो उठा। जहां का शुद्ध पहाड़ी घृत अपनी पावन सुगंध की सुख्याति कभी दूर-दूर तक फैलता आया था, अब चूर की मिलावट से अपने सुनाम पर कालिख पोतने लगा। पास ही में  मिलिटरी की एक बड़ी टुकड़ी भी आ गई थी। सीमा के प्रहरी शराब की हुड़क लगने पर धेले-टके में ट्रांज़िस्टर बेचने लगे और धीरे-धीरे ग्राम के बंदरों ने भी अदरख का स्वाद लेना सीख लिया। जो सुरम्य घाटियां कभी मधुर झोड़े गीतों से गूँजती थी, अब विवशता से फिल्मी गानों से गूंजने लगी। एक लौंडरी खुल गई। जिस ग्राम में मिश्री की डली ही मिठाई मानी जाती थी, वहीं एक व्यापार कुशल हलवाई ने पहाड़ की प्रसिद्ध बाल्सिंघौड़ियों की ऐसी भव्य दुकान खोल दी की लोग शहरियों की भांति मिठाई का स्वाद लेना भूल गए, रंगीन मनमोहक डिन्नों का ही स्वाद लेने लगे।

प्रगति? क्या इसे ही प्रगति कहते हैं? स्थानीय इंसान को रौंद कर शहरी व्यक्ति के लिए जगह बनाना ही क्या प्रगति है? गाँव के सीधे सादे लोगों में भी शहरी (अव)गुणों को भरना, गाँव की मोहक सुगंध को इंपोर्टेड पर्फ्यूम से बदल देना। गाँवों से विस्थापित कर शहर की झुग्गी झोपड़ियों में बिलबिलाने के लिए छोड़ देना?  ......



शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

सत्य बोलना चाहिये – हाँ? या ना?

एक यूनिवर्सिटी में एक धर्मगुरु ने आकर विद्यार्थियों को कुछ पर्चे बांटे। एक प्रश्नावली (क्वेस्चनेयर) था और उसमें पूछा गया था कि तुम दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक कौन सी समझते हो? विद्यार्थियों की सुविधा के लिए विभिन्न भाषाओं की अनेक पुस्तकों का नाम भी संलग्न किया गया था। लेकिन विद्यार्थियों को इस बात की छूट थी कि वे उनके अलावा भी किसी भी पुस्तक का नाम लिख सकते हैं।  किसी ने लिखा बाइबिल, किसी ने लिखा कुरान, किसी ने लिखा झेंदावेस्ता, किसी ने लिखा गीता, किसी ने लिखा ताओ। किसी ने ऑस्कर वाइल्ड तो किसी ने रवीन्द्र नाथ टैगोर का नाम दिया तो किसी ने लिखा शेक्स्पीयर का। यानि जिसकी जो पसंद थी उसने उसका नाम दिया। सारे इकट्ठे करके उसने उन विद्यार्थियों से पूछा कि तुमने जो-जो किताबें लिखीं, इनको तुमने पढ़ा? उन्होने कहा, “नहीं, हमने पढ़ा नहीं है, लेकिन ये श्रेष्ठ किताबें हैं। इन्हे पढ़ता कोई भी नहीं है। जो किताबें हम पढ़ते हैं, वे दूसरी हैं। पर उनके बाबत आपने जानकारी नहीं चाही। आपने पूछा था, दुनिया की सर्वश्रेष्ठ पुस्तक”।

असल में, श्रेष्ठ किताब की परिभाषा यही है कि जब उस किताब का नाम सब को पता हो जाए और कोई उसे न पढ़ता हो, तो समझना कि वही श्रेष्ठ किताब है। जब तक उसे कोई पढ़ता हो, तब तक वह श्रेष्ठ नहीं है, पक्का समझना।

जहां व्यवस्था की जरूरत है, वहाँ कोई व्यवस्था नहीं है जहां पुलिस की जरूरत है चोरी रोकने के लिए, वह समाज चोरों का है। और जहां कारागृहों की जरूरत है अपराध रोकने के लिए, वह अपराधियों की जमात है। लेकिन जहां कोई कारागृह नहीं हो, और जहां कोई पुलिस वाला खड़ा नहीं करना पड़ता हो? जहां साधू-संतों को लोगों को यह समझाते फिरना नहीं पड़े  कि चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, यह मत करो, वह मत करो? जहां इसकी चर्चा ही नहीं चलती वहीं व्यवस्था है वही ईमानदारों की जगह है, वही सज्जनों का समाज है।

मुझे याद है, भारत में  टीवी आए कुछ वर्ष हो चुके थे। हमें टीवी खरीदना था। दोस्तों से बात करने पर पता चला कि भारत सरकार की  ईसी (EC) टीवी सबसे बढ़िया है। लेकिन कइयों ने शंका खड़ी कर दी, सरकारी टीवी है सर्विस का भरोसा नहीं। बात जँची। एक मित्र जिसके पास ईसी टीवी थी संपर्क किया। उसने टीवी की प्रशंसा की। लेकिन जब सर्विस बाबत पूछा तब उसने बताया कि उसे इस बाबत उसे कोई जानकारी नहीं है क्योंकि पिछले पाँच वर्षों में उसे किसी भी प्रकार की सर्विस की आवश्यकता नहीं पड़ी। अगर वस्तु अच्छी हो तो सर्विस की क्या आवश्यकता?

“सत्य बोलना चाहिए?” 
हाँ” 
“बोलते हो” 
“....... !!!” 


क्यों, सत्य बोलना मजबूरी है या मजबूती ?