शनिवार, 18 अप्रैल 2015

कविता - हमारी स्थिति

नियति

जो हम हैं
वो हम होना नहीं चाहते
और जो हम नहीं हैं
वो होना चाहते हैं।

तुम्हें कैसे समझाऊँ मेरे दोस्त !
की इस होने-न-होने के बीच
जिंदगी का सबसे सुनहरा
दौर गुजर जाता है
-    प्रताप सहगल
   ~~~~~
घर से निकलता हूँ तो
     घर शुरू होता है
          घर लौटता हूँ
              तो घर छूटता है
एक घर पेड़ पर
     एक घर आसमान पर
          एक घर मेरे पास
              एक घर तुम्हारे पास
चलूँ तो घर
     बैठूँ तो घर
          रुकूँ तो घर
              देखूँ तो घर
                        अद्भुत !
                        सिर्फ
                        घर में घर नहीं।
-    गौतम चैटर्जी

  

रविवार, 12 अप्रैल 2015

बूंद-बूंद विचार - प्रथम


समाचार पत्रों की कहें या  टेलीविज़न की, कोई दिन ऐसा नहीं होता जिस दिन किसी बलात्कार का समाचार पढ़ने या सुनने को नहीं मिलता।
  •         साधारणतया एक ही समाचार होता है।
  •         तो क्या वर्ष में ३६५ घटनाएँ ही होती हैं।
  •         नहीं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार सूचित अपराधों की संख्या इससे कई गुना    ज्यादा है और असूचित की तो और भी ज्यादा।
  •       अच्छा! तो मीडिया ने शायद कोटा निर्धारित कर रखा है। एक दिन में एक।
  •     लेकिन फिर इस प्रकार के वारदातों पर हमारी अदालतों से भी तो रोज कम से  कम एक फैसला आता ही होगा?
  • शायद इन फैसलों का समाचार बिकाऊ नहीं होगा!
  •         यह भी हो सकता है कि ज़्यादातर फैसले अपराधी के पक्ष मे हों !
  •         या फिर अपराधी “इज्जतदार” या “पहुँच” वाला हो?
  •         ऐसा कुछ नहीं है, ऐसे मामलों में फैसले आते ही नहीं।
  •         क्यों नहीं आते?
  •         या तो “तारीख” पर “तारीख” पड़ती रहती है या पीड़ित पक्ष से बलात समझौता  करवा लिया जाता है।
  •         मतलब?
  •  अभिभावक या पीड़िता को डरा-धमका  कर मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है या “नगद” भुगतान कर दिया जाता है।
  •         लेकिन यह दोनों ही तो गैर कानूनी है और इससे तो अपराधी और अपराध को दोनों बढ़ावा ही मिलेगा।
  •         तब भी दो दिन में एक फैसला तो आना ही चाहिए।
  •         अगर फैसले नहीं आते तो दोष प्रशासन का है या न्याय व्यवस्था का।
  •         अगर फैसले आते हैं तो दोषी मीडिया है।
  •         मीडिया दोषी क्यों?
  •         अगर आप वारदात की खबर देते हैं लेकिन अंतिम अंजाम की नहीं तो आप वारदात को बढ़ावा देते हैं।
  •         वारदात के साथ-साथ एक फैसले का समाचार भी क्या मीडिया नहीं बता सकती?

रविवार, 22 मार्च 2015

क्या खूब लिखा है किसी ने


बख्श देता है खुदा उनको जिनकी किस्मत खराब होती है
वो हरगिज नहीं बख्शे जाते हैं, जिनकी नियत खराब होती है।

न मेरा एक होगा, न तेरा लाख होगा
न तारीफ तेरी होगी, न मज़ाक मेरा होगा
गुरूर न कर शाहे शरीर का
मेरा भी खाक होगा, तेरा भी खाक होगा।

जिंदगी भर ब्रांडेड ब्रांडेड करने वालों
याद रखना कफन का कोई ब्रांड नहीं होता
कोई रो कर दिल बहलाता है
और कोई हंस कर दर्द छुपाता है।

क्या करामात है कुदरत का
जिंदा इंसान पानी में  डूब जाता है
और मुर्दा तैर कर दिखाता है।

मौत को देखा तो नहीं पर शायद वो बहुत खूबसूरत होगी
कमबख्त,
जो भी उससे मिलता है
जीना छोड़ देता है।

गज़ब की एकता देखी लोगों की जमाने में
ज़िंदों को गिराने में और मुर्दों को उठाने में

जिंदगी में न जाने, कौनसी बात आखरी होगी
न जाने कौनसी रात आखरी होगी
मिलते जुलते, बातें करते रहो यारों
एक दूसरे से न जाने
कौनसी मुलाक़ात

आखरी होगी।

बुधवार, 4 मार्च 2015

निर्मला पुतुल की लेखनी से



कहाँ गया वह परदेशी जो शादी का ढोंग रचाकर
तुम्हारे ही घर में  तुम्हारी बहन के साथ
साल-दो साल रहकर अचानक गायब हो गया?
उस दिलावर सिंह को मिलकर डूँडो चुड़का सोरेन
जो तुम्हारी ही बस्ती की रीता कुजूर को
पढ़ने-लिखने का सपना दिखा कर दिल्ली ले भागा
और आनंद भोगियों के हाथ बेच दिया
और हाँ पहचानो!
अपने ही बीच की उस कई – कई ऊंची सैंडल वाली
स्टेला कुजूर को भी
जो तुम्हारी भोली-भोली बहनों की आंखो में
सुनहरी जिंदगी का ख्वाब दिखाकर
दिल्ली की आया बनानेवाली फैक्ट्रियों में
कर रही है कच्चे माल की तरह सप्लाइ
उन सपनों की हकीकत को जानो चुड़का सोरेन
जिसकी लिजलिजी दीवारों पर पाँव रखकर
वे भागती हैं बेतहाशा पश्चिम की ओर।

सोमवार, 2 मार्च 2015

जरा सोचिए

जरा सोचिए !

हम सचमुच कैसे होते हैं?
उजालों में कुछ और
अंधेरे में कुछ और
रात और दिन के साथ
हम कितने बदल जाते हैं?
हम सचमुच कैसे होते हैं?

अच्छाइयों को अभी पूरा
पकड़ भी नहीं पाते हैं
तो बुराइयाँ जकड़ लेती हैं !

अंतर में बसे राम की आवाज
सुनते तो हैं, फिर
रावण के प्रभाव में
कैसे आ जाते हैं?
हम सचमुच कैसे होते हैं?

हमें कुछ बनना होगा
हमें कुछ करना होगा
आत्म-परीक्षण द्वारा
स्वयं को निहारना होगा
अंतर में बसे राम का रूप
और निखारना होगा!

अच्छाइयाँ हममें हैं
उन्हे बनाए रखना होगा
अंधेरे को उजाले की
शरण में लाना होगा
हम, जो दिन में हैं 
रात में भी बने रहना होगा।

बुधवार, 18 फ़रवरी 2015

कविता - छंद

                   फूल, डाली से गुंथा ही रह गया,
                        घूम आई गंध पर संसार में।

~~~~~
ये ऐश के बंदे सोते रहे
फिर जागे भी तो क्या जागे
सूरज  का उभरना याद रहा
और दिन का ढलना भूल गए।

~~~~~
मेरे घर की अगर उपेक्षा कर, तू जाए राही,
तुझ पर बादल बिजली टूटे, तुझ पर बादल बिजली।
मेरे घर से अगर दुखी मन हो, तू जाये राही,
मुझ पर बादल बिजली टूटे, मुझ पर बादल बिजली।
-    रसूल हमजातोव
(मेरा दगिस्तान)
~~~~~
              ऐसा ही होता है, आती खुशी कभी
              उसे हटाकर एक तरफ,
                        दुख फिर से वापस आता।
-    रसूल हमजातोव
(मेरा दगिस्तान)
~~~~~
अगर तुम आतीत पर पिस्तौल से गोली चलाओगे,
तो भविष्य तुम पर तोप से गोले बरसायेगा।
-     आबूतालिब
~~~~~
अब उजालों को यहाँ वनवास लेना ही पड़ेगा
सूर्य के बेटे अँधेरों का समर्थन कर रहे हैं

एक भी कंदील तक जलती नहीं कोई शहर में
जुगुनुओं की रोशनी में काम चलता है शहर का
इस कदर अमृत सारे बाजार अपमानित हुआ है
बढ़ गया है भाव हर दुकान पर अब तो जहर का
लग रहा है यज्ञ नागों के लिए होगा फिर
रस-विधायक स्वर सपेरें का समर्थन कर रहे हैं
अब उजालों को यहाँ वनवास लेना ही पड़ेगा

हर तरफ आतंक ही आतंक है फैला  यहाँ पर
हर किसी के शीश पर तलवार इक नंगी खड़ी है
एक कब्रिस्तान की मानिंद है खामोश बस्ती
उल्लूओं की ही महज आवाज पेड़ों पर है जड़ी
नीड़ का निर्माण करते थे  कोयल के लिए जो
चील गिद्धों के बसेरों का समर्थन कर रहे हैं।
अब उजालों को यहाँ वनवास लेना ही पड़ेगा

जोड़ते थे जो सभी बिछड़े दिलों को
पाटते थे जो सभी की खाइयाँ
ईद, होली के मिलन त्योहार पर
जो बजाते थे मधुर शहनाइयाँ
आज वे ही लोग लेकर नाम मजहब का
बांटने वाली मुँडेरों का समर्थन कर रहे हैं
अब उजालों को यहाँ वनवास लेना ही पड़ेगा

था सुना हमने की जिनके खाँसने भर से
जागती थी किस्मत सोये ज़मानों की
और जिनके क्रोध की चिंगारियाँ छूकर
टूट जाती थीं सलाखें जेलखानों की
आज वे ही लोग पद के लोभ लालच में
देश के निर्मम लुटेरों का समर्थन कर रहे हैं
अब उजालों को यहाँ वनवास लेना ही पड़ेगा

-    गोपाल दस नीरज

गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

मेरे विचार - हैल्थ इज़ बिग बिज्नेस

चिकित्सा एवं डेथ डान्स 

२००९ में हमने एक पुस्तक की शताब्दी मनाई थी । किसी व्यक्ति या संस्थान का  जन्मशताब्दी समारोह तो देखा - सुना  है, लेकिन किसी पुस्तक की  शताब्दी समारोह? गिने चुने पुस्तक को ही ऐसा सौभाग्य मिलता है। वह भी एक ऐसी पुस्तक जो आज भी उतनी ही विवादास्पद है जितनी प्रकाशन के समय थी।  और तो और न तब और न अब हम उस पुस्तक के विचारों को अमल करने  की  अवस्था में थे और न हैं। लेखक ने भी लिखा कि भारत अभी इसके लिए तैयार नहीं है। लेखक ने १२ वर्ष बाद १९२१ में पुस्तक में कई रद्दोबदल किए, लेकिन साथ ही उसने फिर से यही लिखा कि मूल रूप  से उनके विचारों में कोई परिवर्तन नहीं आया है, उन्हे इस बात का पूरा विश्वास है कि उनके बताए गए विचारों पर अगर अमल हो तो “स्वराज” स्वर्ग से हिंदुस्तान में उतरेगा लेकिन उन्हे लगता है कि ऐसा होना दूर की बात है। मैं मोहनदास करमचंद गांधी द्वारा लिखी गई “हिन्द स्वराज” की बात कर रहा हूँ। आज १०० वर्षों के बाद तो भारत उससे और भी दूर चला गया है। क्या कभी ऐसा समय आएगा जब उस पर अमल करने लायक मन:स्थिति और परिस्थितियाँ तैयार होंगी? कम से कम अभी तो ऐसा नहीं लगता है। इस के लिए एक बड़े परिवर्तन एवं विशाल धैर्य की आवश्यकता है, और इन दोनों की  ही कमी  है। फिर भी मुझे एक क्षीण सी आशा दिखती है। शायद! शायद कभी ऐसा दिन आये जब जीडीपी का पैमाना आय पर आधारित न हो कर, पड़ोसी देश भूटान की तरह, “आनंद” हो तब शायद हमें इस पुस्तक की याद आए।
मुझे याद आ रहा है कवि रविन्द्र नाथ टैगोर का एक संस्मरण। १९२०। गर्मी का मौसम। अकाल की अवस्था। बंगाल के गावों  में पानी  की कमी। रविन्द्रनाथ गाड़ी में, जो उस समय एक दुर्लभ वस्तु थी, बंगाल के ग्रामीण इलाके  से गुजर रहे थे। गाड़ी में कुछ  खराबी आ जाने के कारण  गाड़ी में बार बार पानी  डालने की आवश्यकता थी। ऐसी अवस्था में ग्रामीणों  से, जहां पीने एवं सिंचाई के लिये ही पानी नहीं  था, गाड़ी के लिए पानी मांगने में संकोच होना स्वाभाविक  था। लेकिन  कोई चारा भी नहीं था। रवीन्द्र  नाथ को आश्चर्य हुआ जब सीधे सादे गरीब गाँव वालों ने, बिना किसी शिकन के, उनकी गाड़ी के लिए पानी की व्यवस्था की एवं उसके प्रत्युतर में कुछ  भी लेने से इनकार कर दिया। । ऐसा एक के बाद एक सब गाँवों में हुआ। गाँव वालों को किसी भी प्रकार की कमाई नहीं हुई। शायद उन्हे बाद में कष्ट भी हुआ हो। जीडीपी के आंकडों  में भी कोई वृद्धी नहीं हुई। लेकिन गाँव वालों को आनंद मिला। अगर जीडीपी का मापदंड आनंद होता तो उसमें वृद्धी होती। उधर रवीन्द्र नाथ के कष्ट का तो निवारण हो गया लेकिन साथ ही कुछ अनुभूति हुई।  शायद उन्हे भी ऐसे लोगों से मिल कर आनन्द मिला। इसी लिए उन्होने बाद में लिखा की यह देखने एवं समझने में बहुत ही सीधी सादी  और सरल सी बात लगती है लेकिन ऐसी सहजता के पीछे शताब्दियों की संस्कृति होती है, ऐसा आचरण सहजता से नहीं किया जा सकता। कुछ वर्षों की मेहनत से एक मशीन को चला कर कुछ मिनटों में   हजारों सुइयों में  छेद करना सीखा जा सकता है लेकिन ऐसी मेहमान बाजी सीखने में कई पीड़ियाँ  लग जाती हैं। क्या किसी भी आईआईटी, आईआईएम, ऑक्सफोर्ड या हारवर्ड में ऐसी शिक्षा दी जा सकती है? क्या यह सीखने के लिये हम कई पीढ़ियों का इंतजार कर सकते हैं? “हिन्द स्वराज” पर अमल करने के लिए ऐसे लोगों की ही आवश्यकता है।
एक बहुत खूबसूरत तितली की प्रजाति पाई जाती है। नाम है “डैथ डांस” तितली। ये किसी मृत जन्तु का ही भोजन करती हैं। मृत जन्तु की खबर मिलते ही समूह  में ये तितलियाँ, नर और मादा दोनों, जमा हो जाती हैं। फिर प्रारम्भ होता है उनका जश्न । मृत जन्तु के चारों तरफ घूमते हुए ये नृत्य करती हैं, नृत्य करते करते जोड़े बनते जाते हैं, समागम का दौर  चलता है, फिर भोजन और फिर अंडे। किसी निजी अस्पताल में डाक्टर और नर्सों के समूह को देखता हूँ तो मुझे ये तितलियाँ याद आ जाती हैं। ऐसा लगता है जैसे कोई मरीज निजी अस्पताल में असाध्य रोग से पीड़ित बेसुध पड़ा है। डाक्टरों को पता है कि अब इसकी उम्र ज्यादा नहीं बची है। फिर भी जीवन रक्षक प्रक्रिया को उस मरीज पर बार बार आजमाया जाता है – मसलन “कोड ब्लू” की प्रक्रिया यानि डाक्टर  एवं नर्सों  की  एक पूरी टीम जो मरीज को कृत्रिम श्वांस, स्टेरनम को दबाना, विभिन्न जीवन रक्षक दवाओं के सुइयां, मशीन से बिजली के झटके यानि कार्डियो-पलमानेरी रिसेसिटीओन आदि आदि। कृत्रिम रूप से भोजन एवं ऑक्सीज़न दे कर महीनों मरीज को “जिंदा” रखना। कई बार तो मृत मरीज पर भी सी पी आर का प्रयोग किया जाता है।  इन सब क्रियाओं को करने का कारण अस्पताल के बिल में  नजर आता है। मरीज का चाहे जो हो घर वाले तो उस बिल को चुकाते चुकाते मर लेते हैं। और उधर, दिवास्वप्न में देखता हूँ,  उस मरीज के बिस्तर के चारों तरफ डाक्टर, नर्स, एवं अन्य कर्मचारी जमा होते हैं और प्रारम्भ होता है उनका “डैथ डांस”।
आज अस्पताल, अस्पताल नहीं बड़ी कंपनियाँ हैं, जिनका  एक मात्र उद्देश्य पैसे कमाना है। “हेल्थ  इज बिग बिजनेस”। स्वास्थ्य एक बड़ा व्यापार है। उन अस्पतालों में  काम करने वाले डाक्टर, नर्स एवं अन्य कर्मचारी उस कंपनी के विक्रेता हैं। वे केवल उसी अस्पताल के लिए नहीं बल्कि दवा बनाने  वाली कंम्पनियों, निदान करने वाले केन्द्रों के भी विक्रेता हैं। और तो और डाक्टर और अस्पतालों के मध्य भी अलिखित साझेदारी है तथा एक दूसरे को अनुमोदित करने पर पैसों का लेन देन होता है। इन सबका एकमात्र उद्देश्य है ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाना। मुझे याद है, एक बड़े निजी अस्पताल में नामी डाक्टर से अपनी पत्नी के कान का ऑपरेशन कराने का निर्णय  लेने के बाद जब मैंने अपने बीमा एजेंट को, जो हमारे घर के सदस्य अनुरूप है, से  आवश्यक बीमा कार्यवाही करने के लिए फोन किया तो उसकी तुरंत प्रतिक्रिया थी,  अरे  भाई वो तो दुकान है, किसी अच्छे डाक्टर को दिखाओ। कान का ऑपरेशन आसान नहीं है।
टेलीग्राफ में प्रकाशित एक लेख के अनुसार भी जो मरीज  दवाओं से ठीक हो सकते हैं उनका भी आँख मूँद  कर बाइ-पास सर्जरी  कर दिया  जाता है या स्टंट  लगा दिया जाता है। रूटीन  तौर में  कराये जाने वाले ज्यादातर परीक्षण अनावश्यक हैं।
परिस्थितियाँ इतनी बदतर हो चुकी हैं की डाक्टर एवं जानकार मरीज “लिविंग विल” लिखने लग गए हैं जहां वे यह हिदायतें दे देते हैं – “ढू नॉट रिसेसिटेट – नो सी.पी.आर. – नो मकेनिकल वेंटिलेशन” स्वयं हस्ताक्षर करते हैं तथा परिवार के अन्य सदस्यों और पारिवारिक डाक्टर से हस्ताक्षर करवाते हैं। क्योंकि उन्हे भी यह डर है कि कहीं आज का “हेल्थ कॉर्पोरेट” रुपयों के चक्कर मे उन्हे एक खाट पर पड़ी जिल्लत भरी ज़िंदगी ना प्रदान कर दें। कहीं उन्हे कौमा में पड़े रहने के लिए मजबूर नहीं होना पड़े। कहीं वे उनके परिवार की अर्थ व्यवस्था की रीड़ की हड्डी न तोड़ दें। 
क्या ये बातें आपकी मानसिकता के अनुकूल हैं? गांधी ने अपनी पुस्तक हिन्द स्वराज में डाक्टरी का धंधा करने वालों  की कड़ी निंदा की है। डाक्टर एवं अस्पतालों को पाप की जड़ तथा अनीति को बढ़ावा देनेवाला बताया है। उन्हों  ने  लिखा है की ये केवल उनके अपने व्यक्तिगत विचार एवं अनुभव नहीं हैं बल्कि पश्चिम  के अनेक सुधारक भी यही मत रखते हैं। डाक्टर सेवा भाव से नहीं बल्कि  पैसे कमाने की ललक से बनते हैं। गांधी ने आगे लिखा कि डाक्टर इंसान ही नहीं पशुओं पर भी पाशविक अत्याचार करता है। जब ऐसा ही है तब भलाई का दिखावा करनेवाले डाक्टरों से खुले ठग-वैद्य (नीम-हाकिम) ज्यादा अच्छे  हैं। क्या आप इन तर्कों को पचा पाएंगे ? क्या हम हिन्द स्वराज के लिए तैयार हैं?
इसी संदर्भ में  मुझे बचपन में  बच्चों की पत्रिका चन्दामामा की एक लघु कथा याद आती है। एक गाँव में तीन भाई रहते थे। तीनों वैद्य थे। सबसे बड़ा भाई साधारण  वैद्य और सबसे छोटा भाई सबसे  प्रवीण माना जाता था। एक दिन एक ग्रामीण ने छोटे वैद्य से पूछ लिया, “आप सबसे प्रवीण वैद्य हैं , बड़ा भाई साधारण एवं मँझला  भाई मध्य दर्जे  का  वैद्य है। ऐसा क्यों?” वैद्य ने कहा, यह आपलोगों की समझ  का फ़र्क है। दर असल मेरे सबसे बड़े भाई सबसे प्रवीण वैद्य हैं। वे रोग के लक्षण को देख रोग का निदान कर लेते हैं। अत: रोग के प्रारम्भिक अवस्था में  ही आहार को नियमित कर के अथवा हलकी फुलकी दवा से उसका निवारण कर देते हैं। मँझले भाई को जब तक रोग कुछ बढ़ नहीं जाता वह निदान नहीं कर पाता है। अत: उसे निवारण करने के लिए कठिन दवाओं का प्रयोग करना पड़ता है। मैं तो सबसे निकृष्ट हूँ। जब तक रोग  काफी  बढ़ नहीं  जाता है मैं रोग का निदान  नहीं कर पाता हूँ। अत: रोग के निवारण के लिए ज्यादा औषधि लंबे समय के  लिए देनी पड़ती है और कभी कभी तो शल्य चिकित्सा भी करनी पड़ती है।“
क्या विश्व में  ऐसी  कोई शिक्षा संस्थान है जो बड़े भाई  जैसा वैद्य तैयार कर सकता हो? क्या कोई ऐसा पिता है जो अपने पुत्र को ऐसी शिक्षा  दिलाना चाहे? क्या कोई ऐसा नौजवान है जो ऐसी शिक्षा लेना चाहे? इन सवालों के जितने प्रतिशत जवाब “हाँ” में  हैं हम उतने प्रतिशत ही “हिन्द स्वराज” को अपनाने के लिए तैयार हैं।