शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

रावण में भी तमोगुण नहीं था!


हम, हिन्दुओं को यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि सत, रज, तम क्या हैं? ये शब्द हम सबों ने कभी-न-कभी, किसी-न-किसी से कहीं-न-कहीं सुना जरूर है। और हम इनसे बहुत ऊब भी चुके हैं। अगर मैं यह कहूँ कि मैं अभी उनके बारे में ही बताना चाहता हूँ, तब आप अभी यहीं डिलीट या नेक्स्ट दबा कर आगे बढ़ जाएंगे। ठीक है, मैं विषय बदल देता हूँ। जरा आप बताएँगे कि यह अप्रवृत्ति: का क्या अर्थ है और यह कौनसे गुण में आता है?

विद्वानों के अनुसार अप्रवृत्ति का अर्थ है -
सब प्रकार के उत्तरदायितत्वों  से बचने या भागने की प्रवृत्ति, किसी भी कार्य को करने में स्वयं को अक्षम अनुभव करना तथा जगत में किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न और उत्साह का न होना – ये सब अप्रवृत्ति शब्द से सूचित किये गए हैं। इस प्रवृत्ति या अप्रवृत्ति के प्रबल होने पर सब महत्वाकांक्षाएं क्षीण हो जाती हैं। मनुष्य की शक्ति सुप्त हो जाने पर मात्र भोजन और शयन, ये दो ही उसके जीवन कें प्रमुख कार्य रह जाते हैं। इस सबके परिणामस्वरूप वह अत्यंत प्रमादशील हो जाता है। उस अपने अंतरतम का आवाहन भी सुनाई नहीं देता। और वस्तुत:, वह रावण के समान अत्याचारी भी नहीं बन सकता है। क्योंकि दुष्ट बनने के लिए भी अत्यधिक उत्साह और अथक क्रियाशीलता अवश्यकता होती है। यानि रावण में यह तमोगुण यानि अप्रवृत्ति नहीं थी।

गीता (14.13) में अप्रवृत्ति को तमो गुण का लक्षण बताया गया है। केवल अशुभ कार्य का न करना ही नहीं बल्कि शुभ कार्य का न करना भी तमोगुण के लक्षण हैं। क्योंकि इस प्रकार हम शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कार्यों को करने में असमर्थ हो जाते हैं।

तब अशुभ कार्य का न करना ही यथेष्ट नहीं है, शुभ कार्य का करना आवश्यक है। अपने आज कौनसा शुभ कार्य किया?  

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2019

मानस की स्तुतियाँ


 भारत में राम कथा अनेक ऋषियों, मुनियों, मनीषियों और विद्वजनों ने लिखी हैं। इनमें प्रमुख हैं अवधी भाषा में गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस, संस्कृति में महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण और तमिल में कम्बर रचित रामावतरम। साधारण जनों में ये ग्रंथ क्रमश: मानस, रामायण और कम्ब रामायण के नाम से जानी जाती हैं। सरल अवधी भाषा में होने के कारण उत्तर भारत में तुलसी कृत मानस और तमिल में होने के कारण दक्षिण भारत में कम्ब रामायण ज्यादा लोकप्रिय ग्रंथ रहे। इन तीनों ग्रन्थों में प्रमुख घटनाओं का विवरण एक ही जैसा है लेकिन तीनों में फर्क हैं। जब अंग्रेजों ने, बंधुआ मजदूर के रूप में बड़ी संख्या में भारतीयों को भारत के बाहर विदेशों में भेजा उस समय उस अनजान प्रदेश में हमारे इन पूर्वजों का एक बड़ा सहारा यही मानस था। सब अपने साथ इस ग्रंथ को लेकर गए थे, कइयों को तो पूरा ग्रंथ कंठस्थ था। यही उनकी पूजा थी, यही उनका संबल था, यही उनका मनोरंजन और यही वह कड़ी थी जिसके सहारे वे सब एक दूसरे से जुड़े थे।
गोस्वामी तुलसीदास

वाल्मीकि

कम्ब


10 जनवरी से 5 फरवरी 2019, 27 दिन व्यापी इसी सम्पूर्ण मानस पर प्रत्येक दिन 4 घंटे सिलसिलेवार चर्चा की चिन्मय मिशन के स्वामी श्रद्धेय श्री तेजोमयानन्दजी ने। रामकथा पर कई प्रवचन सुना हूँ, लेकिन यह एक अनोखा और अलग ही अनुभूति थी जिसमें स्वामीजी ने श्रोताओं को अभिभूत और भाव विभोर कर दिया। स्थान भी अनुपम था। पूना से 45 कि.मी. पर कोलवान में चिन्मय विभूति। रहने और भोजन की उत्तम  व्यवस्था के अतिरिक्त सहयाद्रि पर्वत की घाटी में प्रकृति के मध्य, सुहावने मौसम में अत्याधुनिक सभागार में।

क्या मानस केवल एक राम कथा है? राम की कहानी? चलते फिरते हम तुरंत सिर हिलाकर कह देते हैं हाँ हाँ हम जानते हैं राम सीता की कहानी बहुत बार बहुतों से सुनी है और पढ़ी भी है। क्या सचमुच सुना और पढ़ा है? राम कथा सुनी होगी, राम पर प्रवचन भी सुने होंगे। रमानन्द सागर द्वारा रचित रामायण सीरियल भी देखा होगा। लेकिन क्या मानस बस केवल एल कथा मात्र है? नहीं, मानस केवल यही नहीं है। यह कथा के साथ साथ एक  अनुपम साहित्य है जिसमें कथा के साथ  ज्ञान है, विवेक है, हमारे प्रश्नों के उत्तर हैं, रामराज का अर्थ है, मानव से ईश्वर तक की राह है।  लोगों की सुनी सुनाई बात पर न जाकर इसे पढ़ें और समझें तब दिखेगा भी और सुनेगा भी। अन्यथा एक सैलानी जो दुर्गम पहाड़ों पर घूमने जाता है, सूर्योदय भी देखता है लेकिन हर समय कानों में हेड फोन लगा है और आँखें एल्क्ट्रोनिक डिवाइस पर गड़ी हैं। लौट कर आकर वहाँ की प्रकृति के सौंदर्य का और सूर्योदय का वर्णन किया और लोगों ने उसे ही सत्य भी मान लिया।हम भी वैसा ही करते हैं।  

इस वृहद ग्रंथ में वैसे तो बताने के लिए बहुत कुछ है लेकिन फिलहाल मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा मानस की स्तुतियों की तरफ। मानस के पन्नों में अनेक स्तुतियाँ बिखरी पड़ी हैं। उन्ही में से कुछ एक के संदर्भ मैं देना चाहूँगा। बाकी तो आप खुद पढ़ें और उचित मौकों पर उनके पाठ भी कीजिये-गाइए ताकि औरों को भी इसका पता चले :
बालकांड
दोहा 185 के बाद – देवताओं द्वारा स्तुति
जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवन्ता। .......
दोहा 191 के बाद – भगवान राम के जन्म पर
भए प्रगट कृपाला दीनदायाला कौसल्या हितकारी। .......
अरण्य कांड
दोहा 3 के बाद। अत्री मुनि द्वारा स्तुति
नमामि भक्त वत्सलम। कृपालु शील कोमलम॥ .....
दोहा 31 के बाद। जटायु द्वारा स्तुति
जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही। ......
लंका कांड
दोहा 112 के बाद। देवताओं द्वारा स्तुति
जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत विश्राम॥ ......
दोहा 114 के बाद। उमापति महादेव की स्तुति
मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥ .....
उत्तर कांड
दोहा 12 के बाद। वेदों द्वारा स्तुति
जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने। .....
दोहा 13 के बाद। महेश द्वारा स्तुति
जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं॥ .....
दोहा 107 के बाद
नमामीशमिशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापाकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥  ......

और अंत में मैं यही कहना चाहूँगा:
जिन खोजा तीन पाइया, गहरे पानी  पैठ
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।

शुक्रवार, 8 फ़रवरी 2019

मेरी नाकामियाँ


बहुत नाकामियों पर आप अपनी नाज़ करते हैं
 अभी देखी कहां है, आपने नाकामियां मेरी

जी हाँ, कभी कहीं असफलता हाथ लगी और रास्ता बदल लिया या फिर हाथ पर हाथ रख कर बैठ गए। किसी ने प्रोत्साहित करने का प्रयत्न किया तो दो टूक जवाब दे दिया – “तुम्हें क्या पता, क्या हुआ”? लेकिन क्या आपने कभी किसी भी सफल व्यक्ति की आत्मकथा पढ़ी है? क्या आपने कभी उसकी नाकामियों का लेखा जोखा देखा है? एक बार जोड़-घटा कर देखें, तब पता चलेगा कि अगर वे भी हिम्मत हार गए होते तो वहाँ नहीं पहुँच पाते जहां वे पहुंचे। जावेद अख्तर साहिब ने भी बहुत ठोकरें खाईं तब वे वहाँ हैं, जहां अब दिख रहे हैं। वे तो अभी स-शरीर हैं, पूछ लीजिये या उनका लिखा पढ़ लीजिये। उनकी नाकामियों का दर्द ही तो छिपा है उनके इस शेर में – बहुत नाकामियों पर आप अपनी नाज़ करते हैं, अभी देखी कहाँ है अपने नाकामियाँ मेरी।

आइए आपके लिए मैं एक लेखा जोखा एक ऐसे ही व्यक्ति का दिखाता हूँ। अमेरिका के कई राष्ट्रपतियों का नाम पूरा संसार आदर से लेता है और उनका कायल है। उनमें से एक हैं  अब्राहिम लिंकन।

21 वर्ष की उम्र में व्यापार किया और असफल रहे
22 वर्ष की उम्र में एक चुनाव हारे
24 वर्ष की उम्र में फिर व्यापार में असफल रहे
26 वर्ष की उम्र में उनकी पत्नी का देहांत हो गया
27 वर्ष की उम्र में मानसिक संतुलन खो बैठे
34 वर्ष की उम्र में काँग्रेस का चुनाव हार गए
45 वर्ष की उम्र में सीनेट का चुनाव हार गए
47 वर्ष की उम्र में उपराष्ट्रपति बनने में असफल रहे
49 वर्ष की उम्र में सीनेट का चुनाव हार गए
52 वर्ष की उम्र में अमरीका के राष्ट्रपति चुन लिए गए

आपकी नाकामियाँ इनसे तो कम ही रही होंगी। तब, फिर उठिए और फिर से शुरू हो जाइए।


रविवार, 27 जनवरी 2019

चिन्मय की विभूति

वसंत। ऋतुराज वसंत। कवियों, लेखकों, गायकों, साहित्यकारों ने न जाने कितने पन्ने रंगे होंगे इस वसंत की महिमा के गायन में। हमने भी, चाहे जहां भी रहें हों वसंत का अनुभव किया है, देखा है।  लेकिन जब वसंत धीरे धीरे हमारे चारों तरह, दबे कदमों अवतरित होता है तो उसका शोर आँख से और नाक में सुनता है। उसके आगमन से हम अछूते नहीं रह पाते। वसंत को देखना और वसंत को आते हुए देखना दो अलग अलग 


चिन्मय विभूति में वसंत
 अनुभव हैं। पतझड़ के बाद श्री हीन हुई प्रकृति, आहिस्ते आहिस्ते अंगड़ाई लेते हुए रंग बदलने लगती है। चारों तरफ हरियाली छाने लगती है। घास, फूस, पत्तों को रंग बदलते देखना, कलियों को पनपते हुए निहारना और फिर उसका फूल बनना, पूरा वातावरण इंद्रधनुषी हो उठता है। पूरी प्रकृति मचलते हुए ऐसे उठ खड़ी होती है जैसे सोया बच्चा उठ कर माँ के सहलाने से अंगड़ाई लेते हुए आंखे खोल मुस्कुराता हुआ माँ से लिपट जाता है। प्रात: चिड़ियों की किल्लोल से आँखें खुलती हैं आर रात झींगुर की लोरियाँ सुला देती हैं। पूना से लगभग 45 किलोमीटर की दूरी पर, कोलवान के नजदीक, अध्यात्म, संस्कृति और अध्ययन के इस केंद्र चिन्मय विभूति  (चिन्मय आश्रम) में मैं इसी वसंत के आगमन को देख देख कर आह्लादित हो रहा हूँ।

85 एकड़ पर बने इस  केंद्र के प्रवेश द्वार पर मारुति मंदिर’’ से ही इस केंद्र का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ। केंद्र सहयाद्रि पर्वत शृंखला की गोद में बसा हुआ है। तीन दिशाओं में  पर्वत शृंखला और चौथी खुली हुई दिशा जैसे कि प्रवेश स्थान हो। ऐसा लगता है जैसे सहयाद्रि ने चिन्मय विभूति को अपनी अंजुली में भर रख 
प्रणव गणेश मंदिर से सूर्योदय एवं सूर्यास्त 
हो। रोज प्रात: पूर्व दिशा से इसी सहयाद्रि के पीछे से धिरे से झाँकता हुआ सूर्य चिन्मय विभूति में प्रवेश करता है। और फिर हर संध्या पश्चिम में इसी सहयाद्रि के पीछे विलीन हो जाता है। केंद्र के अंतिम छोर की पहाड़ी पर विराजमान हैं विघ्नहर्ता प्रणव गणेश। दोनों मंदिरों के मध्य की दूरी है 1.5 कि.मी.। दोनों ही मंदिरों का प्रांगण विशाल है और यहाँ की पूजा, अर्चना, आराधना, आरती वैदिक तरीके सम्पन्न होती है। इस केंद्र में एक से दो हजार व्यक्ति तक एक साथ रह सकते हैं, विचार विमर्श कर सकते हैं, सभा और राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन कर सकते हैं। यह केंद्र मिशन के अन्य सभी केन्द्रों से भिन्न है। इसका उद्देश्य साथ रहना नहीं बल्कि नई दृष्टि से देखना, नए युवा-स्वामी तैयार करना और नई स्फूर्ति पैदा करना है।
मारुति एवं प्रणव गणेश मंदिर


अत्याधुनिक सुधर्मा (सभागार) में 1000 व्यक्ति बैठ सकते हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रम, कार्यशाला, सेमिनार आदि का आयोजन पूरी सुविधा और बिना किसी व्यवधान के सुचारु रूप से किया जा सकता है। ध्वनि प्रणाली (sound system) बोस का है। बिजली जाने की अवस्था में पूरा सुधर्मा जेनेरेटर से चलाया जाता है। मंच, मंच की बत्तियाँ, माइक एवं अन्य उपकरण के साथ यूपीएस (UPS) लगा होने के कारण किसी भी कार्यक्रम में कोई व्यवधान नहीं होता। इस बड़े सभागार के अलावा दो और छोटे सभागार विनय मंदिर 200 और विद्या मंदिर 80 व्यक्तियों के लिए हैं।


अत्याधुनिक यंत्रो से सुसज्जित सुधर्मा, सभागार
इस केंद्र में आयोजित शिविर में शिक्षा, ज्ञान तथा प्रशिक्षण के लिए आने वाले प्रतिनिधियों एवं मेहमानों के आवास की समुचित एवं सुंदर व्यवस्था है। कमरे हवादार हैं तथा भरपूर प्राकृतिक रौशनी है । कमरे बड़े बड़े हैं जिनमें 5 व्यक्तियों तक के एक साथ रह सकने की व्यवस्था है। कमरों की बनावट ऐसी है कि बिना एक 
आवास

दूसरे की प्रतीक्षा किए कई लोग एक साथ तैयार हो सकते हैं। गरम पानी की व्यवस्था सौर-ऊर्जा से है और उबलता हुआ मिलता है। सभी आवासीय घरों के नाम भारत की महान माताओं के नाम पर हैं यथा - अंजनी, कौसल्या, यशोदा, सुमित्रा, देवकी, वैदेही, सुमित्रा आदि। 


अन्नश्री
अन्नाश्री (भोजनालय)  में एक साथ 600 व्यक्ति बैठ कर भोजन कर सकते हैं। आवश्यकता पड़ने पर 1000 व्यक्तियों की व्यवस्था की जा सकती है। इतने लोगों का स्वादिष्ट सात्विक भोजन पकाने के लिए इसके साथ लगा है आधुनिक उपकरणों से सुसज्जित रसोई घर। अन्नाश्री के चारों तरफ दीवारों की जगह शीशे लगे है जिनसे पर्याप्त मात्र में रोशनी तो आती ही है साथ ही भोजन के साथ प्रकृति का मनोहारी रूप भी देखने को
 मिलता है। सबसे बड़ी बात रसोई घर को पूरी ऊर्जा सूर्य से प्राप्त होती है, यानि सौर-ऊर्जा का प्रयोग होता है। पूरे केंद्र में कहीं से किसी प्रकार का तरल या ठोस कूड़े का निष्कासन नहीं होता है। पूरा परिसर आवास, भोजनालय, कार्यालय, रास्ते, खुली जगह सब साफ सुथरे और स्वच्छ हैं। कहीं कोई गंदगी नहीं दिखती।

इनके अलावा इस केंद्र में हैं :
1. चिन्मय जीवन दर्शन – जिसमें चिन्मय मिशन के प्रवर्तक, गुरुदेव स्वामी चिन्मयानंदजी का सम्पूर्ण  जीवन संवादात्मक (interactive) चित्रों एवं 10’X15’ के मुराल के जरिये दर्शाया गया है। स्वामीजी की मोम तथा क्रिस्टल की प्रतिमा भी है।
2. स्वानुभूति वाटिका  निश्चित रूप से वाटिका ही है लेकिन इस वाटिका के नाम में स्वानुभूति का विशेष महत्व है। यह कोई उद्यान मात्र नहीं है बल्कि खुद का खुद से परिचय कराने का प्रयत्न है। इस के बारे में बताया नहीं जा सकता अनुभव ही किया जा सकता है। आयें, देखें और अनुभव करें।
3। चिन्मय नाद बिन्दु – में भारतीय शास्त्रीय संगीत, नृत्य तथा गायन की शिक्षा दी जाती है। इसका उद्देश्य है – स्वर से ईश्वर और नर्तन से परमात्मनम

विहंगम दृश्य
इस पूरे केंद्र की कल्पना पूज्य स्वामी तेजोमयानंदजी की है। किसी भी संस्था को दीर्घ कालीन तक चलाने के लिए यह आवश्यक है कि नए नए लोग उस संस्था से नि:स्वार्थ भावना से जुड़ते चलें। साथ ही ये नए लोग प्रशिक्षित हों और संस्था के ध्येय से अच्छी तरह परिचित हों। इसी उद्देश्य से स्वामीजी ने स्वामियों के निवास के लिए नहीं बल्कि नए और वर्तमान स्वामियों को समुचित प्रशिक्षण देने हेतु इसका निर्माण करवाया। यहाँ निरंतर श्रद्धालुओं, बच्चों, युवा के अलावा स्वामी एवं स्वामिनियों के लिए आध्यात्मिक शिविर तथा अध्यापन का कार्य होता रहता है। नए इच्छुक व्यक्तियों को स्वामी की शिक्षा और सन्यास की दीक्षा दी जाती है।


एक अद्भुत केंद्र जहां मानसिक एवं आध्यात्मिक शांति का प्राप्त होना निश्चित है।


शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

यक्ष प्रश्न

महाभारत में एक प्रसंग है यक्ष प्रश्न का। यह प्रसंग उस समय का है जब पांडव जुए में हार कर वन में वास कर रहे थे। एक दिन पांडव चलते चलते थक जाते हैं और उन्हे बहुत प्यास लगती है। युधिष्ठिर के कहने पर भाई जलाशय की खोज करते हैं। एक एक कर चारों छोटे भाई उस जलाशय से पानी लाने जाते हैं लेकिन कोई भी लौट कर नहीं आता। अंत में युधिष्ठिर खुद जाते हैं। युधिष्ठिर को तब यह ज्ञात होता है कि उस जलाशय की रक्षा एक यक्ष कर रहा है, और उस यक्ष की चेतावनी और प्रश्नों  की अवहेलना करने के कारण चार पांडव मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं।  युधिष्ठिर यक्ष के प्रश्नों को सुनता है, उनके जवाब देता है और अपने सब भाइयों समेत सकुशल वापस लौट आता है। जीवन के कठिन प्रश्नों को ही तब से यक्ष प्रश्न कहा जाने लगा।

ऐसा ही एक कठिन या यक्ष प्रश्न मेरे सामने भी है। अपने भी शायद कई जगह पढ़ा या सुना होगा। लोग यह कहते हैं अगर गांधी होते तो वे -
ऐसा कहते?  ऐसा करते?    ऐसा लिखते?    ऐसा होता?
बड़े धड़ल्ले से इस कथन का प्रयोग करते हैं और फिर अपने मन की बात कह कर उसे गांधी समर्थित कार्य बताते हैं।  मुझे यह समझ नहीं आता कि उनके इस वक्तव्य का आधार क्या है? क्या गांधी सचमुच वैसा ही करते जैसा यह सज्जन बता रहे हैं?

लेकिन गांधी ने खुद लिखा और कहा है कि किस परिस्थिति में वे कब क्या करेंगे यह वे खुद नहीं जानते। यही नहीं ऊपर से एक सी दिखने वाली परिस्थिति में भी यह आवश्यक नहीं कि वे वही करेंगे जो उन्होने पहले लिया। शाम के धुंधलके में छिप कर, शुभचिंतकों की सलाह को दरकिनार कर, पुलिस की सहायता को ठुकरा कर सड़क पर निकल पड़ते हैं लेकिन उसी शाम पुलिस की  सहायता से छिप कर, वेश बदल कर भाग खड़े होते हैं। गांधी यह भी कहते हैं कि जिस बात पर आज वे कायम हैं कल भी उसी पर कायम रहेंगे, आज जिसे सत्य समझ रहे हैं कल भी उसे वैसा ही सत्य समझेंगे यह आवश्यक नहीं है। उनका तात्पर्य केवल इतनी ही था कि आज तक की  जानकारी और अनुभव के कारण वे वैसा कर, लिख या समझ रहे हैं। वे उसे पकड़ कर नहीं बैठेंगे। अपने ज्ञान और अनुभव के अनुसार उसे बदलने में संकोच नहीं करेंगे। एक पत्रकार के प्रश्न पर उन्होने यही कहा कि अगर उन्होने दो विरोधी बातें कही हैं तो जो बात  बाद में कही गई है उसे ही सही माना जाना चाहिए।  अब ऐसी परिस्थिति में ये लोग कैसे जान लेते हैं कि गांधी होते तो क्या करते? क्या गांधी उन्हे कह गए हैं? या ये गांधी के बराबर हो गए हैं?


इन सब गांधी क्या करते पर विचार करते हैं तब बड़ी हंसी आती हैं। गांधी के नाम पर सबने केवल अपने अपने मन की कही और नाम गांधी का दिया। गांधी ने, किसी को करने नहीं कहा – उन्होने खुद किया, और जब भी करने को कहा भी तो पहले खुद करके देखा और जब उन्हे लगा यह संभव है तभी करने के लिए कहा। लेकिन यहाँ सब दूसरे को करने के लिए कहने, दूसरे के कार्य में  मीन मेख निकालने या अपने कार्य को प्रमाणित करने के लिए ही कहते पाये जाते हैं। गांधी के नाम पर फैलाये जाने वाले भ्रम में न रहे हें। उसकी सत्यता को देखें, समझें, पढ़ें फिर माने।

शुक्रवार, 11 जनवरी 2019

नेता बनने का आसान उपाय


कुछ समय पहले मैंने बताया था कि बतौर राजेंद्र लहरिया एक राजनीतिक कार्यकर्त्ता बनने के लिए यह आवश्यक है कि लोग आप से डरें। राजेन्द्र की कहानी के नायक को राजनीतिक कार्यकर्त्ता का कार्य केवल इसलिए नहीं मिला क्योंकि उसके मुहल्ले वाले भले ही उसकी इज्जत करते हों, उसे एक सज्जन-भला पुरुष  मानते हों लेकिन उससे कोई डरता नहीं था। यही नहीं उसे यह भी समझ नहीं आया कि इस कार्य के लिए जनता में उसका लोकप्रिय होने के बजाय जनता का उससे डरना ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों है?

बहरहाल हम राजेन्द्र को छोड़ कर मुड़ते हैं शिवानी की तरफ। हिन्दी की जानी मानी और बेहद लोकप्रिय  लेखिका। उन्होने अपनी कहानी करिए छिमा में  आनन फानन में नेता बनने का उपाय सुझाया है –
“विद्यार्थियों की हड़ताल हुई तो काला झण्डा लिए, उस (कहानी के नायक) के कुल-दीपक ने ही स्वयं पिता का पुतला जला, विद्यार्थी समाज में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया था। जहां नेता का पद प्राप्त करने में पिता को सर्वस्व त्यागना पड़ा था, वहाँ पुत्र ने तीन दिन में सात बसें जला, असंख्य सरकारी इमारतों के बेंच तोड़, एक रेलगाड़ी उलट, नेता का सर्वोच्च पद अनायास ही प्राप्त कर लिया था”।

यह है हमारी आज की राजनीति का खेल, और इसके लिए जिम्मेदार हम हैं, दूसरा कोई नहीं। विधायकों और प्रशासकों ने समझ लिया है कि अंग्रेजों की गुलाम सहते सहते भारत की  जनता मानसिक गुलाम बन कर रह गई है। वह हर प्रकार का जुल्म सह लेती है। वह अन्याय बरदास्त करना सीख गई है। सरकार और प्रशासन ने समझ लिया है कि जनता न कुछ कहेगी न कुछ करेगी।  वह केवल एक मूक दर्शक बनी रहेगी। अपार शक्ति होने के बावजूद वह अपने आप को नि:सहाय ही समझती है। सब यही समझते हैं कि मैं अकेला 
क्या कर लूँगा? वह भूल गई है कि एक और एक ग्यारह होता है। प्रतिरोध करने के बजाय मुंह, आँख और कान बंद रखने में ही भलाई मानती है। और ऐसे दर्शकों में प्राण फूंकने वाले गांधी को मजबूरी का नाम महात्मा गांधी कहती है

अभी कुछ समय पहले अन्ना हज़ारे के रूप में एक मजबूर इंसान आया था। न लाठी उठाई, न बंदूक। न बम चलाया, न तोड़ फोड़ की। न आग लगाई न नारेबाजी की। न आरक्षण की बात की, न कर्ज माफी की। लेकिन पूरे देश के युवाओं को जोड़ दिया, इसी शक्तिशाली सरकार और प्रशासन को घुटने के बल बैठा दिया। अब आप ही बताएं वे मजबूर थे या मजबूत?

गांधी तो महान योद्धा था। हर समय, हर युद्ध में स्वयं सबसे आगे खड़ा मिला। गांधी केवल खुद ही नहीं लड़ा बल्कि एक ऐसी विशाल बहादुर योद्धाओं की सेना खड़ी की, एक ऐसी निहत्थी सेना, जैसी इतिहास में कोई नहीं कर पाया। बिना किसी हथियार के हथियारों से लदी सेना के सामने सीना तान कर खड़ी हो गई और उसे मजबूर कर दिया। मजबूर तो हम हैं, हर प्रकार का जुल्म देखते रहते हैं, अन्याय बरदास्त करते हैं, अपमान सहते हैं लेकिन चूँ तक नहीं करते, और दोष दूसरों को देते हैं। अगर गांधी मजबूर था तो देश की इतनी विशाल जनता में एक तो मजबूर बन कर दिखाये? देश बदल जाएगा।



शुक्रवार, 28 दिसंबर 2018

संस्कृति से प्यार


यह बात आजादी के पहले की है। अँग्रेजों के शासन के समय एक प्रख्यात विद्यालय था। इसमें प्राय:  विद्यार्थी अमीर घरों से आते थे। उनमें ज़्यादातर विद्यार्थी फैशन परस्त एवं अंग्रेजों का ही लिबास पहने दिखते थे। उस विद्यालय में एक नए विद्यार्थी ने प्रवेश लिया।  प्रवेश के समय उसकी पोशाक धोती-कुर्ता व साधारण जैकेट थी। विद्यालय के छात्रों ने उस नवांगतुक छात्र को देख कर उसका खूब मज़ाक उड़ाया। उस पर कटाक्ष भी किया। इसे सुन छात्र अप्रभावित रहा और बोला, “यदि पोशाक पहनने से ही व्यक्तित्व ऊपर उठ जाता है तो कोट पेंट पहनने वाला हर अंग्रेज़ ऋषितुल्य होता। मुझे तो उनमें ऐसी कोई विशेषता दिखाई नहीं पड़ती। इस गरम प्रदेश में आने वाले अंग्रेज़ अपनी संस्कृति की प्रतीक पोशाक को यहाँ के अनुरूप नहीं बदल सकते तो मैं ही उनकी देखा देखी अपनी संस्कृति को क्यों हेय होने दूँ?  मुझे अपने इस झूठे सम्मान से अधिक अपनी संस्कृति प्यारी है। जिसे जो कहना है कहे, पर मैं अपनी संस्कृति का परित्याग नहीं कर सकता। भारतीय पोशाक त्यागना मेरे लिए मरणतुल्य है

वह विद्यार्थी और कोई नहीं, वरन प्रसिद्ध विचारक व क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी  थे, जिन्हे अपनी संस्कृति से गहरा लगाव रहा।
 
गणेश शंकर विद्यार्थी
पढ़ और सुन कर तो हम नहीं समझते लेकिन यह बड़े आश्चर्य की बात है कि हम यह देख कर भी नहीं समझ सके कि ठंडे प्रदेश से गरम प्रदेश में  आने पर भी गोरों ने अपनी पोशाक नहीं छोड़ी और हम गरम प्रदेश में  रहते हुए भी अपने प्रदेश की पोशाक छोड़ कर उनकी नकल में ठंडे प्रदेश की पोशाक को अपना लिया।  अब तो हमें  आजाद हुए सात से ज्यादा दशक हो चुके हैं, हम कब नकल करना छोड़ अकल से काम लेना सीखेंगे।