शुक्रवार, 29 मार्च 2019

मजबूर


मजबूर! किसे कहते हैं मजबूर? उसे जो परिस्थिति वश बदल जाय  या उसे जो  परिस्थिति को बदल दे ? मैं पूरी तरह भ्रमित हूँ।


दक्षिण अफ्रीका पहुँचते ही वहाँ की रंग भेद नीति की गंध महसूस होने के बावजूद सब की सलाह को दरकिनारे करते हुवे रेल के प्रथम श्रेणी में सफर करने वाला इंसान मजबूर हो सकता है?

रेल में सफर करने वाले गोरे यात्रियों की परवाह न कर पुलिस के कहने पर भी तीसरे दर्जे में सफर करने  के बजाय प्लैटफ़ार्म पर फेंके जाने के लिए तैयार व्यक्ति मजबूर हो सकता है?

अदालत द्वारा पगड़ी को हटाने का निर्देश देने पर पगड़ी हटाने के बदले अदालत छोड़ कर जाने वाला इंसान मजबूर हो सकता है?

बीच सड़क पर अपने ही वतन के लोगों द्वारा इतनी पिटाई खाई की अगर गोरे बचाने नहीं आ जाते तो  वह शायद उसके जीवन का अंतिम दिन होता। कारण-वह अपने सिद्धांतो और विचारों से मजबूर था।

गोरी सरकार और गोरों के हिंसात्मक विरोधों के बावजूद मय परिवार के वापस दक्षिण अफ्रीका पहुंचा। फिर से सड़क पर मार पड़ी। गोरे दोस्तों के कारण बचा। उसकी मजबूरी थी अपने देश वासियों के प्रति अपने उत्तरदायित्व और दिये गए वचन के निर्वाह की।

बनारस में मंच पर उपस्थित राजे-महाराजे एवं विशिष्ट-गणमान्य व्यक्तियों की परवाह  न कर उनके ही खिलाफ वक्तव्य देने की कोई तो मजबूरी  रही होगी?

जब देश के सब साधन सम्पन्न शीर्ष एवं बड़े नेता चंपारण को अनदेखा कर रहे थे किस मजबूरी के कारण ही वह वहाँ पहुंचा होगा?

चंपारण में नीलहे मालिकजिलाध्यक्षन्यायालय एवं सरकार द्वारा चंपारण छोड़ने के हुक्म को मानने से इंकार करने की भी कोई मजबूरी  हो सकती है?

एक के बाद एक दो मुकदमों- न्यायालय की अवमानना और देशद्रोहमें अपने पर लगे इल्जाम को कबूलते हुए कहा कि उसे कड़ी से कड़ी सजा सुनाई जाए।  क्या यह उसकी मजबूरी थी?

जब पूरा देश आजादी का जश्न मना रहा था उस समय नोआखाली के मुस्लिम बाहुल्य प्रदेश में जहां हिंदुओं का कत्लेआम किया गया था अपने मुट्ठीभर साथियों के साथ निहत्थे लेकिन निर्भय घूमने के पीछे भी कोई मजबूरी ही रही होगी?

नोआखाली में मुसलमानों का हिंदुओं द्वारा मुसलमानों को माफीनामादेने का प्रस्ताव”  रद्द कर कहा कि जघन्य अपराधियों को सबसे पहले बिना किसी शर्त के समर्पण करना चाहिए। यह मजबूरी है या मजबूती?

बिहार के दंगा ग्रस्त इलाके में  एक हिन्दू, एक   मुसलमान परिवार को समाप्त कर  उस परिवार के 2 माह के बच्चे को लाया आया और पूछा कि बताओ मैं इस बच्चे का क्या करूँउसने सुझाव दिया कि इस बच्चे के लालन पालन का उत्तरदायित्व तुम लो और इस बात का ध्यान रखो कि यह बच्चा बड़ा हो कर एक सच्चा मुसलमान बने।  क्या मजबूरी रही होगी इस फैसले  की ?

 अगर इसे ही मजबूर इंसानकहते हैं तो हे ईश्वर! हे परवरदिगार! या अल्लाह! अगर तू कहीं है और मुझे सुन रहा है तो हमें ऐसा ही एक, सिर्फ एक ही मजबूर व्यक्ति दे दे।


शुक्रवार, 22 मार्च 2019

होली के रंग


होली’ शब्द के उच्चारण मात्र से मन में हिलोरें उठने लगती हैं और पूरा अस्तित्व सब कुछ भूलकर बचपन की  यादों में डूबने उतराने लगता है। सात-आठ बरस की रही होऊँगी यानि १९४२-४३ के समय की याद आती है। तब पिताजी लखनऊ के जुबली कॉलेज में हिन्दी पढ़ाते थे। लखनऊ की गंगा-जमुनी तहजीब के बीच पल रहे थे हम। पड़ोस में एक मुस्लिम परिवार रहता था। खां साहब हमारे ताऊ जी थे और उनकी बेगम हमारी ताई। हर बरस उनके घर से सुबह-सुबह हमारे घर बड़ी स्वादिष्ट सिवईयाँ आतीं और शाम को सज-धज कर अपनी ईदी वसूलने जाते हम भाई-बहन। और होली के दिन सबसे पहली पिचकारी खां ताऊ को भिगोती। अस्मत और इफ़्फ़त आपा कितना भी भागें या छुपें हम उनके गालों पर गुलाल मले बिना उनका पीछा नहीं छोड़ते। शाम को हम खूब सारे होली के पकवान लेकर उनसे होली मिलने जाते। वे लोग हमारे लाए लड्डूपपड़ीखुरमेशक्करपारे और खासतौर से मावे भरी गुझियाँ बहुत स्वाद ले-लेकर खाते और असीसते। ताई बेगम की मैं  सबसे लाड़ली थी। हर होली पर वे अपने हाथों से बनाई कपड़े की गुड़िया जरूर देती थीं। गुड्डा इफ़्फ़त  झटक लेती थी। फिर सावन में हम दोनों उनका ब्याह रचाते थे। ओह! रे मीठे प्यारे बचपन! होली आने के पाँच दिन पहले घर के दो शरारती बच्चे एक तो मैं और दूसरा मेरा छोटा भाई,  हम दोनों सुबह-सुबह निकल जाते थे और मोहल्ले भर का चक्कर लगा कर गाय का गोबर इकट्ठा करके घर लाते थे। हम तीनों बहनें गोबर की चपटी लोइयाँ बनाकर अंगुली से बीच में छेद बनाकर धूप में सूखने रख देतीं। हम तीनों बहनें अपने भाइयों का नाम ले-लेकर गीत गातीं और उनके ढाल और तलवार की शक्ल की लोइयाँ बनातीं । सूखने के बाद होली दहन वाले दिन इस छेदों के बीच से सुतली पिरोकर छोटी-बड़ी मालाएँ बनाई जाती थीं। रात को आँगन में अम्मा एक चौकोर अल्पना बनतीं और विधिवत पूजन के बाद सबसे पहले बड़ी वाली माला गोलाकार बिछाई जाती और क्रमानुसार उससे छोटी मालाएँ एक-एक करके एक-दूसरी के ऊपर टिकाई जातीं और इन मालाओं का एक पिरामिड जैसा बन जाता। फिर मंत्रोच्चारण के साथ पिताजी होलिका दहन करते। हमारा भरा-पूरा घर परिक्रमा लगाता। हम गन्ने और हरे चने के होराहे उन लपटों में भूनते।

और फिर वह क्षण आताजब हम छोटे बच्चों का गहन इंतजार खत्म होता और मुंह में पानी भर आता। कई दिन से अम्मा गुझियाँ तथा अन्य  पकवान बना-बनाकर कलसों में भरकर रखती जाती थीं और कहती थीं, ‘होली जलाने के बाद रोज खाने को मिलेंगे।’ अब थके मांदे सब सोने जातेपर नींद कहाँ आती थी। सुबह से ही रंग-गुलाल से होली जो खेलनी थी। ..........


कैसी मनोहारी परम्पराएँ थीं। पहली रात में होली के साथ सारी दुशमनी जला दी जाती थीं। दूसरे दिन मन के बचे-खुचे मैल रंगों  से धो दिए जाते थे और शाम को खुले मन से प्रेम-प्यार के वातवरण में सब एक-दूसरे से गले मिलते थे। धीरे-धीरे हमारे देखते-देखते पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में लोग यह सब भूलते गए और अब तो हैप्पी होलीकह दिया और हो ली ‘होली
साभार – पुष्पा भारतीआहा!जिंदगी मार्च २०१७

शुक्रवार, 15 मार्च 2019

मेरी परेशानी


कठिन काम  को करना आपकी हिम्मत का काम है। उसे करना एक चुनौती होती है। लेकिन एक असंभव कार्य को संभव बनाने का प्रयत्न करना आपकी मूर्खता का प्रमाण है। जो कार्य संभव नहीं है वह कार्य आप करने की कोशिश कर रहे हैं। आप एक ऐसे समाज में सुख और शांति खोजने की कोशिश कर रहे हैं जिसका कोई भी सिरा सुख और शांति से जुड़ा हुआ नहीं है। उसमें आप एक कल्पना कर रहे हो कि कुछ तो ऐसा हो जाएगा कि आप एक अच्छा जीवन जीने लगेंगेएक शांति का जीवन व्यतीत करने लगेंगे। जिसको आनंद कहते हैंवह आनंद का जीवन मिल जाएग। मैं परेशान इस बात से हूँ।

यक्ष ने युधिष्टिर से पूछा कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या हैतो उसने कहा कि दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि हर आदमी यह जानता है कि उसका अंत होने वाला है लेकिन वह जीने की कोशिश में लगा है। यही दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य है। कुछ इसी तरह का यह सवाल है कि आप जो भी चीज खोज रहे हो समाज मेंचाहे जिस भी नाम से खोज रहे होचाहे जिन भी सवालों के द्वारा खोज रहे हों, वह है नहीं और आप पाने की कोशिश में लगे हो। और बड़ी आशा से लगे हुवे हो। किसी को लगता है कि बहुत सा पैसा कमा लेंगे तो सुख मिल जाएगा। कुछ सोचते हैं कि बहुत सा ज्ञान कमा लें तो उसमें से कुछ निकल आयेगा। नये नये आविष्कार हो रहे हैं। नई-नई तरह-तरह की तकनीक सामने आ रही हैं वे हमारा काम बहुत आसान कर रही हैं। जिस काम के लिए बड़ी मशक्कत लगती थी वह काम अब बड़ी आसानी से हो रहा है। लेकिन जो हो रहा है उसमें से वह चीज नहीं निकल रही है जो हम चाहते हैं। यह अपने आप में ही एक बड़े कौतुक का सवाल है। 

तबमेरी चिंता इस बात पर है कि यह बात कैसे समझी जाए और कैसे समझाई जायेसमझना एक चीज़ है और समझाना एक अलग चीज़ है। मैं एक बात कहता हूँ अपने साथियों से कि तुमने कोई बात समझ ली है”  इसकी कसौटी क्या है? “हाँ हाँ हम यह बात समझ गए हैं। गांधी का क्या विचार है हम समझ गए है।लेकिन आप समझ गए हैं इसकी कसौटी क्या हैइसकी एक बहुत साधारण सी कसौटी है। क्या  यह बात तुम दूसरे को समझा सकते होअगर तुम दूसरे को समझालोगे तो तुमने बात समझ ली है। और नहीं तोएक गजल है:

कभी कभी हमने भी, ऐसे अपना दिल बहलाया है,
जिन बातों को हम खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है।

ज्यादा कर हम ऐसी ही बाते करते हैं। ज़्यादातर हम उन बातों को समाज के नये नवजवानों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं जिनकी समझ  हमको ही नहीं होती है। एकहमारी भाषा भी काम नहीं करती है। दूसरेहम उनकी भी बातें करते हैं जिन बातों को करने के लिए, हमारे पास तथ्य नहीं है । सबसे बड़ी बात यह है कि जो बात तुम समझा रहे हो उसमें तुम्हारा खुद का विश्वास नहीं है। तब तुम्हारी बात तुरंत नकली हो जाती हैं।

ये सारी चीजें हैं जिनके बीच में से तुमको खोजना हैजिसे हम चाहते हैं। तो गांधी वान्धी को छोड़ कर अगर हम अपनी चिंता थोड़ी ज्यादा करने लगें तो शायद हम अपने  सवालों के जवाब के नजदीक पहुँच पायेंगे। क्योंकि एक बड़ा लंबा जीवन आप सब लोगों ने जीया है, अपनी अपनी तरह से। अपने अपने विचारअपने साधनअपना परिवार। इन सबों को देखते हुए एक ऐसी जगह पहुँच गए हैंहम सभी लोगसामूहिक रूप में जहां हम न खुद को सुरक्षित पा रहे हैं न अपने परिवार को। न अपने खुद के बारे में विश्वास के साथ कुछ कह पा रहे हैंन परिवार के बारे में। तो जिसे दिहाड़ी मजदूर कहते हैं वैसी जिंदगी गुजार रहे हैं। आज का दिन गुजर गया। बसअगला दिन कैसा होगा मालूम नहीं। अगला दिन भी गुजर जाएऐसा कुछ हो जाए तो चलो भगवान का भला अगला दिन भी निकल गया। ऐसे तो समाज नहीं चलता है। ऐसे तो समाज जीता भी नहीं है। इसीलिए हम जी नहीं पा रहे हैं। मुश्किल में पड़े हैं।

इतने सारे प्रतिद्वंद्वी खड़े कर लिए हैं हमने अपने अगल बगल कि लगता है कि हर समय कुरुक्षेत्र में ही खड़े हैं। कोई भी शांति के साथ जीवन का मजा नहीं ले रहा है। युद्ध कभी कभी होता है तब,  शायदअच्छा लग सकता है। लेकिन अगर २४ घंटे ही युद्ध होता रहे तो बोझ लगता हैमुश्किल हो जाती हैजीना कठिन हो जाता है।  

इसमें पहला कदम कौन पीछे खींचता है वही सबसे समझदार आदमी है। आपने नियम ही यह बना दिया है कि कदम पीछे खींचना कायरता है। जब तक आप कदम पीछे नहीं खींचतेऔरों के कदम ऊठेंगे नहीं। यह आप देख रहे हो। फिरकोई तो निर्णय आपको करना पड़ेगा। 

जब मैं यह बात सोचता हूँ तो मेरे लिए हिन्दू, मुसलमान, क्रिश्चियन, सिक्ख, फारसी जैसी कोई बात रहती ही नहीं है। मैं सोचता हूँ कि अगर रहना है तो रहने के लिए कुछ मूलभूत नियम तो बनाने ही पड़ेंगे।  तब कैसे रहोगेइसको सोचना शुरू करोगे तब हम वहीं पहुंचेगे जहां महात्मा गांधी पहुंचे थे। तो मेरे लिए महात्मा गांधी भगवान नहीं हैं। मैं उनकी पूजा नहीं करता हूँ। मैं जिन सवालों से परेशान हूँ उनका समाधान ढूँढता हूँ तो इसी आदमी के पास पहूंचता हूँ। तब सोचता हूँ कि कोई तो बात है भाई। इस आदमी के जवाब खत्म नहीं होते हैं, हमारे प्रश्न खत्म हो जाते हैं। । बस इतनी सी ही बात है जो मुझे परेशान प्रेरित करती है, प्रेरित करती है।
कुमार प्रशांत

शुक्रवार, 8 मार्च 2019

गांधी जी का सेव


वर्धा के गांधी आश्रम में बुनियाद शिक्षा का मसौदा बन रहा था। डॉ. जाकिर हुसैनके.टी.शाहजे.बी.कृपलानीआशा देवी आदि कई लोग मौजूद थे। बापू ने पूछा, “के.टी. अपने बच्चों के लिए कैसी शिक्षा तैयार कर रहे हो?” सब चुप रहे। सब समझ गए कि गांधीजी के मन में कुछ है। के.टी. ने पूछा, “बापूआप ही बताइये कि कैसी शिक्षा हो?” बापू ने कहा, “के.टी.अगर मैं किसी भी कक्षा में जाकर पूछूं कि मैंने एक सेब चार आने में खरीदा और उसे एक रुपए में बेचा दिया तब मुझे क्या मिलेगा? मेरे इस प्रश्न के जवाब में अगर पूरी कक्षा यह कहे कि आपको जेल मिलेगीतब मानूँगा कि आजाद भारत के बच्चों के सोच के मुताबिक शिक्षा है।” बापू के इस सवाल पर सब दंग रह गये। वास्तव में किसी व्यापारी को यह हक नहीं कि वह चार आने के चीज पर बारह आने लाभ कमाये। इस प्रकार बापू ने एक प्रश्न के जरिये नैतिक शिक्षा का संदेश बिना बताये ही दे दिया।


एक विश्लेषण के अनुसार भारत की  प्रथम १०० कंपनियों (निजी एवं सरकारी मिलाकर) का वर्ष २०१६ में शुद्ध लाभ ३,७४,५५७.८१ करोड़ थायानि औसतन प्रति कंपनी ३७४५.५८ करोड़ रुपये। इन आंकड़ों के अनुसार तालिका का सबसे नीचे के १००वें प्रतिष्ठान का दैनिक लाभ १० करोड़ रुपये हुआ।  इन आंकड़ों को गांधी के विचारों के साथ जोड़ कर  समझने की आवश्यकता है। यह न किसी सरकार से संभव है न किसी कानून के तहत। गांधी की  आर्थिक आजादी तो जागरूकता के द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है। देश में फैली मंहगाई असली मंहगाई नहीं है, यह तो असीमित लालच का परिणाम भर है। एक के पास अकूत धन है, दूसरे के पास खाने को रोटी नहीं।

शुक्रवार, 1 मार्च 2019

सूतांजली मार्च 2019


सूतांजली मार्च, २०१९ का अंक तैयार है।

इस अंक में दो लेख हैं-
१. आजा मेरी गाड़ी में....!
मेरे कहने भर की देर थी और वह गाड़ी का दरवाजा खोल कर बैठ गई।
फिर क्या हुआ?
२. हाँ हम  ... गांधी के  हत्यारे
कौन है गांधी का हत्यारा। जिसने ३० जनवरी १९४८ को जिसको गोली लगी वह तो शरीर था। उसकी आत्मा का क्या हुआ? क्या वह अभी है या उसे भी मार डाला गया। किसने मारा और  कैसे?

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

रावण में भी तमोगुण नहीं था!


हम, हिन्दुओं को यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि सत, रज, तम क्या हैं? ये शब्द हम सबों ने कभी-न-कभी, किसी-न-किसी से कहीं-न-कहीं सुना जरूर है। और हम इनसे बहुत ऊब भी चुके हैं। अगर मैं यह कहूँ कि मैं अभी उनके बारे में ही बताना चाहता हूँ, तब आप अभी यहीं डिलीट या नेक्स्ट दबा कर आगे बढ़ जाएंगे। ठीक है, मैं विषय बदल देता हूँ। जरा आप बताएँगे कि यह अप्रवृत्ति: का क्या अर्थ है और यह कौनसे गुण में आता है?

विद्वानों के अनुसार अप्रवृत्ति का अर्थ है -
सब प्रकार के उत्तरदायितत्वों  से बचने या भागने की प्रवृत्ति, किसी भी कार्य को करने में स्वयं को अक्षम अनुभव करना तथा जगत में किसी वस्तु को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न और उत्साह का न होना – ये सब अप्रवृत्ति शब्द से सूचित किये गए हैं। इस प्रवृत्ति या अप्रवृत्ति के प्रबल होने पर सब महत्वाकांक्षाएं क्षीण हो जाती हैं। मनुष्य की शक्ति सुप्त हो जाने पर मात्र भोजन और शयन, ये दो ही उसके जीवन कें प्रमुख कार्य रह जाते हैं। इस सबके परिणामस्वरूप वह अत्यंत प्रमादशील हो जाता है। उस अपने अंतरतम का आवाहन भी सुनाई नहीं देता। और वस्तुत:, वह रावण के समान अत्याचारी भी नहीं बन सकता है। क्योंकि दुष्ट बनने के लिए भी अत्यधिक उत्साह और अथक क्रियाशीलता अवश्यकता होती है। यानि रावण में यह तमोगुण यानि अप्रवृत्ति नहीं थी।

गीता (14.13) में अप्रवृत्ति को तमो गुण का लक्षण बताया गया है। केवल अशुभ कार्य का न करना ही नहीं बल्कि शुभ कार्य का न करना भी तमोगुण के लक्षण हैं। क्योंकि इस प्रकार हम शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कार्यों को करने में असमर्थ हो जाते हैं।

तब अशुभ कार्य का न करना ही यथेष्ट नहीं है, शुभ कार्य का करना आवश्यक है। अपने आज कौनसा शुभ कार्य किया?  

शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2019

मानस की स्तुतियाँ


 भारत में राम कथा अनेक ऋषियों, मुनियों, मनीषियों और विद्वजनों ने लिखी हैं। इनमें प्रमुख हैं अवधी भाषा में गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस, संस्कृति में महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण और तमिल में कम्बर रचित रामावतरम। साधारण जनों में ये ग्रंथ क्रमश: मानस, रामायण और कम्ब रामायण के नाम से जानी जाती हैं। सरल अवधी भाषा में होने के कारण उत्तर भारत में तुलसी कृत मानस और तमिल में होने के कारण दक्षिण भारत में कम्ब रामायण ज्यादा लोकप्रिय ग्रंथ रहे। इन तीनों ग्रन्थों में प्रमुख घटनाओं का विवरण एक ही जैसा है लेकिन तीनों में फर्क हैं। जब अंग्रेजों ने, बंधुआ मजदूर के रूप में बड़ी संख्या में भारतीयों को भारत के बाहर विदेशों में भेजा उस समय उस अनजान प्रदेश में हमारे इन पूर्वजों का एक बड़ा सहारा यही मानस था। सब अपने साथ इस ग्रंथ को लेकर गए थे, कइयों को तो पूरा ग्रंथ कंठस्थ था। यही उनकी पूजा थी, यही उनका संबल था, यही उनका मनोरंजन और यही वह कड़ी थी जिसके सहारे वे सब एक दूसरे से जुड़े थे।
गोस्वामी तुलसीदास

वाल्मीकि

कम्ब


10 जनवरी से 5 फरवरी 2019, 27 दिन व्यापी इसी सम्पूर्ण मानस पर प्रत्येक दिन 4 घंटे सिलसिलेवार चर्चा की चिन्मय मिशन के स्वामी श्रद्धेय श्री तेजोमयानन्दजी ने। रामकथा पर कई प्रवचन सुना हूँ, लेकिन यह एक अनोखा और अलग ही अनुभूति थी जिसमें स्वामीजी ने श्रोताओं को अभिभूत और भाव विभोर कर दिया। स्थान भी अनुपम था। पूना से 45 कि.मी. पर कोलवान में चिन्मय विभूति। रहने और भोजन की उत्तम  व्यवस्था के अतिरिक्त सहयाद्रि पर्वत की घाटी में प्रकृति के मध्य, सुहावने मौसम में अत्याधुनिक सभागार में।

क्या मानस केवल एक राम कथा है? राम की कहानी? चलते फिरते हम तुरंत सिर हिलाकर कह देते हैं हाँ हाँ हम जानते हैं राम सीता की कहानी बहुत बार बहुतों से सुनी है और पढ़ी भी है। क्या सचमुच सुना और पढ़ा है? राम कथा सुनी होगी, राम पर प्रवचन भी सुने होंगे। रमानन्द सागर द्वारा रचित रामायण सीरियल भी देखा होगा। लेकिन क्या मानस बस केवल एल कथा मात्र है? नहीं, मानस केवल यही नहीं है। यह कथा के साथ साथ एक  अनुपम साहित्य है जिसमें कथा के साथ  ज्ञान है, विवेक है, हमारे प्रश्नों के उत्तर हैं, रामराज का अर्थ है, मानव से ईश्वर तक की राह है।  लोगों की सुनी सुनाई बात पर न जाकर इसे पढ़ें और समझें तब दिखेगा भी और सुनेगा भी। अन्यथा एक सैलानी जो दुर्गम पहाड़ों पर घूमने जाता है, सूर्योदय भी देखता है लेकिन हर समय कानों में हेड फोन लगा है और आँखें एल्क्ट्रोनिक डिवाइस पर गड़ी हैं। लौट कर आकर वहाँ की प्रकृति के सौंदर्य का और सूर्योदय का वर्णन किया और लोगों ने उसे ही सत्य भी मान लिया।हम भी वैसा ही करते हैं।  

इस वृहद ग्रंथ में वैसे तो बताने के लिए बहुत कुछ है लेकिन फिलहाल मैं आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा मानस की स्तुतियों की तरफ। मानस के पन्नों में अनेक स्तुतियाँ बिखरी पड़ी हैं। उन्ही में से कुछ एक के संदर्भ मैं देना चाहूँगा। बाकी तो आप खुद पढ़ें और उचित मौकों पर उनके पाठ भी कीजिये-गाइए ताकि औरों को भी इसका पता चले :
बालकांड
दोहा 185 के बाद – देवताओं द्वारा स्तुति
जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवन्ता। .......
दोहा 191 के बाद – भगवान राम के जन्म पर
भए प्रगट कृपाला दीनदायाला कौसल्या हितकारी। .......
अरण्य कांड
दोहा 3 के बाद। अत्री मुनि द्वारा स्तुति
नमामि भक्त वत्सलम। कृपालु शील कोमलम॥ .....
दोहा 31 के बाद। जटायु द्वारा स्तुति
जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही। ......
लंका कांड
दोहा 112 के बाद। देवताओं द्वारा स्तुति
जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत विश्राम॥ ......
दोहा 114 के बाद। उमापति महादेव की स्तुति
मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥ .....
उत्तर कांड
दोहा 12 के बाद। वेदों द्वारा स्तुति
जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने। .....
दोहा 13 के बाद। महेश द्वारा स्तुति
जय राम रमारमनं समनं। भवताप भयाकुल पाहि जनं॥ .....
दोहा 107 के बाद
नमामीशमिशान निर्वाणरूपं। विभुं व्यापाकं ब्रह्म वेदस्वरूपं॥  ......

और अंत में मैं यही कहना चाहूँगा:
जिन खोजा तीन पाइया, गहरे पानी  पैठ
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।